विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः आसुरिः।   देवता  अग्निः ।  छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

आर्गन्म विश्ववेदसमस्मभ्यं वसुवित्तमम्। अग्ने सम्राडुभि द्युम्नमुभि सहुऽआयच्छस्व

-यजु० ३।३८


हम (आ अगन्म) आये हैं (विश्ववेदसम्) विश्ववेत्ता, (अस्मभ्यं वसुवित्तमम्) हमें सर्वाधिक धन प्रदान करने वाले आपकी शरण में । हे (अग्ने) अग्रणी जगदीश्वर ! (सम्राट्) हे विश्वसम्राट् ! आप (अभि) हमारे प्रति (द्युम्नम्) यश और (अभि) हमारे प्रति (सहः) बल (आ यच्छस्व) प्रदान कीजिए।

संसार में जितने प्रकार के पदार्थ हैं, उतनी ही विद्याएँ हैं, क्योंकि प्रत्येक प्रकार के पदार्थ की अपनी-अपनी विशेषता है। इस प्रकार असंख्य विद्याएँ हैं। ब्रह्माण्ड में ज्ञान का समुद्र लहरा रहा है। कोई किसी विद्या का विज्ञानी है, कोई किसी का। विज्ञानी पण्डितों में भी तारतम्य है। ज्ञान में कुछ कमर तक पानी के सरोवर के समान होते हैं, कुछ मुखपर्यन्त पानी वाले सरोवर के समान और कुछ लबालब भरे हुए डुबकी लगाने, तैरने और स्नान करने योग्य सरोवर के समान ज्ञान से लबालब भरे होते हैं। संसारी ज्ञानियों के ऊपर ज्ञानियों का ज्ञानी, विश्वविज्ञ ‘विश्ववेदस्’ अग्नि परमेश्वर विद्यमान है। सबका अग्रणी होने के कारण वह अग्नि है, और विश्ववेत्ता होने के कारण विश्ववेदस्’ कहलाता है। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद मुनि सनत्कुमार के पास विद्याध्ययनार्थ जाते हैं। पूछने पर वे बताते हैं कि मैं चारों वेद, इतिहास, पुराण, वेदों के वेद व्याकरण आदि १९ विद्याओं में पारङ्गत हो चुका हूँ। सनत्कुमार कहते हैं कि ये सब तो लौकिक विद्याएँ हैं, ‘नाम’ हैं। नाम से बढ़ कर वाक् है, वाक् से बढ़ कर मन है इत्यादि विस्तार करते हुए वे ‘भूमा’ तक पहुँचा देते हैं। अन्त में ब्रह्मपुर तथा ब्रह्म तक ले जाते हैं।

इससे ज्ञात होता है कि लौकिक विद्याएँ भी अन्तिम नहीं हैं, उनसे भी परे अध्यात्मविद्या या ब्रह्मविद्या है। मनुष्य एक-दो विद्याओं में अपूर्ण पण्डित होकर ही स्वयं को विद्वान् मानने लगते हैं। उसकी तुलना में परमेश्वर का ज्ञान कितना अगाध है, इसी कारण वह ‘विश्ववेदाः’ है, सब लौकिक और आध्यात्मिक विद्याओं का पूर्ण विद्वान् है ।।

परमेश्वर का दूसरा विशेषण मन्त्र में ‘वसुवित्तम’ है, अर्थात् वह सबसे बड़ा ‘वसुवित्’ है। वसु धन का नाम है, ‘वित्’ में लाभार्थक विद धातु है, ‘तमप्’ प्रत्यय अतिशय अर्थ में है। वह हमें सबसे बढ़कर धन प्राप्त करानेवाला है। सांसारिक धनपति तो हमें सामान्य और अल्प धन ही प्राप्त कराते हैं, परमेश्वर अग्नि, जल, वायु, भूमि, सूर्य, विद्युत्, वर्षा आदि ऐसे विशिष्ट धन प्राप्त कराता है, जिनके बिना हम जीवित ही नहीं रह सकते। इसके अतिरिक्त वह विद्या, विनय, सत्य, अहिंसा आदि आध्यात्मिक धन भी हमें प्रदान करता है। | वह जगदीश्वर ही हमारा असली ‘सम्राट्’ है। हे सम्राट् ! हे राजाधिराज ! तुम हमारा जीवन ऐसा उज्ज्वल कर दो कि हमें ‘द्युम्न’ मिले, हम यश के भागी हों और शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक बल भी हमें प्रदान करो। हे सम्राट् ! हम तुम्हारी प्रजाएँ हैं।

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. विश्वं सर्वं वेत्ति जानातीति विश्ववेदाः तम् । ‘विदिभुजिभ्यां विश्वे’ उ० ४.२३९ से असि प्रत्यय ।

२. वसूनि लौकिकानि आध्यात्मिकानि च धनानि वेदयति प्रापयतीति विश्ववित्, अतिशयेन विश्ववित् विश्ववित्तमः तम् ।

३. द्युम्नं द्यातते: यशो वा अन्नं वा । निरु० ५.५

४. ओ-दाण् दाने, ‘षा घ्रा ध्मा स्था०’ पा० ७.३.१८ से दाण को यच्छ आदेश।

५. सह:=बल, निघं० २.९ ।

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