कविता – ‘वीर वैरागी’ (बलिदान दिवस विशेष) ✍🏻 पण्डित चमूपति एम॰ए॰

डर डर कर थे भीरु सरकते, कहीं गुप्तचर-चाल न हो।
स्वांग भूख का भरा शत्रु ने, कण के मिष मृति-जाल न हो।
लो ! धर दी तलवार धीर ने, हंसता काल कराल न हो।
प्यारा लगता प्राण-पखेरू, मुक्त मृत्यु का माल न हो॥

कोई यम को मार ले, भवसागर को फाँद जाय।
कौन मनचला वीर जो, वैरागी को बाँध जाय॥

आईं इन नयनों के आगे लीलाएं अद्भुत नाना।
एक खेल था चतुर खिलाड़ी का पिंजरे में बँध जाना॥
जिन आंखों ने पीठ देख अब तक वैरी को पहिचाना।
बैरि-बदन हंसता सम्मुख हो यह कौतुक अचरज माना॥

दर्शन को वर-वीर के लालायित दिल्ली हुई।
आरति कौतूहल भर निश्चल नयनों की हुई॥

धोखा था भोले भूपति को सुत रखते हैं वैरागी।
मस्त मोह-माया में रहते हैं मानो सर्वस-त्यागी।
गोदी में बालक बैठाया दया क्रूर मन से भागी।
अंग-अंग को काट रहे, नहिं जनक-हृदय ममता जागी॥

विजय क्षेत्र में सिंह सम जो हरते पर प्राण थे।
आज भेड़ बन चुप खड़े, क्या प्रमाण ? थे या न थे॥

कमरें बाँधे खड़े सूरमा देख रहे दलपति की ओर।
अभी शंख बजता है देखें पड़े शत्रु-पुर के किस छोर।
भीरु भगौड़े खेत रहेंगे घर घर घोर मचेगा शोर।
अगुआ आगे शत्रु सामने, थामे कौन जिगर का जोर॥

बन्दे ! आंखें मोड़ लीं, सचमुच वैरागी रहा।
सुभट सूर संग्राम का, चाप तोड़ त्यागी रहा॥

निज सुत मरने का मानो तुझ को रत्ती भर शोक न था।
अंग-अंग कटता जाता है तेरा तुझे नहीं परवा।
चेला बना वीरता-युग में किस निष्क्रिय प्रतिरोधी का।
इतने वीर मरे जाते हैं, मर कर कौन हुआ जेता॥

उठ उठ दल बल चुस्त कर, आत्मशक्ति तो लो दिखा।
हम हों लाख कृतघ्न तू था पुतला उपराम का॥

सेना ने तुझ को छोड़ा है तू सेना का साथ न छोड़।
शिष्यों ने तुझ से मुख मोड़ा, तू न शिष्य-दल से मुख-मोड़॥
मेल शान्ति से निष्क्रियता का क्या? क्या दया दैन्य का जोड़?
समझा समाधि-सुख सपनों को, भंग- भक्त के कान मरोड़॥

मूर्त योग ! वैराग्य-घन ! हम को वैरागी बना।
भक्तराज ! संन्यास-धन ! यह संन्यास हमें सिखा॥

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰
📖 पुस्तक -विचार वाटिका (भाग -२) [साभार – राजेंद्र जिज्ञासु जी]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

[पण्डित जी की यह रचना मासिक ‘आर्य’ लाहौर के जून सन् १९२६ के अंक में पृष्ठ १४-१५ पर प्रकाशित हुई थी। तब पण्डित जी ही इस पत्र के सम्पादक थे । हर दृष्टि से पत्र का स्तर बहुत ऊंचा था।- जिज्ञासु]

॥ओ३म्॥

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