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कविता – ‘वीर वैरागी’ (बलिदान दिवस विशेष) ✍🏻 पण्डित चमूपति एम॰ए॰

डर डर कर थे भीरु सरकते, कहीं गुप्तचर-चाल न हो।
स्वांग भूख का भरा शत्रु ने, कण के मिष मृति-जाल न हो।
लो ! धर दी तलवार धीर ने, हंसता काल कराल न हो।
प्यारा लगता प्राण-पखेरू, मुक्त मृत्यु का माल न हो॥

कोई यम को मार ले, भवसागर को फाँद जाय।
कौन मनचला वीर जो, वैरागी को बाँध जाय॥

आईं इन नयनों के आगे लीलाएं अद्भुत नाना।
एक खेल था चतुर खिलाड़ी का पिंजरे में बँध जाना॥
जिन आंखों ने पीठ देख अब तक वैरी को पहिचाना।
बैरि-बदन हंसता सम्मुख हो यह कौतुक अचरज माना॥

दर्शन को वर-वीर के लालायित दिल्ली हुई।
आरति कौतूहल भर निश्चल नयनों की हुई॥

धोखा था भोले भूपति को सुत रखते हैं वैरागी।
मस्त मोह-माया में रहते हैं मानो सर्वस-त्यागी।
गोदी में बालक बैठाया दया क्रूर मन से भागी।
अंग-अंग को काट रहे, नहिं जनक-हृदय ममता जागी॥

विजय क्षेत्र में सिंह सम जो हरते पर प्राण थे।
आज भेड़ बन चुप खड़े, क्या प्रमाण ? थे या न थे॥

कमरें बाँधे खड़े सूरमा देख रहे दलपति की ओर।
अभी शंख बजता है देखें पड़े शत्रु-पुर के किस छोर।
भीरु भगौड़े खेत रहेंगे घर घर घोर मचेगा शोर।
अगुआ आगे शत्रु सामने, थामे कौन जिगर का जोर॥

बन्दे ! आंखें मोड़ लीं, सचमुच वैरागी रहा।
सुभट सूर संग्राम का, चाप तोड़ त्यागी रहा॥

निज सुत मरने का मानो तुझ को रत्ती भर शोक न था।
अंग-अंग कटता जाता है तेरा तुझे नहीं परवा।
चेला बना वीरता-युग में किस निष्क्रिय प्रतिरोधी का।
इतने वीर मरे जाते हैं, मर कर कौन हुआ जेता॥

उठ उठ दल बल चुस्त कर, आत्मशक्ति तो लो दिखा।
हम हों लाख कृतघ्न तू था पुतला उपराम का॥

सेना ने तुझ को छोड़ा है तू सेना का साथ न छोड़।
शिष्यों ने तुझ से मुख मोड़ा, तू न शिष्य-दल से मुख-मोड़॥
मेल शान्ति से निष्क्रियता का क्या? क्या दया दैन्य का जोड़?
समझा समाधि-सुख सपनों को, भंग- भक्त के कान मरोड़॥

मूर्त योग ! वैराग्य-घन ! हम को वैरागी बना।
भक्तराज ! संन्यास-धन ! यह संन्यास हमें सिखा॥

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰
📖 पुस्तक -विचार वाटिका (भाग -२) [साभार – राजेंद्र जिज्ञासु जी]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

[पण्डित जी की यह रचना मासिक ‘आर्य’ लाहौर के जून सन् १९२६ के अंक में पृष्ठ १४-१५ पर प्रकाशित हुई थी। तब पण्डित जी ही इस पत्र के सम्पादक थे । हर दृष्टि से पत्र का स्तर बहुत ऊंचा था।- जिज्ञासु]

॥ओ३म्॥

सत्पात्र बन सकूँ – रामनिवास गुणग्राहक

3म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।

यद् भद्रं तन्नासुव।।

– यजु. 30/3

भावार्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्ति कर्त्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त, शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर। आप कृपा करके हमारे सपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिये और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमें प्राप्त कराइये। (ऋषि भाष्य)

यह मंत्र ऋषि दयानन्द को बहुत प्रिय था, यजुर्वेद का भाष्य करते समय ऋषिवर ने इसे प्रत्येक अध्याय के प्रारभ में आवश्यक रूप से लिखा है। स्तुति प्रार्थनोपासना के मन्त्रों का प्रारभ भी इसी मन्त्र के साथ किया है। स्तुति प्रार्थनोपासना के मन्त्रों का शदार्थ करते समय महर्षि दयानन्द ने बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग किया है। भाषा सरल होने के साथ-साथ बड़ी रोचक, प्रवाहपूर्ण एवं मन्त्र के अर्थ को स्पष्ट कर देने वाली है। स्तुति प्रार्थनोपासना के इन आठ मन्त्रों पर कई आर्य विद्वानों ने कलम उठाई है, उनमें से कुछ एक के विचारों को मैंने पढ़ा है। मैं जब दैनिक यज्ञ समाज में या कभी घर में करता हूँ तो सदैव ऋषिवर के अर्थ सहित मन्त्र पाठ करता हूँ। पाठ करते समय औपचारिकता निभाना मुझे कभी ठीक नहीं लगा, मैं महर्षि पतंजलि के ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’  के पालन करने का प्रयास करता हूँ। ऐसा करते समय कई बार मेरे मन में आया कि महर्षि ने इन मन्त्रों का जो अर्थ किया है, उसे ऋषि के अर्थ ऋषि की भावना के अनुरूप थोड़ा भाव-विस्तारपूर्वक लिखा जाए ताकि भक्त हृदय आर्य जन उसका पूरा आनन्द ले सकें। मैं अपनी इस सदिच्छा को लबे समय से टालता आ रहा था, लेकिन आज   (4-1-2015) मेरे हृदय ने कहा कि किसी अच्छे विचार को कार्यरूप देने के समय बहानेबाजी करना ऐसा दोष है जो अपराध की कोटि में रखा जाता है। यह हमारे स्वभाव का पतनशील अंग है, जनहित की भावना को निर्बल बनाता है। मनुष्य को पुण्यों की पूँजी से वंचित करता है। हृदय में उठने वाले हर प्रकार के सद्भावों का पल्लवन उनके क्रियान्वयन पर टिका होता है। सद्भाव- सद्विचार व सद्गुण को व्यवहार के रास्ते विस्तृत धरातल पर विचरने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती, तब वो व्यवहार में प्रकट होने के लिए हृदय में प्रतीक्षा करते-करते थक जाते हैं व्याकुल हो जाते हैं, उनका दम घुटता है और वे निर्बल और निर्जीव होकर निढ़ाल हो जाते हैं। व्यवहार में व्यक्त होने के लिए व्याकुल सद्भाव, सद्विचार व सदृगुण हमारी उपेक्षा व अनदेखी का शिकार होकर अन्दर ही दम तोड़ दें तो हमारा हृदय दुर्भावों, दुर्विचारों व दुर्गुणों के फूलने-फलने का उपजाऊ खेत बनकर रह जाता है और हम न चाहते हुए भी पतन के गर्त में गिरने लगते हैं। सुख शान्ति, समृद्धि चाहने वालों का पहला कर्त्तव्य है कि वे अपने हृदय में उठने वाले सद्भाव, सद्विचार, सत्सकंल्प एवं सद्गुण को व्यवहार का रूप देकर अपने स्वभाव का जीवन्त अंग बनाने में आलस्य न करें। ध्यान रहे जो व्यक्ति अपने स्वयं के हृदय में उठने वाले सद्विचारों, सद्भावों व सत्संकल्प का समान नहीं कर सकता, वह जगत् व्यवहार में किसी दूसरे के मानवीय सद्गुणों व सत्कर्मों के साथ कभी भी न्याय नहीं कर सकेगा। मुझे मेरी अच्छाई नहीं सुहाती तो किसी दूसरे की अच्छाई क्यों सुहाएगी?

चलो अब सीधे अपने विषय परआते हैं- महर्षि दयानन्द ने मन्त्रार्थ में जो कुछ कहा है हम स्तुति-प्रार्थना की शैली में ऋषि वाक्यों की अन्तर्यात्रा करने निकलें और अपने मन मस्तिष्क को इस पूरी यात्रा में साथ ही रखेंगे तो मन्त्रार्थ को आत्मसात करने में सुभीता रहेगा।

‘हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता’ ‘समग्र ऐश्वर्य युक्त’– ऋषि दयानन्द जी ने सविता का अर्थ जगत् निर्माता व सब ऐश्वर्य से युक्त किया है। ‘सविता वै प्रसविता भवति’ के अनुसार सविता का अर्थ बनाने-उत्पन्न करने वाला होता है और जिसने जो बनाया है, वह उसका स्वामी तो हो ही गया। जगत् में जो कुछ ऐश्वर्य है, अनमोल दिखने वाला धन है वह सब परमात्मा ने ही बनाया है तो वही उस सबका स्वामी ठहरा। इसके साथ ही जान लें कि सविता शद ‘षु प्रेरणे’ धातु से बनता है। निर्माण और प्रेरणा दोनों अर्थ सविता शद से लिये जा सकते हैं। परामात्मा सबका निर्माण करने और सबको प्रेरित-संचालित करने वाला है। स्तुति प्रार्थनोपासना के छठे मन्त्र में कहा है कि जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले होकर हम आपको पुकारें, आपका आश्रय लेवें, उस-उसकी कामना हमारी पूर्ण होवे। अर्थात् हमें जीवन में जो कुछ चाहिए उसे पाने के लिए हमें परमात्मा से ही पुरुषार्थपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए। इससे सिद्ध है कि परमात्मा इस संसार की हर वस्तु को बनाकर उसे अपनी अटल न्यायपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चलाता, प्रेरित करता है।

‘शुद्ध स्वरूप सब सुखों के  दाता परमेश्वर’। देव शद का यही अर्थ ऋषिवर ने यहाँ किया है। सामान्य भाषा में भी देने वाले को देव कहते हैं। क्या दुःख देने वालो को भी? नहीं सुख या सुखद वस्तु देने वाले को ही देव कहा जाता है। परमात्मा भी सबके लिए सब सुखों का देने वाला है। यहाँ एक व्यावहारिक बात समझ लेनी चाहिए कि परमात्मा अपनी ओर से कभी किसी को सुख या सुखद वस्तुएँ नहीं देता। संसार में ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं, ऐसा महर्षि मनु-‘सर्वेषामेवदानानां ब्रह्म दानं विशिष्यते’ कहते हैं। योगिराज श्री कृष्ण ज्ञान के बारे में लिखते हैं – नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। अर्थात् हमारे जीवन को ज्ञान ही सबसे अधिक पवित्र करने वाला है। जीवन की पवित्रता मानो सब सुखों व सुखद वस्तुओ को प्राप्त करने की पात्रता है। वह परमात्मा अपनी ओर से मनुष्य मात्र को ज्ञान-प्रेरणा निरन्तर देता रहता है। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम प्रभु प्रदत्त प्रेरणा (ज्ञान) के अनुसार कर्म-व्यवहार करते हुए सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करें। परमात्मा द्वारा सुख देना दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होता है। हमारी कमाई हुई धन-सपत्ति को कोई दुष्ट व्यक्ति छीन या चुराकर ले जाए तो उस चोर को जितना दोषी मानते हैं उससे कहीं अधिक दोषी शासक व शासन की व्यवस्था को भी मानते हैं। शासक की न्याय व्यवस्था अगर हमारी चुराई व खोई चीज को हमें दुबारा दिला दे तो हम उसका धन्यवाद अवश्य करते हैं। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारे शुभ कार्यों का यथायोग्य फल ईश्वर की अटल, न्याय व्यवस्था से मिलता है तो उसका दाता ईश्वर को ही मानना चाहिए।

मन्त्र में सविता और देव के अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद दो बातें शेष रह जाती हैं और वे दोनों बातें अत्यन्त स्पष्ट हैं- ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ अर्थात् सपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और ‘यद् भद्रं तन्नासुव’ जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कराइये। मन्त्र को और सरलता से समझने के लिए ‘विश्वानि दुरितानि सपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को-‘परासुव’ दूर करने या परे धकेलने की प्रार्थना को भली भाँति समझना होगा। यहाँ दुर्गुण हैं, जितने भी दुर्व्यसन से पूर्व सपूर्ण शद बहुत ही ध्यान देने योग्य है। हमारे जीवन में जितने भी दुर्गण हैं, जितने भी दुर्व्यसन हैं उन सब को दूर करने की प्रार्थना या पुकार यह सिद्ध करती है कि हमारा जीवन पूर्णतः निर्मल और पवित्र होना चाहिए। एक भी दुर्गुण व दुर्व्यसन मेरे जीवन में शेष न रहे। अगर हम थोड़ा सा भी दुख नहीं चाहते तो अपने अन्दर के सब दुर्गुणों को ढूँढ-ढूँढ कर निकाल फैंके। हमारे आन्तरिक दुर्गुणों के कारण हमारे व्यावहारिक जीवन में दुर्व्यसन उत्पन्न होते हैं और दोषों दुर्व्यसनों के परिणाम स्वरूप हमें दुःख भोगने पड़ते हैं। दुःख दूर करने की इच्छा है जिनकी वे दुर्व्यसनों को दूर भगाायें। जो दुर्व्यसनों से मुक्त होना चाहते हैं वे अपने दुर्गुणों को समाप्त करने का संकल्प लें। हमारे आन्तरिक  दुर्गुण ही हमारे दुर्व्यसनों अर्थात् दुराचरणों, दुष्प्रवृत्तियों और दुष्कर्मों के बीज हैं और इन्हीं दुर्व्यसनों का परिणाम दुःख है। यह मन्त्र हमारे दुःखों को दूर करने का वैदिक उपाय बताता है। आज हम अपने दुःखों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के मनमाने उपाय करते रहते हैं या किसी गुरु घण्टाल के मायाजाल में फँस कर विविध प्रकार के पाखण्ड पूर्ण कृत्य करते-कराते हैं। हमारे मनमाने उपायों या गुरु घण्टालों के तन्त्र-मन्त्र से दुःा दूर हो जाते तो संसार में एक भी दुःखी नहीं होता।

मन्त्र में दूसरी प्रार्थना है – ‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ अर्थात् जो कल्याण कारक गुण, र्का और स्वभाव हैं वह सब हम को प्राप्त कराइये। जब हम अपने जीवन के सब दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर करने का सशक्त संकल्प लेकर अपनी आन्तरिक बुराइयों के  विरुद्ध सफल संघर्ष छेड़ देते हैं, दुर्गुणों, दोषों व दुष्कर्मों के पतनशील प्रवाह में निर्जीव तिनके की तरह बहते रहने से आत्मबल पूर्वक मना कर देते हैं और बुराइयों के चक्रव्यूह से बच निकलते हैं तो हमारे सामने अपने हृदय को अच्छाइयों से भरते रहने का प्रश्न खड़ा होता है। यह तो सब जानते हैं कि संसार में ऐसा कुछ नहीं जो किसी प्रकार के गुणों से शून्य हो। ऐसे में हमारा हृदय-मन, बुद्धि और चित्त आदि भी गुणहीन स्थिति में नहीं रह सकते। दुर्गुणों को दूर करने के आन्तरिक अभियान के साथ-साथ हमें कल्याण कारक गुणों का आह्वान करना होगा। दुर्गुणों को दूर करके उनके स्थान पर कल्याण कारक गुणों अर्थात् सद्गुणों को बसाना जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया है। किसी बर्तन में कोई अनावश्यक व अनुपयोगी चीज भरी हो तो जब तक उसमें किसी अच्छी व उपयोगी वस्तु को रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती तब तक हम उस अनुपयोगी चीज को निकाल फैंकने के बारे में प्रायः नहीं सोचते। जब हमें कोई मूल्यवान व उपयोगी वस्तु की आवश्यकता अनुभव होती है तो हम उसे पाने के प्रयास करते हैं। पाने के प्रयास करने से पूर्व बुद्धिमान व्यक्ति उसे सुरक्षित रखने के बारे में सोचता है तो उसे लगता है कि यह जो अनावश्यक चीज इस बर्तन मे ंरखी है उसे निकाल फैंको और इस बर्तन को स्वच्छ करके उपयोगी वस्तु को इसमें रख दो।

यही स्थिति मानव के जीवन की है। सांसारिक विषय वासना व परस्पर के राग-द्वेष पूर्ण जीवन जाने वाले को जब किसी सद्ग्रन्थ के स्वाध्याय या सत्संग से यह पता चलता है कि मेरा हृदय जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य का कबाड़ बनकर रह गया है, मेरे जीवन में आलस्य, प्रमाद, दीर्घसूत्रता आदि दोष निरन्तर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं, ये मुझे सुख-शान्ति, समृद्धि और सन्तुष्टि नहीं दे सकते। ये मेरे जीवन को सफल और सार्थक बनाने में उपयोगी नहीं हैं। यह ज्ञान स्वाध्याय व सत्संग के बिना नहीं होता। अधिकांश लोगों को लबे समय तक सत्संग स्वाध्याय करते रहने पर भी यह ज्ञान नहीं होता, लेकिन जिन विवेकशील सज्जनों को यह ज्ञान हो जाता है तो उन्हें कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव की आवश्यकता अनुभव होने लगती है। जब उन्हें सद्गुणों की आवश्यकता अनुभव होती है तो उन्हें लगता है कि मेरे हृदय में तो दुर्गुण जड़ें जमाये बैठे हैं। जीवन को अच्छा,सुाी और सन्तुष्ट बनाने की प्रबल इच्छा जब तक हृदय में उठ खड़ी नहीं होती, तब तक हर मनुष्य को अपने हृदय में भरा पड़ा काम-क्रोध आदि दुर्गुणों का कूड़ा-कबाड़ भी काम चलाऊ अच्छा लगता है। जैसे ही उसके मन-मस्तिष्क में कल्याण कारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है, और वह उन्हें पाने के लिए लालायित होने लगता है, वेसे ही उसे अपने अन्दर के काम, क्रोध, मोह आदि अनुपयोगी और अनावश्यक ही नहीं लगते, बल्कि काँटे की तरह चुाने लगते हैं । इस अवस्था में आकर वह ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ और ‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’ की पुकार करने लगता है। इस अवस्था में सच्चे हृदय से की गई ऐसी प्रार्थना, पुकार ही लक्ष्य के निकट पहुँचाती है।

‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ का जो अर्थ ऋषि दयानन्द ने किया है, वह बहुत ही चमत्कार पूर्ण एवं जीवन-निर्माण की अन्तःक्रिया को सन्तुलित-सयक् ढंग से प्रकट करता है। ऋषि लिखते हैं- ‘जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं,वह सब हमें प्राप्त कराइये।’ कल्याण करने वाले गुण, कर्म और स्वभाव की क्रमबद्धता  पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। सुखी, शान्त व आनन्दपूर्ण जीवन के तीन घटक आन्तरिक हैं और पदार्थ बाहरी हैं। कल्याणकारक घटकों में गुण, कर्म और स्वभाव एक पात्रता है और पदार्थ उसमें रखी जाने वाली सामग्री। जिसने तप-साधना से अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याण कारक बना लिया परमात्मा उसके  लिए कल्याणकारक पदार्थों की प्राप्ति सरल और सहज बना देते हैं। जो अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारक बनाने के लिए तप नहीं करते, स्वयं को सद्गुण सपन्न सदाचारी एवं सुा का सत्पात्र बनाये बिना ही जो कल्याणकारक सुखद पदार्थों को छल-बल या कल से हथिया लेते हैं, ऐसे अभिशप्त लोगों के हाथ लगे कल्याण कारक पदार्थ कभी उनको सच्चा सुख नहीं दे पाते। सीधे शदों में कहें तो गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारी बनाये बिना हम कल्याणकारी पदार्थों का सच्चा सदुपयोग नहीं कर सकते। बुद्धिमान लोग काँटों का सदुपयोग बाड़ लगाकर फलों की सुरक्षा के रूप में करते हैं दूसरी ओर कुछ मूर्ख लोगों ने पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर के हत्यारे आतंकियों पर गुलाब के फूलों की वर्षा करके भी विश्व के मानवतावादी जन समुदाय के बीच स्वयं को कलंकित कर लिया।

‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ की अन्तिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय वस्तु को राना चाहते हैं। जो सच्चे अर्थों में सच्चे हृदय से अपना जीवन सुखी व श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, उनके लिए ऋषि दयानन्द के शदों –‘कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव’ को समझ लेना बहुत ही आवश्यक है। जब हमारे कल्याणकारक गुण हमारे कमरें के माध्यम से सजीव होकर हमारे स्वभाव का अंग बन जाते हैं, तब जाकर हमारा जीवन कल्याणकारक पदार्थों को पाने का पात्र बन पाता है। आज के मानव की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने अन्दर की ढेर सारी अच्छाइयों को अपने कर्मों-व्यवहार में उतारने से डरता है। जब तक यह डर हमारे जीवन में डेरा डाले रहेगा, तब तक हर सच्चाई और अच्छाई मानव के संकीर्ण स्वार्थ के भार तले दबकर दम तोड़ती रहेगी। पाठक ध्यान रखें कि परमात्मा ने हमारे कल्याण को सरल और सहज बनाने के लिए हमारे हृदय में सत्य के प्रति श्रद्धा और असत्य के प्रति अश्रद्धा स्वाभाविक रूप से प्रदान की है। प्रत्येक मानव का हृदय सदैव सत्य के प्रति श्रद्धालु रहता है, आकर्षित रहता है। असत्य मानव के हृदय को कभी अच्छा नहीं लगता। असत्य मानव के हृदय में सदैव काँटे की तरह खटकता रहता है। मानव-स्वभाव की विचित्रतााी बड़ी अनौखी है। यह सच है कि सरल चित्त के व्यक्ति के हृदय में असत्य काँटे की तरह ही खटकता है, लेकिन जब वो स्वार्थ के खूंटे से बँधकर सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पाता और इस असत्य रूपी काँटे से हृदय को लहूलुहान करता रहता है तो कुछ काल ऐसा ही होते रहने के बाद स्वार्थ पूर्ति से मिलने वाले क्षणिक सुख के नशे में असत्य रूपी काँटे की इस तीखी चुभन को भी वह भाग्यहीन व्यक्ति ऐसे ही सहन करता रहता है जैसे एक शराबी मदके लिए उसकी कड़वाहट व तीखेपन को सहन करता रहता है।

कल्याण की कामना वाले व्यक्ति को सांसारिक स्वार्थ पूर्ति से ऊपर उठकर एक अक्षय सुख पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा। सुधी जन जानते हैं कि झूठ की जितनी शक्ति है, जितनी आयु है, उससे मिलने वाले सुख की शक्ति और आयु भी उतनी ही होगी उससे अधिक नहीं। झूठ सदैव सत्य से भयभीत रहता है, सत्य की एक किरण झूठ को धराशायी कर देती है ठीक इसी प्रकार से असत्य के बल पर सुा शान्ति पाने वाले व्यक्ति सत्य से भयभीत होकर जीवन जीते हैं, उनका सुख सत्य की सभावना देखकर ही भाग खड़ा होता है। क्या लाभ उस टूटे-फूटे, डरे-सहमे सुख का? सत्य से डरकर उल्लू की तरह अँधेरे में कब तक ऐेसे सुख को भोगकर सन्तुष्ट होते रहोगे?वह सुख ही क्या जो अपने इष्ट मित्रों व परिजनों के साथ मिलकर खुले में सार्वजनिक रूप से न भोगा जा सके? इसीलिए ऋषि दयानन्द कल्याणकारक गुणों को कर्मों में सजीव और साकार करके अपने स्वभाव का अंग बनाने की सांकेतिक प्रेरणा कर रहे हैं। गीता में श्री कृष्ण जी भी शदान्तर से यही सन्देश दे रहे हैं कि संसार में सब प्राण्ीा अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव के अनुसार ही अपनी समस्त चेष्टाएँ (कर्म) करते हैं इसलिए स्वभाव को ही अच्छा (श्रेष्ठ) बनाओ अपनी बुराइयों को छिपाकर अच्छा दिखने से क्या लाभ? स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने -सुधारने का सच्चा और सरल रास्ता ऋषि दयानन्द बता रहे हैं कि अपने हृदय में सोये पड़े हुए अपने सद्गुणों को कर्मों में उतारिये। हम जब निरन्तर अपने सद्गुणों को कर्मों का सहारा देते रहेंगे तो एक दिन हमारे सद्गुण हमारे स्वभाव का अंग बन जाएँगे। जब तक अपने सद्गुणों को अपने कर्मों के द्वारा अपने स्वााव का अंग बना लेंगे तब इस संसार के समस्त कल्याण कारक पदाथरें को प्राप्त करने के अधिकारी-पात्र बन जाएँगे। दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुःखों से निकल कर कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों को प्राप्त करने की अन्तर्यात्रा का मंत्रानुसार ऋषिवर ने जिस रूप में रखा और वह जैसी मेरी समझ में आई वैसी मैंने सच्चे हृदय से, सुधीजनों के कल्याण की कामना से प्रकट कर दी। आशा है अध्यात्म पथ के पथिक इससे लाभ उठाएँगे।    

– जोधपुर,राजस्थान

हम अपने शहंशाह – सुकामा आर्या

अपना जीवन जीते हुए हमारे मन में विभिन्न प्रकार की इच्छाएँ, तमन्नाएँ रहती हैं। हम अपने भावी जीवन के लिए उत्साहित रहते हैं, बड़े सपने सँजोए रखते हैं। कुछ सपने तो बहुत आसानी से साकार हो जाते हैं और कुछेक अथक प्रयास के बावजूद सत्य सिद्ध होने से कोसों दूर रहते हैं।

पहले तो हम बैठ कर यह विश्लेषण करें- कि हमने क्या खोया-क्या पाया? यह जीवन भर का, कुछ वर्षों का, कुछ महीनों का भी कर सकते हैं। अगर हानि अधिक हुई है, असफलताएँ अधिक आई हैं तो थोड़ी ज्यादा गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

अब हमें यह पकड़ना है कि हम चूकते कहाँ पर हैं? हमारे कमजोर स्थल कौन-से हैं? उन्हें जानकर-समझकर, उन पर कार्य करने की जरूरत होती है। मार्ग तो पता है हमें, पर उस पर तरह-तरह के काँटे, ईंट, पत्थर गंदगी आदि पड़े हैं। तीव्र गति से गमन करना है तो बस, बाधाओं को हटाएँ और मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

बाहरी वातावरण, परिस्थितियाँ, लोग हमारे नियंत्रण में नहीं होते- और होने की अपेक्षा भी रखना गलत है, परन्तु हम अपने आंतरिक संसार के ताज सहित बादशाह हैं, शहंशाह हैं। हम जैसा चाहें, जिस प्रकार जहाँ चाहें, कार्य कर सकते हैं- वहाँ हमारा हरेक कानून लागू होता है, हर एक बात बाइज्जत सुनी जाती है, ज्यों-की-त्यों समझी जाती है, इसलिए बाहर की अपेक्षा पहले अपनी जरूरतों, सपनों, इच्छाओं को अंदर लागू करना होता है। अपने अंदर जितने हम स्पष्ट व साफ हो जाएँगे, उतनी ही बाहर की परिस्थितियाँ अनुकूल बनती जाएँगी। बाहर की बाधाओं के बादल स्वयं छटने लगेंगे।

सूक्ष्मता से देखें तो यह हमारे नियंत्रण में होता है कि हम किस विचार को अपने अंदर उठने दें, उसे अनुमति दें, किसको चाहें तो न दें। जिस विचार को जब चाहें हम रोक सक ते हैं। हमें हर नकारात्मक, विध्वन्सात्मक विचार के लिए अपने मन पर प्रयासपूर्वक ‘नो एंट्री’ का बोर्ड लगाना होता है। फिर भी कुछ लोग, परिस्थितियाँ यदि जबरदस्ती अंदर घुसने का प्रयास करें तो हमें ईश्वर ने श्वास रूपी चौकीदार, सुरक्षाकर्मी दे रखा है। इसकी सहायता से उस विचार को बाहर छिटक दें। जैसे अगर घर में कोई अतिथि आने वाला हो और उसके स्वागत के लिए हमने तैयारी कर रखी हो, सुन्दर व्यवस्था कर रखी हो, उसी समय कोई शरारती बच्चा आ कर ऊधम मचाए, इधर-उधर वस्तुओं को बिखेर दे- तो हम क्या करेंगे? उसे पकड़ेंगे व यथासंभव प्रयास करेंगे कि वह हमारी बनी बनाई व्यवस्था को खराब न करे। ठीक यही अवस्था मन के आँगन की भी है। हमें वहाँ भी अपनी स्थिति को बनाए रखने का प्रयास करना होता है- कोई भी अनचाहा विचार, व्यक्ति, परिस्थिति उसमें हमारी आज्ञा के बिना अंदर न घुस पाये। हम ईश्वर से भी यही प्रार्थना करते हैं कि हमारा हमारे मन पर राज्य हो-

मेरी इन्द्रियाँ हों सदा मेरे वश में,

मेरे मन पे मेरा ही अधिकार कर दो।

मेरा सर झुके तो झुके तेरे दर पर,

मुझे ऐसा दुनियाँ में सरदार कर दो।

पाँचों इन्द्रियों के विषयों व मन पर अपना नियंत्रण करने के  लिए अपने श्वास रूपी सुरक्षाकर्मी को हमेशा सचेत रखें। जहाँ भी इसमें थोड़ी-सी ढ़ील हुई, वहीं पर विध्न, बाधाएँ उत्पन्न हो जाएँगी। हम ताी तो ईश्वर को, उसकी सत्ता को नमन करते हैं। उसकी सहायता से ही हम अपने विचारों को रोक सकते हैं- यह कहते भी है और करते भी हैं-

हमारा नियंत्रण चूँकि हमारे अपने हाथ में हैं, यूँ कहें कि हमारा रिमोट कंट्रोल जब हमारे हाथ में है तो दूरदर्शन पर चैनल भी तो हम ही बदलेंगे न। हम बाहर के दूरदर्शन को छोड़कर चित्त के दूरदर्शन पर कार्य प्रारभ करें। वहाँ जो चैनल हम चलाएंगे, वही हमारे बाहर भी प्रदर्शित होगा। वस्तुतः बाहरी संसार हमारे आन्तरिक संसार का ही प्रतिबिब है। जो भी परिस्थिति, इच्छा आप बाहर साकार हुई देखना चाहते हैं, उसे पहले अपने अंदर सफल होता हुआ चित्रित करें। अपने मन को शांत कर, श्वास से नियंत्रित कर तथा वह दृश्य अपने सामने लाकर उसे यथार्थ में परिवर्तित होता हुआ महसूस करें-अनुभूति के स्तर पर ले आएँ। यह ध्यानावस्था में करने योग्य कार्य है। इच्छा व स्वप्न के प्रति अपनी भावना, गहराई भी इसमें अहम रोल अदा करती है। जितनी अधिक एकाग्रता से यह कार्य होगा, उतनी ही शीघ्रता व कुशलता से कम समय में बाहर की परिस्थितियाँ बिना आपके ज्यादा हस्तक्षेप के अनुकूलता में बदलती जाएँगी।

इसके लिए आवश्यक है कि पहले अन्दर की सफाई की जाए। एक बार गलती से काँटों भरे खेत में चले गए- तो कितने ही काँटें कुछ मिनटों में कपड़ों पर चिपक जाएँगे। वापिस आकर निकालने लगेंगे तो घण्टों लगेंगे। गंदगी डालनी, बुराई करनी, द्वेष करना बहुत आसान है, क्षण भर में क्षोभ पैदा हो जाता है, पर जब सफाई करने बैठते हैं तो उफ, क्या परिश्रम करना पड़ता है! बस हथियार छूट जाते हैं- यही महसूस होता है कि ‘‘लहों नेाता की थी, सदियों ने सजा पाई।’’

हमें प्रयास पूर्वक सजग रहना है कि अगर मैं बुरा विचार करुँगा तो इसका परिणाम भी मुझे ही भुगतना पड़ेगा। दूसरे पर यह प्रभाव जाए न जाए, मेरी हानि अवश्य ही होगी। अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी चलाने वाली बात है। बीज तो छोटा-सा ही होता है, पर जब पेड़ बन के सामने खड़ा होता है तो काटना मुश्किल हो जाता है- हाथ थक जाते हैं, कुल्हाड़ी चलाते-चलाते। इसलिए जब भी बुरी भावनाएँ, विचार उठें, उन्हें तुरन्त ही हटा दें- एक तरफ कर दें। ईश्वर को उसी क्षण अपने समीप महसूस करते हुए कोई जप प्रारभ कर देवें, याद क रें कि प्रातःकाल जो प्रार्थना की थी-

सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्।

क्या जिससे मैं द्वेष कर रहा हूँ, वह ‘सर्वे’ में नहीं आता है? उस प्रार्थना के विपरीत अगर बाकी के 17 घंटे हम व्यवहार करेंगे तो उस प्रार्थना का कोई औचित्य नहीं हैं। प्रार्थना का विधान है तो यह मानना पड़ेगा कि द्वेष, घृणा, क्षोभ के लिए मनाही है। प्रयासपूर्वक ईश्वर प्रणिधान की सहायता से हमें उस विचार को क्षोभ को मन से निकाल देना है। धीरे-धीरे द्वेष होगा ही नहीं, होगा तो क्षीण-सा बहुत कम समय के लिए होगा, क्योंकि हम सजग हैं। हमें पता है कि जितनी गंदगी हम फैलाएँगे-सफाई भी तो हमें उतनी ही करनी पड़ेगी।

जब हम चाहते हैं कि हमारे शुभ संकल्प पूर्ण हों, सिद्ध हों तो हमें उसके लिए यथासंभव अपना पुरुषार्थ अपने आन्तरिक वातावरण को साफ, सुंदर व व्यवस्थित करने के लिए करना चाहिए, क्योंकि यहीं पर हमारा नियंत्रण है और यह परम आवश्यक है अपने जीवन में शांति व सफलता को प्राप्त करने के  लिए। तभी हम कह सकते हैं कि-

तेरे पूजन को भगवान, बना मन-मन्दिर आलीशान।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर