आत्म परिचय – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दीर्घतमाः । देवता आत्मा। छन्दः आर्षी पङ्किः।
मयि त्यदिन्द्रियं बृहन्मयि दक्षो मय॒ि क्रतुः घर्मस्त्रिशुग्वि राजति विराजा ज्योतिषा सह ब्रह्मण तेजसा सह ॥
-यजु० ३८.२७
(मयि) मेरे अन्दर ( त्य) वह ( बृहत्) बहुत शक्तिशाली ( इन्द्रियं ) इन्द्रजुटे प्राण है, (मयि ) मेरे अन्दर ( दक्षः ) दक्षता है, ( मयि ) मेरे अन्दर ( क्रतुः ) कर्म और प्रज्ञा है, मेरे अन्दर ( त्रिशुग् घर्मः ) तीन दीप्तियों का प्रताप ( विराजति ) विराजमान है (विराजा ज्योतिषा सह ) विराड् ज्योति के साथ, ( ब्रह्मणा तेजसा सह ) ब्रह्मतेज के साथ।
क्या तुम मुझ आत्मा का परिचय जानना चाहते हो? मैं हाड़मांस का पिण्ड नहीं हूँ, वह तो मेरा साधन है। मेरी प्रथम विशेषता यह है कि मेरे पास एक इन्द्रजुष्ट महत्त्वपूर्ण वस्तु प्राण है, जो इन्द्रियों का भी इन्द्रिय है। छान्दोग्य उपनिषद् में कथा है कि इन्द्रियों में विवाद उत्पन्न हो गया कि हममें कौन ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है। सब इन्द्रियों के एक-एक करके शरीर से बाहर निकलने पर भी शरीर चलता रहा, किन्तु जब प्राण बाहर निकलने लगा तब उसके साथ अन्य इन्द्रियाँ भी खिंचती हुई बाहर निकलने लगीं। अतः प्राण ही ज्येष्ठ और श्रेष्ठ माना जाता है। वह बहत इन्द्रिय प्राण मेरे पास है, जिसके कारण अचेतन पदार्थों की अपेक्षा मैं चेतन, सप्राण और जीवित जागृत माना जाता हूँ। दूसरी प्रशस्त वस्तु मेरे अन्दर ‘दक्ष’ अर्थात् आत्मबल और शारीरिक बल है। इनके अतिरिक्त मेरे पास अन्य भी कई वस्तुएँ हैं, जिनके कारण मैं असीम शक्तिशाली माना जाता हूँ। मेरे अन्दर ‘क्रतु’ है, जिससे प्रज्ञा, कर्म और सङ्कल्प परिलक्षित होते हैं। प्रज्ञा के बल से मैं वेद-वेदाङ्गों को तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन एवं ज्ञानार्जन करता हूँ, तथा कर्म की शक्ति से उस ज्ञान के अनुकूल आचरण करता हूँ। मेरे अन्दर दृढ़ सङ्कल्प भी है, जिसके कारण अपनी प्रतिज्ञा को कभी छोड़ता नहीं हूँ। मेरे पास ‘त्रिशुग् घर्म’ भी है। घर्म निघण्टु कोष के अनुसार यज्ञ का वाचक है। ‘त्रिशुग’ का अर्थ है, जो शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक तीनों पवित्रताओं से युक्त है। अपवित्र यज्ञ कभी सफल नहीं होता। देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान के सब कार्य यज्ञ कहलाते हैं। मेरे इन कार्यों में तीनों प्रकार की पवित्रता विद्यमान रहती है। मेरे अन्दर ‘विराड् ज्योति’ है, जिसके सम्मुख सूर्य, चन्द्र, तारे, विद्युत्, अग्नि सब फीके पड़ जाते हैं। मेरे अन्दर ब्राह्मतेज और क्षात्र तेज भी उपस्थित है। ब्राह्मतेज से मैं योगसाधना द्वारा समाधि की स्थिति में पहुँच सकता हूँ, जहाँ ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ दिखायी नहीं देता और क्षात्र तेज द्वारा मैं आततायी, आतङ्कवादी शत्रुओं को परास्त कर सकता हूँ। मेरे विद्यमान रहते कोई आतङ्कवादी निर्दोष लोगों की हत्या नहीं कर सकता, बम के गोले छोड़कर हाहाकार नहीं मचा सकता।
मैं इन्द्र हूँ, आत्मतेज से भासमान हूँ, क्षात्रबल से देदीप्यमान हूँ। मैं अकेला ही सैंकड़ों से लोहा ले सकता हूँ। मेरे प्रताप को पहचानो, आवश्यकता होने पर मुझे याद करो, मुझे सेवा का गौरव प्रदान करो।
पाद-टिप्पणियाँ
१. निघं० ३.१७
२. त्रि-शुचिर् पूतीभावे ।
आत्म परिचय – रामनाथ विद्यालंकार