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माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार

माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः त्रितः । देवता अग्निः । छन्दः विराड् अनुष्टुप् ।

स्थिरो भव वीड्वङ्गऽआशुभंव वायुर्वन् । पृथुर्भव सुषदस्त्वमुग्नेः पुरीवाहणः ।।

-यजु० ११।४४

( अर्वन् ) हे जीवनमार्ग के राही पुत्र! तू (स्थिरः) अडिग, स्थिर वृत्तिवाला और (वीड्वङ्गः ) दृढाङ्ग ( भव ) हो, (आशुः ) शीघ्रकारी तथा ( वाजी ) शरीरबल, नीतिबल तथा आत्मबल से युक्त (भव ) हो। ( त्वं ) तू ( पृथुः ) विस्तारप्रिय तथा ( सुषदः ) उत्कृष्ट स्थितिवाला ( भव) हो। ( अग्नेः पुरीषवाहनः३) अग्नि के पालन, रथचालन आदि कार्यों को करनेवाला तथा अग्निहोत्र की सुगन्ध फैलानेवाला हो।

उवट एवं महीधर ने इस मन्त्र की व्याख्या में कर्मकाण्डपरक विनियोग के अनुसार ‘रासभ’ की सम्बोधन माना है। परन्तु महर्षि दयानन्द इस मन्त्र का विनियोग इस रूप में करते हैं। कि माता-पिता अपने पुत्र को शिक्षा दे रहे हैं। अर्वन्’ शब्द गत्यर्थक ऋ धातु से वनिप् प्रत्यय करके निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ होता है ‘गन्ता’ या जीवन की राह पर चलनेवाला। हे जीवन मार्ग के राही पुत्र! तू स्थिर अर्थात् अडिग रहे । अनेक काम, क्रोध आदि रिपुगण तथा मानवी शत्रु तुझे धर्ममार्ग से विचलित करना चाहेंगे, परन्तु उनके कुचक्र में न पड़कर तू सदा अविचल एवं स्थिर बना रह। तू स्थिर वृत्तिवाला भी हो, जो कुछ तर्क तथा धर्म की कसौटी पर कस कर निश्चय कर ले उस पर स्थिर रह । तू ‘वीड्वङ्ग’ अर्थात् सुदढ़ अङ्गोंवाला  बन । एतदर्थ तू व्यायाम, योगासन, दौड़-कूद आदि करता रह। तू ‘आशु’ बन, शीघ्रकारी, चुस्त एवं फुर्तीला बन । तू ‘वाजी’ अर्थात् शरीर, मन, वाणी आत्मा, नीति आदि से बलवान् बन, अन्यथा तुझे दुर्बल देख कर आततायी लोग अपने वश में करना चाहेंगे तथा तेरी हिंसा करने पर भी उतारू हो सकते हैं। तू ‘पृथु’ बन, विस्तारप्रिय हो, संकुचित मनवाला मत बन। अपने तक ही सीमित न रहकर यदि तू समाज, राष्ट्र एवं विश्व को भी देखेगा, तो सारी धरती ही तुझे कुटुम्ब के समान जान पड़ेगी। तब तू केवल अपना और अपने सम्बन्धियों को ही नहीं, प्रत्युत सारी वसुधा का कल्याण चाहेगा। तू ‘सुषद’ अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिवाला बन । याद रख, तेरी गणना क्षुद्र लोगों में नहीं, किन्तु उच्च महापुरुषों में होनी चाहिए। जब गुणियों की सूची बने, तब तेरा नाम उसमें सर्वोपरि होना चाहिए।

हे पुत्र! तू ‘अग्नि का पुरीषवाहन’ हो । अग्नि के पालन, विमानादिरथचालन प्रभृति कर्मों को करनेवाला हो, साथ ही अग्निहोत्र करके यज्ञाग्नि एवं हवि की सुगन्ध चारों ओर फैलानेवाला भी बन। हे पुत्री ! तुम्हें भी हमारा यही उपदेश है। तुम भी स्थिरचित्ता, दृढाङ्गी, बलवती, उदारा, उत्कृष्ट स्थितिवाली, अग्नि से कलापूर्ण कार्य करनेवाली तथा अग्निहोत्र की सुगन्ध चारों ओर फैलानेवाली बनना । ऐसे पुत्र-पुत्रियाँ ही अपने माता पिता के तथा अपने यश का विस्तार करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वीडूनि दृढानि बलिष्ठानि अङ्गानि यस्य सः-२० ।।

२. वाजी प्राप्तनीति:-द० । वाजः शरीरबलम् आत्मबलं नातिबलं चयस्यास्ति स वाजी ।।

३. पुरीषवाहण: यः पुरीषाणि पालनादानि कर्माणि वाहयति प्रापयतिसः-द० । पुरीषम् अग्निहोत्रहविषां पूर्ण सुगन्धं वहति यः सः ।

माता-पिता का पुत्र को उपदेश -रामनाथ विद्यालंकार