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नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुण: । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः स्वराड् धृतिः ।

सोमस्य विषिरसि तवेव मे विषिर्भूयात् । अग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहा सवित्रे स्वाहा सरस्वत्यै स्वाहां पूष्णे स्वाहा बृहस्पतये स्वाहेन्द्राय स्वाहा घोषाय स्वाहा श्लोकाय स्वाहा शाय स्वाहा भगाय स्वाहार्यम्णे स्वाहा॥

-यजु० १०/२३

तू ( सोमस्य ) चन्द्रमा की ( त्विषिः असि) दीप्ति है, ( तव इव ) तेरी दीप्ति के समान (मे त्विषिः भूयात् ) मेरी दीप्ति हो। ( अग्नये स्वाहा ) अग्नि के लिए स्वाहा, (सोमायस्वाहा ) सोम के लिए स्वाहा, ( सवित्रे स्वाहा ) सविता के लिए स्वाहा, (सरस्वत्यै स्वाहा ) सरस्वती के लिए स्वाहा, ( पूष्णे स्वाहा ) पूषा के लिए स्वाहा, (बृहस्पतये स्वाहा ) बृहस्पति के लिए स्वाहा, ( इन्द्राय स्वाहा ) इन्द्र के लिए स्वाहा, (घोषाय स्वाहा ) घोष के लिए स्वाहा, ( श्लोकाय स्वाहा ) श्लोक के लिए स्वाहा, (अंशाय स्वाहा ) अंश के लिए स्वाहा. ( भगाय स्वाहा ) भग के लिए स्वाहा. (अर्यमणेस्वाहा ) अर्यमा के लिए स्वाहा।

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ -रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा सोम ( चन्द्रमा) को देख कर या उसका ध्यान करके कह रहा है–’तू चन्द्रमा की दीप्ति है, तेरी तरह मेरी भी दीप्ति हो। पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्र-ज्योत्स्ना अपने धवल शान्तिदायक, मधुर प्रकाश से जैसे सबको आच्छादित करती है, ऐसे ही राजा कामना कर रहा है कि मैं भी सबको अपनी सात्त्विकता, स्वच्छता, निष्कलङ्कता, पवित्रता के प्रभाव में लेकर निष्कलङ्क और पवित्र बना सकें। तत्पश्चात् वह विभिन्न देवों के लिए आहुतियाँ देता है। ‘अग्नये स्वाहा’ तात्पर्य यह है कि मैं स्वयं अग्नि जैसा तेजस्वी, ऊर्ध्वगामी और राष्ट्र में परिपक्वता लानेवाला बनूंगा। ‘सोमाय स्वाहा’ सोम जैसे ओषधियों का राजा है, वैसे ही मैं प्रजा का राजा हूँ। सोम ओषधि के समान मैं भी पीड़ित, आतुर, रोगार्त लोगों को स्वास्थ्य और सजीवता प्रदान करूंगा। राष्ट्र में विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों को और शल्यक्रिया-विभाग को समुन्नत करूंगा। औषध-निर्माण की ओर भी ध्यान देंगा। ‘सवित्रे स्वाहा’-सूर्य जैसे अन्धकार को विच्छित्र कर प्रकाश फैलाता है, वैसे ही मैं भी अपने राज्य में अनैतिकता के अन्धकार को और तामसिकता को दूर कर नैतिकता का प्रकाश फैलाऊँगा और प्रजा में सात्त्विक वृत्ति उत्पन्न करूंगा। ‘सरस्वत्यै स्वाहा’ सरस्वती विद्या, वेदवाणी, शिक्षणकला आदि को सूचित करती है। मैं राष्ट्र में शिक्षा का स्तर उन्नत करूंगा, विभिन्न विद्याओं को प्रसारित करूंगा, राष्ट्र को सारस्वत साधना का केन्द्र बनाऊँगा।’पूष्णे स्वाहा’-पूषा पुष्टि के गुण को सूचित करता है। वेद में यह मार्गरक्षक तथा पशुरक्षक के रूप में भी वर्णित हुआ है। मैं राष्ट्र में अन्नादि की पुष्टि की प्रचुरता लाऊँगा तथा मार्गरक्षक नियुक्त करूंगा, जिससे यातायात में यात्रियों को कष्ट न हो और गाय आदि पशुओं की सुरक्षा का भी प्रबन्ध करूंगा। ‘बृहस्पतये स्वाहा’–बृहस्पति से विशाल वाङ्मय का स्वामी विद्वान् गृहीत होता है। राष्ट्र में विद्वानों का यथोचित सम्मान हो, उन्हें साहित्यसर्जन, ग्रन्थलेखन, प्रकाशन आदि की सुविधाएँ प्राप्त हों, उनकी जीविका का भी प्रबन्ध हो, इसका ध्यान रखेंगा। ‘इन्द्राय स्वाहा’–इन्द्र वीरता का देव है, यह सैनिक शक्ति, युद्ध, राक्षस-विध्वंस आदि को सूचित करता है। राष्ट्र की स्थलसेना, जलसेना, अन्तरिक्षसेना, शस्त्रास्त्रशक्ति आदि को विकसित करूंगा तथा यदि किसी राष्ट्र से युद्ध अनिवार्यतः करना पड़े, तो हमारी विजय ही हो इसका प्रबन्ध करूंगा। ‘घोषाय स्वाहा’-सब प्रकार के ध्वनियन्त्र ग्रामोफोन, फोनोग्राम, दूरभाष, चलभाष, दुन्दुभिवाद्य, युद्ध-वाद्य आदि के आविष्कार तथा निर्माण की व्यवस्था करूंगा। ‘श्लोकाय स्वाहा’–सङ्गीत, गायन, सस्वर वेदमन्त्रपाठ, श्लोकरचना आदि को प्रोत्साहन दूंगा।’अंशाय स्वाहा’—जिसका जो अंश या भाग है, वह उसे मिले, कोई उससे वञ्चित न हो, इसका उपाय करूंगा। पिता या सम्पत्ति के स्वामी की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति का कितना अंश किसे मिले, इसके नियम निर्धारित होंगे । आयकर सम्बन्धी नियमों के निर्धारण और प्रजा द्वारा उनके पालन की ओर भी ध्यान देंगा। राजकर के रूप में प्राप्त धन प्रजाहित में ही व्यय हो, इसका भी ध्यान रखा जाएगा। ‘भगाय स्वाहा’–भग धन का प्रतिनिधित्व करता है। मेरा राष्ट्र अच्छा धनी हो, सब राष्ट्रवासियों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो, बेकारी, भुखमरी आदि का कोई शिकार न हो, इसकी भी व्यवस्था करूंगा। ‘अर्यम्णे स्वाहा’-अर्यमा का अर्थ दयानन्दभाष्य में प्रायः न्यायाधीश किया गया है। राष्ट्र में न्यायव्यवस्था को सही रूप में चलाऊँगा। सबको समुचित न्याय प्राप्त होगा। अपराधियों के लिए कारागार और दण्डव्यवस्था भी होगी।

आज आप सबके सम्मुख यज्ञाग्नि में आहुतियाँ देते हुए मैंने जो प्रण लिये हैं, उन्हें पूर्ण कर सकने के आशीर्वाद की प्रभु से और जनता से याचना करता हूँ।

नवनिर्वाचित राजा की कामना और प्रतिज्ञाएँ – रामनाथ विद्यालंकार 

नवनिर्वाचित राजा को प्रजा के प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित-राजा-कोनवनिर्वाचित राजा को प्रजा के  प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः त्रितः । देवताः अग्निः । छन्दः विराट् आर्षी त्रिष्टुप् ।

सीद त्वं मातुरस्याऽउपस्थे विश्वान्यग्ने वयुननि विद्वान्। मैनां तपस मार्चिषाऽभिशोचीरन्तरस्याऽशुक्रज्योतिर्विभाहि॥

-यजु० १२ । १५ |

( अग्ने ) हे नवनिर्वाचित राजन् ! ( विश्वानि ) सब ( वयुनानि ) प्रशस्य कर्मों, प्रज्ञाओं और कान्तियों के ( विद्वान्) ज्ञाता ( त्वं ) आप ( अस्याः मातुः ) इस मातृभूमि की (उपस्थे ) गोद में, राजगद्दी पर ( सीद ) बैठो। ( एनां ) इस मातृभूमि को (मा)(तपसा ) सन्ताप से, ( मा )(अर्चिषा ) दु:ख, विद्रोह, आतङ्क आदि की लपट से (अभिशोचीः ) शोकाकुल करो। ( अस्याम् अन्तः ) इसके अन्दर ( शुक्रज्योतिः ) प्रदीप्त तथा पवित्र ज्योतिवाले होकर (विभाहि ) भासमान होवो ।

kingआग के समान तेजस्वी, प्रख्यात, प्रकाशमान, प्रकाशदाता तथा ऊर्ध्वगामी होने के कारण भी आप ‘अग्नि’ कहलाते हैं। आप समस्त वयुनों’ के विद्वान् हैं। ‘वयुन’ शब्द निघण्टु में प्रशस्य-वाचक शब्दों में पठित है और निरुक्त में इसके कान्ति तथा प्रज्ञा अर्थ किये गये हैं। क्या प्रशस्य है और क्या अप्रशस्य है, इसे आप भलीभाँति जानते हैं। अतः प्रजा में प्रशस्य कर्म लाने में तथा प्रजा से अप्रशस्य कर्म छुड़ाने में आप समर्थ हैं। प्रज्ञा के आप धनी हैं, अतः निखिल ज्ञान विज्ञान को राष्ट्र के बुद्धिजीवियों में आप प्रचारित कर सकते हैं। ‘कान्ति’ आपको सुहाती है, अत: राष्ट्रवासियों में आप सूर्य-जैसी कान्ति और आभा ला सकते हैं। आप पदभार ग्रहण करते हुए मातृभूमि की गोद में राजगद्दी पर आसीन हों। अपने कार्यकाल में इस बात का सदा ध्यान रखें कि यह मातृभूमि कभी सन्ताप , दु:ख, विद्रोह, आतङ्कवाद आदि की ज्वालाओं से शोकाकुल न हो। भले ही विद्रोही लोग आपके उज्ज्वल कार्यों के प्रति विद्रोह प्रकट करें, सेना लेकर आपके राष्ट्र पर आक्रमण करें, आपकी प्रजा को भी विद्रोह में संमिलित करने का प्रयत्न करें, किन्तु आप अपनी उज्वलता पर सुदृढ़ रहें, अपने राष्ट्र की उन्नति के प्रयत्नों पर स्थिर रहें। भले ही आतङ्कवादी लोग मार-काट, अग्निकाण्ड, आत्मघाती विनाश के प्रपञ्च आदि से आपको डराना चाहें, किन्तु आप निर्भयतापूर्वक अपने सत्प्रयासों में प्रवत्त और अडिग रहें। आप प्रदीप्त और पवित्र ज्योति के साथ राष्ट्र में सदा सूर्य के समान चमकते रहें। सूर्य बनकर तामसिकता और अज्ञान के अन्धकार को विच्छिन्न करते रहें। अपने यशस्वी कार्यों से निरन्तर कीर्ति पाते रहें। तब हमारे द्वारा आपको राजगद्दी पर आसीन करना, राष्ट्र का उन्नायक बनाना सफल होगा। प्रभु करे आप अपने राष्ट्र को उन्नत राष्ट्रों की पङ्कि में सबसे आगे खड़ा करने का श्रेय प्राप्त करने में समर्थ हों। हम आपकी जय बोलते हैं, आपके मन्त्रिमण्डल और रक्षक सेनाध्यक्षों की जय बोलते हैं, राष्ट्र की जय बोलते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. वयुन=प्रशस्य, निघं० ३.८।।

२. वयुनं वेतेः कान्तिर्वा प्रज्ञा वा। निरु० ५.४८।

नवनिर्वाचित राजा को प्रजा के  प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार

rashtra ke raja rani aur veer1राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः कण्वः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

प्रेतु ब्रह्मणस्पतिः प्रदेव्येतु सूनृत

अच्छा वीरं न परिधिसं देवा यज्ञं नंयन्तु नः॥

-यजु० ३३.८९

( प्र एतु ) उत्कर्ष प्राप्त करे ( ब्रह्मणः पतिः ) महान् राष्ट्र का पालक सम्राट्, ( प्र एतु ) उत्कर्ष प्राप्त करे ( देवी सूनृता ) शुभ गुणों से देदीप्यमान सत्यमधुरभाषिणी महारानी। ( देवाः ) विद्वान् लोग (नः यज्ञम् अच्छ) हमारे राष्ट्रयज्ञ में ( नर्यम् ) परुषाथी, ( पहिराधसम) पंक्तियों के सेवक (वीर) वीर को (नयन्तु ) प्राप्त कराएँ।

हम अपने राष्ट्र को महान् बनाना चाहते हैं। उसके लिए वेद का सन्देश है कि सम्राट्, प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति को ‘ब्रह्मणस्पति’ होना चाहिए। ब्रह्मन् शब्द निघण्टु में अन्न और धन का वाचक है। इससे सूचित होता है कि प्रधान राष्ट्रनायक जो भी हो उसके राष्ट्र में अन्न और धन भरपर रहना चाहिए, जिससे राष्ट्र में भुखमरी और निर्धनता फटकने भी न पावे। ‘ब्रह्म’ महान् परमेश्वर का नाम भी है। अत: राष्ट्रनायक को परमेश्वर का आराधक भी होना चाहिए, जिससे वह परमेश्वर से सद्गुणों और सत्कर्मों की प्रेरणा ग्रहण करता रहे। सम्राट् के साथ उसकी देवी महारानी भी राजोचित गुणोंवाली होनी चाहिए।’देवी’ शब्द क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति एवं गति अर्थवाली दिवु धातु से निष्पन्न होने के कारण महारानी के इन गुणों को भी सूचित करता है। वह प्रत्येक कार्य को इतनी आसानी से करने की क्षमतावाली होनी चाहिए कि वह उसे खेल लगे। उसके अन्दर प्रत्येक क्षेत्र में विजय प्राप्त करने की इच्छा होनी चाहिए। उसे व्यवहारकुशल होना चाहिए। राजनीति के ज्ञान की द्युति, स्तवनय की स्तुति, श्लाध्य कर्मों को करने से मोद और प्रसन्नता उसके अन्दर होनी चाहिए। अकरणीय कार्यों के प्रति प्रसुप्ति, कर्तव्यपालन के प्रति इच्छाशक्ति, जागरूकता, आशावादिता और प्रगतिशीलता उसमें रहनी चाहिए। सूनुता’ पद से उसकी वाणी की सत्यता और मधुरता सूचित होती है। राष्ट्रोत्थान इस पर भी निर्भर करता है कि राष्ट्र के वीर कैसे हैं। अतः मन्त्र कहता है कि विद्वानों का कर्तव्य है कि वे राष्ट्र में ऐसे वीरों का निर्माण करें, जो ‘नर्य’ हों, नरों के हितकर्ता एवं पुरुषार्थी हों, ‘पङ्किराधस्’ अर्थात् सहायता की इच्छुक जनपङियों के सेवक और कार्यसाधक हों। ऐसे वीर पुत्र जब राष्ट्रयज्ञ के अग्रणी बनेंगे तब निश्चय ही राष्ट्र प्रगति की ओर अग्रसर होगा, अन्य राष्ट्रों के मध्य उसकी स्थिति ऊँची होगी और अन्य राष्ट्रों का वह आदर्श तथा मार्गदर्शक हो सकेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. देवी शुभगुणैर्देदीप्यमाना-द०भा० ३३.८९, देवी विदुषी सूनृतासत्यभाषणादिसुशीलत्वयुक्ता-द०भा० ३७.७

२. ब्रह्म=अन्न, धन, निघं० २.७, २.१०।।

३. पङ्केः समूहस्य राधः संसिद्धिर्यस्मात् तम्-० । राध संसिद्धौ, स्वादिः।।

राष्ट्र के राजा, रानी और वीर -रामनाथ विद्यालंकार