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‘ईश्वर को जानना और उसकी स्तुति करना आवश्यक क्यों है?’ -मनमोहन कुमार आर्य

हम सभी मनुष्य जीवात्मायें हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा से मानव शरीर मिला है। जीवात्मा के दो प्रमुख गुण है। पहला गुण इसका ज्ञान की क्षमता से युक्त होना है और दूसरा अपने ज्ञान के अनुरूप सत्यासत्य कर्मों में प्रवृत्त रहना है।  अतः जहां ज्ञान व कर्म दोनों गुणों की अभिव्यक्ति हो वहां  आत्मा की सत्ता विद्यमान होती है। मनुष्य जन्म लेने से पूर्व हम एक जीवात्मा थे और उससे पूर्व हम कहीं मनुष्यादि अनेक योनियों में से किसी एक योनि में जीवन व्यतीत कर रहे थे। वहां मृत्यु होने तक हमने जो कर्म किये थे वा जिन कर्मों का फल भोगना शेष था, उन पाप-पुण्य रूपी कर्मों के आधार पर ईश्वर ने हमें हमारे वर्तमान जीवन में मनुष्य जन्म दिया है। इस मनुष्य जीवन में हमें पूर्व जन्म के किये हुए अवशिष्ट कर्मों के फलों को भोगना भी है और अगले जन्म के लिये नये कर्म भी संचित करने हैं। सुख-दुःख भोगते व नये कर्मों को करते हुए हमें अपने ज्ञान में वृद्धि भी करनी है। ज्ञान दृश्य व अदृश्य सभी पदार्थों का करना होता है। दृश्य पदार्थों में मुख्यतः सृष्टिगत समस्त भौतिक पदार्थ आते हैं व अदृश्य पदार्थों में अनेक सूक्ष्म भौतिक पदार्थों सहित मुख्य रूप से ईश्वर व जीवात्मा आते हैं। परमात्मा ने सृष्टि की आदि में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद इन चार वेदों का ज्ञान दिया है। यदि हम वेदों के व्याकरण अष्टाध्यायी महाभाष्य पद्धति का अध्ययन कर लें और वेदों के विद्वान आचार्यों की संगति करें तो हम वेदों में निहित अभौतिक व भौतिक अथवा परा व अपरा विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर अपने मनुष्य जीवन को अधिक उपयोगी व लक्ष्य के अनुरुप कार्यक्षम बना सकते हैं। आर्ष ग्रन्थों के हिन्दी भाष्यों को पढ़कर भी लाभान्वित हुआ जा सकता है।

 

प्रश्न है कि ईश्वर क्या है? इसका एक उत्तर यह है कि जिससे यह संसार बना है, जो इसका पालन कर रहा है तथा जिसने हमें हमारी ही तरह अन्य सभी जीवात्माओं को जन्म दिया है, उसे परमात्मा कहते हैं। यहां धर्म की दर्शन शास्त्र विहित परिभाषा भी देख लेते हैं जिसमें बताया गया है कि जिन कर्मों वा आचरण को करने से मनुष्य का अभ्युदय अर्थात् शारीरिक सामाजिक उन्नति हो तथा मृत्यु होने पर जन्ममरण से छूटकर निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो उसे धर्म कहते हैं। मनुष्य की शारीरिक व सामाजिक उन्नति व निःश्रेयस की प्राप्ति कराने वाली सत्ता का नाम ईश्वर है। ईश्वर ने जीवात्माओं को अतिशय सुख देने वा दुःखों की सर्वथा निवृत्ति करने के लिए ही इस संसार को बनाया है। ईश्वर को जानने के लिए महर्षि दयानन्द वर्णित ईश्वर का स्वरुप विशेष लाभकारी है। वह अपने लघुग्रन्थ स्वमंन्तव्यामन्तव्य प्रकाश व आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताते हैं कि ईश्वर, ब्रह्म वा परमात्मा सच्चिदानन्द लक्षण युक्त है।  उसके गुण, कर्म स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्मिान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है।

 

स्तुति क्या होती है यह भी सभी मनुष्यों को जानना अभीष्ट है। स्तुति किसी पदार्थ या सत्ता के गुण कीर्तन, गुणों के श्रवण और सत्ता के यथार्थ ज्ञान को कहते हैं। ईश्वर की स्तुति के सन्दर्भ में ईश्वर के गुणों का कीर्तन, ईश्वर के गुणों का श्रवण व ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान यह सभी ईश्वर स्तुति में सम्मिलित हैं। ईश्वर की स्तुति करने से उसके प्रति प्रेम वा प्रीति होती है, यह ईश्वर स्तुति का फल है। स्तुति हम केवल ईश्वर की ही नहीं अपने माता-पिता, आचार्य, विद्वानों व परोपकारी पुरूष यथा सच्चे साधु व महात्माओं आदि की भी किया ही करते हैं। इससे उनके प्रति सम्मान, प्रेम व प्रीति उत्पन्न होती है जिससे हम नानाविध लाभान्वित होते हैं। ईश्वर की स्तुति करने से भी ईश्वर के प्रति प्रीति होने से हम मनुष्यों के सभी दुर्गुण, दुव्र्यस्न और दुःख दूर होते हैं। ऐसा इस कारण से होता है कि ईश्वर में यह दुख, दुव्र्यस्न और दुःखों का लेश भी नहीं है। अतः स्तुति करने से ईश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध, आत्मा का परमात्मा से योग व सम्पर्क, होता है जिससे हमारे बुरे गुण-कर्म-स्वभाव दूर होकर कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव प्राप्त होते हैं। यदि हम ऋषि व योगियों के जीवन पर एक दृष्टि डाले तो हमें ज्ञात होता है कि इन महात्माओं के जीवन में दुगुणों का सर्वथा अभाव तथा श्रेष्ठ गुणों का प्रचुर मात्रा में समावेश होता है। ऋषि, योगी, सज्जन अथवा आर्य श्रेष्ठ गुणों को धारण किये हुए मनुष्यों को ही कहते हैं। अतः सभी मनुष्यों को स्तुति अपने से श्रेष्ठ मनुष्यों व सबसे श्रेष्ठ व श्रेष्ठतम ईश्वर की करनी चाहिये जिससे मनुष्यों को सभी दुःख दूर होकर ज्ञान, विज्ञान की प्राप्ति सहित सुखों की वृद्धि हो। यह ईश्वर स्तुति सुखों की वृद्धि करने सहित एक ऐसा कर्म वा कार्य है जिससे मनुष्य कर्मों के बन्धनों से मुक्त होकर उन्नति करता हुआ मोक्ष की स्थिति को प्राप्त हो सकता है। महर्षि दयानन्द जी ने चारों वेदों से चयन कर आठ मन्त्रों को स्तुति-प्रार्थना-उपासनार्थ प्रस्तुत किया है जो इस विषय के श्रेष्ठ मन्त्र है जिनका पाठ करने से कालान्तर में दुःखों की निवृत्ति होकर सुखों की प्राप्ति सम्भव है।

 

मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है तथा फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। यदि हम ईश्वर को नहीं जानेंगे और उसकी स्तुति-प्रार्थना वैदिक योगविधि से नहीं करेंगे तो हममें लोभ, मोह व राग, इच्छा, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि हमारे ही अन्दर हमारे मुख्य शत्रु उत्पन्न होंगे जो हमारा जीवन नष्ट कर देंगे जिसका परिणाम इस जीवन में अवनति होने से जन्म जन्मान्तर में दुःखों की प्राप्ति ही होगा। अतः दुःख के निवारणार्थ सभी मनुष्यों को सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय का स्वभाव बनाना चाहिये जिससे सत्य व असत्य का विवेक करने में सुविधा होती है। निरन्तर स्वाध्याय से मनुष्य का ज्ञान बढ़ता जाता है। मनुष्यों योग व उपासना के महत्व को जानकर इनका अभ्यास करता है और शुभ कर्मों को करके जीवन के लक्ष्य अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त करता है। हमने यह कुछ बातें आर्ष ग्रन्थो मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय के आधार पर लिखी हैं। जो पाठक ईश्वर के स्वरुप व उसकी स्तुति के महत्व से अनभिज्ञ हैं, वह व अन्य सभी इस संक्षिप्त लेख से लाभान्वित हो सकते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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‘ईश्वर का प्रमाणिक विवरण कहां से प्राप्त हो सकता है?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो सबसे पुराना इतिहास भारत का ही उपलब्ध होता है। भारत का इतिहास 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पुराना है। लगभग 5,200 वर्ष पहले कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध हुआ था। इससे देश का महाविनाश हुआ। इसमें सैनिक व राजा तो मरे ही, इसके साथ अव्यवस्था के कारण हमारा प्रभूत वैदिक ज्ञान व विज्ञान भी ध्वस्त वा विलुप्त हो गया। यह महाभारत युद्ध की सबसे बड़ी क्षति थी। सौभाग्य से कुछ ऋषि बच गये। उनकी कुछ वर्षों तक, महर्षि जैमिनी तक, परम्परा चली। इसके बाद भी महर्षि दयानन्द की तरह कुछ ऋषि हुए जिन्होंने ग्रन्थों के प्रणयन द्वारा वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा के प्रयास किये। दक्षिणात्य स्वामी शंकराचार्य जी से पूर्व किसी ऐसे ऋषि की जानकारी उपलब्ध नहीं है जिसने महर्षि दयानन्द की भांति, लेखन, उपदेश, शास्त्रार्थ, शंका समाधान आदि द्वारा, वेदों का प्रचार किया हो। शंकाराचार्य जी ने भी वेदान्त, उपनिषद व गीता का अपनी अद्वैतवादी वेदान्त की विचारधारा के अनुसार प्रचार किया। महाभारत के बाद जो ऋषि हुए उन्होंने अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त जैसे कई ग्रन्थों का निर्माण किया। आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक व सुश्रुत भी भारत की प्राचीन सम्पदा हैं। यह उस समय के ग्रन्थ हैं जब यूरोप के देश अस्तित्व में भी नहीं आये थे। इसी प्रकार से भारत में उपनिषद, दर्शन आदि अनेकानेक ग्रन्थों की रचना हुई। मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत ग्रन्थ भी किसी प्रकार से बच गये। मुगलों ने यद्यपि तक्षशिला व नालन्दा आदि के विशाल पुस्तकालयों को अग्नि को समर्पित कर दुर्भावना से नष्ट किया, शायद ही उन्होंने हमारे धर्म ग्रन्थों को नष्ट करने का कहीं कोई अवसर छोड़ा हो, तथापि दैव कृपा से बहुत सा साहित्य सुरक्षित रहा, जिसके लिए हमारे इन ग्रन्थों के रक्षक पण्डित व अन्य सभी बन्धु समस्त आर्य-हिन्दू जनता की कृतज्ञता व धन्यवाद के अधिकारी हैं। यह भी प्रसंग से बाहर जाकर लिख दे कि जिन अपने लोगों ने भारत पर राज्य किया व कर रहे हैं, वह वैदिक साहित्य व इसके यथार्थ महत्व से सर्वथा अनभिज्ञ ही रहे हैं। इनकी रक्षा व प्रचार का जो कार्य राज्य स्तर पर किया जाना चाहिये था, वह नहीं किया गया।

 

वेदों को कण्ठस्थ करने की परम्परा के कारण मानव की सबसे गौरवपूर्ण एवं महनीय बौद्धिक सम्पदा वेद सृष्टि के आरम्भ से अब तक सुरक्षित व अपने मूल रूप में विद्यमान है। इसी प्रकार से खगोल ज्योतिष के भी ग्रन्थ भारत में विद्यमान हैं। हमारे देश व देश से बाहर के पुस्तकालयों में प्राचीन ग्रन्थों की बड़ी संख्या में पाण्डुलिपियां भी विद्यमान हैं जिनकी ओर हमारे सस्कृत के जानकार विद्वानों का ध्यान नहीं है। अभी तक किसी सरकार का इस ओर ध्यान नहीं गया। इन प्राचीन पाण्डुलिपियों के अध्ययन व अनुवाद आदि से जो लाभ मिल सकता था वह नहीं हो पा रहा है। वोटरों को लुभाने की ओर ही सरकारों का मुख्य ध्यान रहता है। यदि यह पाण्डुलिपियां विश्व के किसी अन्य देशों में होती जिनको उनके पूर्वजों ने लिखा होता तो उन्होंने इन सबका अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद व मूल्यांकन अवश्य किया होता। भारत अपनी प्राचीन बौद्धि़क धरोहरों व सम्पदा का मूल्यांकन करने व उसका महत्व जानने में शायद कम ही रूचि लेता है। ऐसा लगता है कि हमारे देश के प्रायः सभी बुद्धिजीवी पश्चिम के भौतिकवाद के प्रभाव से ग्रसित हैं, इसी कारण प्राचीन ज्ञान के अध्ययन की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। सौभाग्य से हमारे आर्य विद्वानों पं. भगवद्दत्त, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक आदि ने इस दिशा में यथासम्भव कार्य किया।

 

ईश्वर के प्रमाणित ज्ञान के सम्बन्ध में हमारा प्राचीन साहित्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण व सहायक है। संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद है। वेद में ईश्वर सहित जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ ज्ञान पर भी प्रकाश डाला गया है जिसका विस्तार उपनिषदों व दर्शन आदि ग्रन्थों में मिलता है। यह ज्ञान महाभारतकाल के बाद की परिस्थितियों से प्रभावित होकर लुप्त सा हो गया था। उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द (1825-1883) का आविर्भाव हुआ। उन्होंने अपने अपूर्व ब्रह्मचर्य और पुरुषार्थ से वेदों का पूर्ण ज्ञान, जो कि कोई मनुष्य जान सकता है, ग्रहण किया और ईश्वर की प्रेरणा व अपने विवेक से इस कार्य को मानवता का सर्वाधिक कल्याणी जानकर इसका अनेक प्रकार से प्रचार व प्रसार किया। वेद ही एकमात्र ऐसे सर्वप्राचीन प्रमाणिक ग्रन्थ हैं जिसमें ईश्वर का पूर्णतया सत्य यथार्थ स्वरुप वर्णित उपलब्ध है। अन्य मनुष्यकृत ग्रन्थों में से अधिकांश में ईश्वर का जो स्वरुप वर्णित है वह विष सम्पृक्त अन्न के समान त्याज्य हैं।

 

इससे पूर्व कि हम वेदों के ऋषि महर्षि दयानन्द के वेदों पर आधारित ईश्वर विषयक विचार प्रस्तुत करें, हम यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के आठवें मन्त्र पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः सव्यम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। इसका अर्थ दयानन्द जी के अनुसार यह है कि हे मनुष्यों ! जो ब्रह्म शीघ्रकारी, सर्वशक्तिमान्, स्थूलसूक्ष्म और कारण शरीर से रहित, छिद्ररहित और ही छेद करने योग्य, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित, अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और जो पापयुक्त पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नही होता, सब ओर से व्याप्त है, जो सर्वत्र सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला, दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला और अनादिस्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति तथा वियोग से विनाश और जिसका मातापिता द्वारा गर्भवास, जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा सनातन अनादिस्वरूप अपनेअपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित प्रजाओं के लिये यथार्थ भाव से सब पदार्थों को विशेष कर बना कर वेद द्वारा प्रकाश करता है। यही परमेश्वर तुम लोगों का उपासना करने के योग्य है।

 

ईश्वर का पूर्ण विस्तृत सत्यस्वरुप जानने के लिए पाठकों को महर्षि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, वेदभाष्य, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इसके साथ सभी उपनिषदें व योगदर्शन भी ईश्वर का सत्यस्वरुप प्रस्तुत करने के साथ उनकी प्राप्ति के उपयों पर भी प्रकाश डालते हैं। ईश्वर का वेदवर्णित सत्यस्वरुप यदि संक्षेप में सरलता से जानना हो तो वह आर्यसमाज के दूसरे नियम, स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों से जाना जा सकता है। हम इन तीनों ग्रन्थों के एतदविषयक उद्धरण यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के स्वरुप का प्रकाश करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। आर्यामन्तव्यामन्तव्यप्रकाश लघु ग्रन्थ में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर (कहते हैं) मानता हूं। आर्योद्देश्यरत्नमाला में ग्रन्थकार ने लिखा है कि ‘(ईश्वर) जिसके गुणकर्मस्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्य गुणवाला है, और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पापपुण्य के फल ठीकठीक पहुंचाना है, उसकोईश्वर कहते हैं।

 

संसार के अनेक मत-मतान्तरों में इस वैदिक मत का विरोधी व विपरीत ईश्वर का जो स्वरुप वर्णित किया गया है वह असत्य, अप्रमाणिक व अविद्याजन्य है। महर्षि दयानन्द द्वारा वर्णित उपर्युक्त ईश्वर का स्वरुप वह स्वरुप है जो कि एक सिद्ध योगी को समाधि अवस्था में साक्षात्कार होने पर प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। इसी स्वरुप का वेदों व आर्ष वैदिक साहित्य में वर्णन है। तर्क व युक्ति से भी इसकी पुष्टि होती है। ईश्वर के इसी स्वरुप का ध्यान करने से आत्मा के मलों की निवृत्ति होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। वैदिक मत के विपरीत पद्धतियों से ईश्वर विषयक पूजा व उपासना से उपासना के मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य ईश्वर के साक्षात्कार की उपलब्धि नहीं होती। इसका निभ्र्रान्त ज्ञान भी वैदिक साहित्य को पढ़कर व अनुमान से जाना जाता है। हमने उपर्युक्त पंक्तियों में ईश्वर का जो वेद पोषित स्वरुप प्रस्तुत किया है वही प्रमाणिक सत्य स्वरुप है। संसार के सभी मनुष्यों को इसी स्वरुप को जानकर, वेदाध्ययन करने व ध्यान आदि साधना करने से ईश्वर की प्राप्ति जीवनकाल में ही हो जाती है। यह समाधि ईश्वर के साक्षात्कार की अवस्था ही स्वर्ग मोक्ष के समान सर्वाधिक सुख आनन्द की स्थिति होती है। इसको प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। यदि मानव जीवन में यह स्थिति प्राप्त नहीं की, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी कर लिया जाये, इसकी तुलना में वह सब हेय व निम्न है। उत्कृष्ट मनुष्य जीवन वही है जिसमें आध्यात्म व भौतिकवाद का समन्वय हो। केवल भौतिकवादी जीवन अपंग ही कहा जायेगा। आशा है कि लेख के विचारों से पाठक लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘एक ईश्वर, एक संसार और एक ही मनुष्य जाति विषय पर कुछ विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य,

 

यह संसार पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश का जीवों के सुख-दुःख के उपयोग की दृष्टि से समुपयुक्त मिश्रित रूप है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार संसार को बने हुए 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस अवधि में हमने संसार को बांट-बांट कर इस पर दो सौ से अधिक देश बना दिये हैं। इन सभी देशों में भिन्न-भिन्न भाषायें, संस्कृतियां, सभ्यतायें, रीति-रिवाज, धर्म, मत, पंथ, सम्प्रदाय आदि हैं। हमें लगता है कि संसार के बांटने के प्रयास तो बहुत हुए परन्तु बटे हुए भूभागों को जोड़ने वा मिलाने के प्रयास न के बराबर हुए हैं। यदि किसी ने इस प्रश्न को उठाया तो उस पर लोगों का ध्यान या तो गया ही नहीं या समकालीन लोगों ने उसकी उपेक्षा की। हमें लगता है कि आज का संसार मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों के प्रति अधिकांशतः अनभिज्ञ है और उसने सत्य लक्ष्य व उद्देश्यों की उपेक्षा कर केवल सुख के भौतिक साधनों को ही अपना लक्ष्य व उद्देश्य बना लिया है जो कि सत्य से कोसों दूर है। इस सन्दर्भ में विचार करने पर हमें यह तथ्य स्पष्ट होता है कि मनुष्यों ने विगत लगभग 2 अरब वर्षों में पृथिवी को तो बांटा परन्तु वह अन्य चार प्रमुख तत्वों अग्नि, जल, वायु और आकाश को बांटने में सफल नहीं हुए। भारत, पाकिस्तान और चीन को यदि हम लें तो भारत की उष्णता व शीतलता का प्रभाव अन्य दो देशों में और वहां का प्रभाव भारत पर अग्नि संचरण के सिद्धान्त के आधार पर पड़ता है। इसी प्रकार से भारत की वायु अन्य देशों में व वहां की वायु भारत में वायु के प्रवाह की दिशा व भिन्न-भिन्न स्थानों के तापक्रम के अनुसार बहती व संचरण करती है। जल का मुख्य स्रोत समुद्र और नदियां आदि हैं। आज भी अनेक नदियां इन तीनों देशों में बहती है और कुछ ऐसी भी नदियां हैं जिनका उद्गम एक देश में है और उसका जल दूसरे दूशों में भी बह कर जाता है जिससे दोनों ही देश समान रूप से लाभान्वित हो रहे हैं। समुद्र में सूर्य की उष्णता से जो वाष्प बनती है वह सभी देशों में जाकर समान रूप से बिना पक्षपात वर्षा करती है। आकाश भी बंटा हुए कहते अवश्य हैं परन्तु वह बटा हुआ इस कारण से नहीं है कि पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है और अपनी धूरी पर भी घूमती है। आकाश गति नहीं करता, इस कारण सभी देशों का आकाश पृथिवी के भ्रमण के कारण चैबीस घंटे में हर पल व हर क्षण बदलता रहता है। इससे क्या शिक्षा मिलती है? यह विचारणीय है। इससे यही शिक्षा मिलती प्रतीत होती है कि यह पृथिवी ईश्वर द्वारा उत्पन्न सभी मनुष्य व प्राणियों के भोग के लिए बनाई गई है। ईश्वर ने पृथिवी पर एक देश बनाया था परन्तु उसकी योग्य व अयोग्य सन्तानों ने इसके टुकड़े कर दिये हैं। ईश्वर ने इसे किसी एक मनुष्य, मत, सम्प्रदाय, धर्म आदि के पृथिवी व सृष्टि को नहीं बनाया। इसका मालिक ईश्वर व केवल ईश्वर है, न कि किसी मत के लोग व आचार्य आदि हैं। इस तथ्य को सभी मतों के आचार्यों व अनुयायियों को समझना चाहिये और वेदों व सत्शास्त्रों का अध्ययन कर ईश्वर की इच्छा को जानने का प्रयास करना चाहिये। उसके अनुसार आचरण करना चाहिये जिससे यह सृष्टि आजकल नरक का धाम न होकर सुख व स्वर्गधाम बन जाये।

 

इस लेख को लिखने का हमारा अभिप्राय यह है कि संसार के सभी बुद्धिजीवी व पठित व्यक्ति इस सृष्टि के कर्त्ता ईश्वर व सृष्टि रचना के उसके उद्देश्य को सच्ची भावना व स्वार्थों से ऊपर उठकर जानने का प्रयास करें। इस कार्य में उन्हें विचार व चिन्तन करने के साथ प्राचीन वैदिक साहित्य की सहायता लेकर इन प्रश्नों को हल करना चाहिये। मनुष्य जीवन का उद्देश्य बताते हुए वेदों के मर्मज्ञ विद्वान स्वामी दयानन्द ने कहा है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य सत्य व असत्य का निर्णय करने व कराने के लिए है, परस्पर लड़ाई-बखेड़ा करने के लिए नहीं है। यह बात सभी बु़िद्धजीवियों की दृष्टि में सत्य है परन्तु इस पर आचरण शायद ही कोई करता हो अन्यथा संसार की स्थिति ऐसी न होती जैसी की वर्तमान में है।

 

हम पाठकों का ध्यान स्वामी दयानन्द जी द्वारा की गई मनुष्य की परिभाषा पर भी दिलाना चाहते हैं। वह लिखते हैं कि मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुखदुःख और हानिलाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं, कि चाहे वे महा अनाथ निर्बल और गुणरहित क्यों हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको (यथार्थ मनुष्य को) कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूपधर्म से पृथक कभी होवे। स्वामी दयानन्द जी ने इन पंक्तियों में मनुष्य के स्वभाव, व्यवहार व कर्तव्यों को चित्रित किया है। संसार के साहित्य में इस परिभाषा व शब्दों को हम अद्वितीय व मनुष्य की परिभाषा को सर्वाधिक उपयुक्त परिभाषा कह सकते हैं। यह सब उनके वेदों के उच्च. कोटि के ज्ञान के कारण सम्भव हुआ है। इससे वेदों के ज्ञान व शिक्षा की दशा व दिशा का अनुमान लगाया जा सकता है।

 

हमने इस लेख में कुछ विषयों वा बिन्दुओं पर विचार किया है। आशा है कि पाठक इसे उपयोगी पायेंगे। महर्षि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश के चैदहवें समुल्लास के अन्तिम कुछ वाक्यों को प्रस्तुत कर हम इस लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं कि हम तो यही मानते हैं कि सत्यभाषण, अहिंसा, दया आदि शुभ गुण सब मतों में अच्छे हंै और बाकी वाद, विवाद, ईष्र्या, द्वेष, मिथ्याभाषणादि कर्म सब मतों में बुरे हैं। यदि तुमको सत्य मत ग्रहण की इच्छा हो तो वैदिक मत को ग्रहण करो।

 –मनमोहन कुमार आर्य

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परमेश्वर ही सच्चा गणेश है – इन्द्रजित् देव

परमेश्वर ही सच्चा गणेश है

– इन्द्रजित् देव

‘‘आर्य वन्दना’’ के जनवरी अंक में गणेश की महिमा विषयक एक लेख प्रकाशित हुआ है जो पूरी तरह से पौराणिकता से भरपूर है। लेखक महोदय के अनुसार गणेश की पूजा के पीछे यह धारणा कार्य करती है कि इससे सभी सुख, सौभाग्य तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है तथा जीवन में सभी बाधाओं एवं विघ्नों से मुक्ति मिलती है। लेखक ने यह भी लिखा है कि पार्वती ने अपने शरीर पर इतना उबटन लगा राा था कि जिससे एक मनुष्य का पुतला बन सके। पार्वती ने फिर उसमें प्राण फूँके और उसे अपना पुत्र बनाया। यह भी लेख में लिखा है कि शिव ने कहा जो संसार का चक्कर लगाकर प्रथम आएगा, वही प्रथम पूजनीय होगा तथा सभी देवता तेजी से दौड़े परन्तु गणेश नामक शिव का पुत्र न दौड़ सका क्योंकि उसका शरीर भारी था। गणेश ने अपने माता-पिता का ही चक्कर लगाया एवं उन्हें प्रणाम करके बैठ गये, अतः गणेश प्रथम पूज्य बन गया इत्यादि।

पूरा लेख अवैज्ञानिक, तर्कहीन व प्रमाणहीन है। लेखक महोदय इसे ‘‘कल्याण’’ या किसी अन्य पौराणिका पत्रिका में छपा लेते तो उनकी उपरोक्त बातों का कोई विरोध न करता, परन्तु एक वैदिक पत्रिका में यह प्रकाशित हुआ है, अतः इसे पढ़कर हमें आश्चर्य व दुःख हुआ है। इसके उत्तर में कुछ बातों को तर्क व विज्ञान के आधार पर लिखना वाञ्छनीय है, ताकि आर्य समाजियों को तो सत्य का ज्ञान हो सके तथा वे भ्रम में न रहें।

हमारे कुछ प्रश्न लेखक से हैंः यदि स्त्री के शरीर पर उबटन लगा लेने से पुत्र का शरीर बन सकता है तो ईश्वर ने पुरुष को क्यों उत्पन्न किया? पार्वती हो या कोई अन्य स्त्री, उसके शरीर में गर्भाशय की स्थापना ही क्यों की? वेदानुसार विवाह का मुय उद्देश्य उत्तम सन्तान उत्पन्न करना है। यदि पार्वती बिना पति के पुत्र को उत्पन्न करने की कला जानती थी तो उसने शिव से विवाह ही क्यों किया? क्या शिव में कोई कमी थी। उबटन से पुत्र-प्राप्ति की विद्या का उल्लेख किस वेद या किस आयुवैदिक अथवा एलोपैथिक ग्रन्थ में है? उबटन लगाकर सोने से व्यक्ति के शरीर से वह झड़ या उतर जाना चाहिये परन्तु पार्वती ने उतरने नहीं दिया, तभी तो उबटन से पुत्र बना लिया व फूँक मारकर उसे चेतन गणेश बना दिया। लेखक को चाहिए कि इस ईलाज का बांझ स्त्रियों में प्रचार करें ताकि वे भी अपने शरीर पर उबटन लगा लिया करें व जब चाहें, वे अपने उबटन से पुत्र का पुतला बनाकर व उस पुतले में प्राण फूँक कर सन्तानवती बन जाया करें। वे पति तथा वैद्य-डॉक्टर की सहायता लेने की आवश्यकता से मुक्त हो जाया करेंगी। प्राण फूँकने से पुत्र में आत्मा आती है तो मृत पुत्र की किसी भी माता को आज तक पुत्र-वियोग का दुःख क्यों भोगना पड़ता रहा है? पुत्र की मृत्यु होने पर पुत्र का शरीर तो घर में पड़ा होता है। पार्वती की तरह पुत्र की माता उस मृ्रत देह में फूँ क मार कर पुत्र को जीवित कर लिया करें। यह फार्मूला बताने के लिए हम लेखक के बहुत धन्यवादी रहेंगे।

पार्वती ने अपने उबटन से उत्पन्न किए गणेश को घर के बाहर बैठा दिया, ताकि वे निश्चित होकर स्नान कर सकें व कोई भी व्यक्ति भीतर प्रवेश न कर सके, परन्तु शिवजी स्वयं को न रोक सके व पुत्र गणेश व पिता शिव के मध्य युद्ध छिड़ गया। परिणामतः पुत्र का सिर काटकर शिव जी भीतर प्रवेश कर गए। पार्वती ने हाहाकार मचाया तो शिव ने एक हथिनी का सिर जोड़कर पुत्र को पुनः जीवित कर दिया। हमारी इच्छा विद्वान लेखक से यह जानने की है जिस शिवजी को पौराणिक व लेखक स्वयं ईश्वर मानते हैं, उसके घर में इतनी अधिक गरीबी क्यों थी कि वह अपने घर में दरवाजा बन्द करके स्नान करने योग्य एक बाथरूम भी नहीं बनवा सका? जब इतनी निर्धनता थी ही तो वह ईश्वर कैसे कहला सकता है, क्योंकि ईश्वर का अर्थ ऐश्वर्यशाली होता है। लेखक को यह भी बताना होगा कि जब शिवजी की पत्नी घर के भीतर स्नान कर रही थी तथा उनके पुत्र गणेश ने उन्हें भीतर जाने से रोका तो वे रुके क्यों नहीं? भीतर जाने का उनका उतावलापन उनके संयम की पोल खोलता है। इतना उतावलापन उनमें था कि भीतर जाने से रोकने वाले अपने पुत्र का सिर भी काटना उन्हें अधर्म प्रतीत नहीं हुआ। किसी का सिर जब कटेगा तो उसके शरीर से उसके प्राण व उसकी आत्मा निकल जाएगी, यह एक दृढ़ वैज्ञानिक नियम है। तत्पश्चात् कोई भी पिता, माता, राजा, वैज्ञानिक या गुरु तो क्या, स्वयं ईश्वर भी पुनः प्राण तथा आत्मा को उसी शरीर में प्रवेश नहीं करा सकता।

लेखक के अनुसार जब पार्वती ने अपने पति के समक्ष पुत्र वियोग का दुखड़ा रोया, शिव ने एक हथिनी का सिर सिरहीन पुत्र के सिर पर फिट करके जीवित कर दिया। हमारा प्रश्न उपरोक्त लेख के लेखक से यह है किस कपनी के फैवीकोल या कीलों से गणेश का सिर पुनः फिट किया? आज परस्पर लड़ाई के अनेक मामलों में एक दूसरे के सिर काटे जा रहे हैं। लेखक की मान्यता वाले जिसाी किसी ग्रन्थ में सिरहीन धड़ से किसी अन्य प्राणी का सिर जोड़ने की सफल विधि का उल्लेख है, उस ग्रन्थ की पृष्ठ संया सहित नाम व लेखक का नाम बताने की कृपा करें ताकि आज जहाँ कहीं परस्पर लड़ाई में सिर कटते हैं, मैं वहाँ सिर जोड़ने में कुछ सहायता कर सकूँ।

हमारा अगला प्रश्न यह है कि शिव जी में हथिनी का सिर अपने मृत पुत्र के धड़ से जोड़कर पुनर्जीवित करने की योग्यता व क्षमता थी तो उन्होंने अपने पुत्र का पहला सिर ही क्यों नहीं जोड़ दिया? हथिनी की मृत्यु कर के अपने पुत्र को पुनर्जीवित करना कथित ईश्वर शिव की शोभा बढ़ाने वाला कार्य है क्या? कोई भी मनुष्य जिसका धड़ तो मनुष्य का हो परन्तु सिर हथिनी का हो, क्या सूखपूर्वक सो सकेगा?

उपरोक्त लेख के अनुसार एक बार देवों में यह विवाद हो गया कि उन सबमें किस देवता की पूजा सर्वप्रथम होनी चाहिए? शिव ने उन्हें संसार का चक्कर लगाकर आने को कहा। जो दौड़ में सबसे पहले लौटेगा, वही देवता प्रथम पूज्य होगा। गणेश का शरीर भारी था। वह न दौड़ सका। उसने माता-पिता का चक्कर लगाया और प्रणाम करके बैठ गया। अतः प्रथम पूज्य माने गए। हमारा निवेदन यह है कि प्रथम पूज्य देव का निर्णय करने का लाईसैंस (=अधिकार) शिवजी को किसने दिया? उसका निर्णय मान्य क्यों होना चाहिए? वे देव क्यों कर माने जा सकते हैं, जब परस्पर उनमें होड़ मची हुई थी कि मेरा पूजन सर्वप्रथम होना चाहिए? लोकैषणा रहित व्यक्ति देवता होता है जबकि लोकैषणायुक्त (=प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा करने वाला) व्यक्ति मनुष्य कहलाता है, देवता तो कदापि मान्य हो ही नहीं सकता। यहाँ हम आचार्य यास्क द्वारा निरुक्त 7/11 में वर्णित देवों का वर्णन करना उचित समझते हैं- देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थाने भवतीति वा। इसके अनुसार निम्नलिखित कुछ मूर्तिमान व कुछ अमूर्तिमान देव ये होते हैंः-

  1. दान देने वाले= मनुष्य, विद्वान् व परमेश्वर।
  2. दीपन, प्रकाश करने वाले= सूर्योदि लोक, सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने वाले।
  3. द्योतन करने वाले= सत्योपदेश करने से भी देव अर्थात् माता, पिता , आचार्य व अतिथि तथा पालन, विद्या व सत्योपदेशादि करने वाले।
  4. द्युस्थान वाले देव= सूर्य की किरण, प्राण तथा सूर्यादि लोको का भी जो प्रकाश करने हारा है, वह परमेश्वर देवों का भी देव है।
  5. अन्य देव= इन्द्रियाँ, मन। ये शदादि विषयों तथा सत्यासत्य का प्रकाश करते हैं। वेद मन्त्र भी देव हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ के सप्तम समुल्लास में इस विषय में लिखते हैं- ‘‘देवता दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहते हैं, जैसी कि पृथिवी।……….जो त्रयस्त्रिशनिशता’’ इत्यादि वेदों में प्रमाण हैं, इसकी व्याया ‘शतपथ’ में की है कि-तैंतीस देव अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु,आकाश, चन्द्रमा,सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से ये आठ वसु हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, सामान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा, ये ग्यारह रुद्र इसलिए कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं, तब रोदन कराने वाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिए कहाते हैं कि ये सब की आयु को लेते जाते हैं। बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु है कि वह परम ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिससे वायु, वृष्टि, जल, औषधी की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस पदार्थ पूर्वोक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं।

लेखक सत्यपाल भटनागर जी से अनुरोध है कि उपरोक्त विवरण व व्याया को ध्यान से पढ़ने का कष्ट करें व पाठकों को स्पष्ट करें कि कौन-से वे देव थे जिनमें अपनी पूजा प्रथमतः कराने की थी? वास्तविकता यह है कि उपरोक्त देवों से अतिरिक्त काल्पनिक देवों की धारणा लेखक के मस्तिष्क में है। उसे त्याग दें व केवल उपरोक्त वास्तविक देवों की मान्यता स्थापित करें।

लेखक जी! पुत्र को अपने माता-पिता का आदर व यथोचित सेवा करनी ही चाहिए, यह निर्विवाद है, परन्तु गणेश की तरह माता-पिता की परिक्रमा कर लेना न तो किसी प्रकार की सेवा है तथा न ही इस कार्य में तनिक भी आदर करने का भाव है। गणेश के मन मेंाी अपनी पूजा सर्वप्रथम कराने की ही इच्छा थी जिसे शास्त्रीय भाषा में लोकैषणा कहते हैं। हम लेखक महोदय को स्मरण दिलाना चाहते हैं कि इतिहास में माता-पिता का आदर व उचित सेवा करने वाले कई सुपुत्रों के प्रमाण उपलध हैं। श्रवण कुमार तथा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र इत्यादि के कार्यों को ध्यान में रखकर सोचिए व पाठकों को बताइए कि माता-पिता के शरीरों की परिक्रमा करने वाले गणेश में सुपुत्र के गुण थे अथवा श्रवण कुमार में? रामचन्द्र जी ने तो राजभवन के सुख-सुविधाओं का परित्याग करके 14 वर्षों तक वनों में रहकर अपने पिता की प्रतिष्ठा तथा सौतेली माँ की इच्छा की रक्षा की थी। गणेश के जीवन में सेवा की एकाी घटना जब उपलध नहीं होती तो उसका पूजन सर्वप्रथम करने-कराने में औचित्य क्या है? सर्वप्रथम पूजन करने-कराने की किसी व्यक्ति की यदि इच्छा है तो श्रवण कुमार अथवा रामचन्द्र जी की। वैसे आज न गणेश संसार में है,न ही श्रवण कुमार कहीं दिखते हैं तथा न ही रामचन्द्र जी कहीं मिलते हैं। उनकी पूजा कैसे करोगे- कराओगे? केवल चित्रों, मूर्तियों या थाली में जल रही धूप अगरबत्ती को मत्था टेकने का नाम पूजा करना नहीं है। पूजा का अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में इस प्रकार लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि गुण वाले को यथायोग्य सत्कार करना है, उसको ‘पूजा’ कहते हैं।’’ आज जो कुछ हो रहा है, वह पूजा न होकर अपूजा है, क्योंकि महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में यह भी लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि रहित जड़ पदार्थ और जो सत्कार के योग्य नहीं है। उसका जो सत्कार करना है, वह ‘‘अपूजा’’ है।’’ थोड़ी देर के लिए हम बहस के लिए मानते हैं कि गणेश ने अपने माता-पिता की परिक्रमा की थी, इसलिए सर्वप्रथम उसी की पूजा करनी चाहिए तो प्रश्न उत्पन्न होगा कि जिस गणेश ने वह कार्य किया था, वह ही आज कहाँ नहीं है। पत्थर की बनी मूर्ति या कागज में दिख रहा गणेश वास्तविक गणेश नहीं है। आप पत्थर या कागज की पूजा कराते हैं जो जड़ पदार्थ हैं, ज्ञानरहित, क्रिया रहित हैं। इनका सत्कार हो नहीं सकता, अतः इस कथित गणेश से जो कुछ करते हो, वह अपूजा है व इससे कुछ लाभ नहीं होता, हानि अवश्य होती है।

गणेश का पूजन करना है तो पहले गणेश शद का अर्थ समझना चाहिए। ‘गण संयाने’ इस धातु से गण शद सिद्ध होता है। उसके आगे ईश शद लगाने से गणेश शद सिद्ध होता है। ‘गणानां समूहानां जगतामीशः स गणेशः’ अर्थ= सब गणों नाम संघातों का अर्थात् सब जगतों का ईश स्वामी होने से परमेश्वर का नाम गणेश है।

-सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास

परमेश्वर के अनेक गुणवाचक, कर्मवाचक, सबन्धवाचक नाम हैं। इनमें शिव, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र तथा सरस्वती आदि नाम भी हैं। वेद क्योंकि सृष्टि के प्रथम दिन ईश्वर ने दिए थे, उस दिन इन नामों के शरीरधारी मनुष्य कोई न थे। सामाजिक व्यवहार के लिए मनुष्यों के नाम रखना आवश्यक होता है, अतः वेदों में प्रयुक्त शदों को अपने व अपनी सन्तान के नाम करण हेतु प्रयोग करना पड़ा था। आज भी ऐसा ही होता है। वेद में यदि गणेश व शिवादि की पूजा का आदेश है तो वह सदैव रहने वाले अशरीरी गणेश से ही अभिप्रेत है, न कि बाद में शरीरधारी हुए किसी गणेश नामक व्यक्ति से। परमेश्वर से बड़ा विघ्नहारी कौन होगा? विस्तार से इस विषय को समझने हेतु ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ का प्रथम समुल्लास पढ़ना चाहिए। ‘शिवपुराण’ व अन्य सभी पुराणों को महर्षि दयानन्द जी ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ के तृतीय समुल्लास ‘‘संस्कार विधिः’’ के वेदारभ संस्कार तथा ‘‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’’ के ग्रंथ प्रामान्याप्रमाण्य विषय के अन्तर्गत पठन-पाठन हेतु त्याज्य ग्रंथों में रखा है। फिर लेखक ने आर्य समाजी होते हुए ग्रहण क्यों किया?

-चूना भट्ठियाँ, सिटी सेंटर के निकट, यमुनानगर, हरि.

‘मनुष्यों एवं प्राणियों के जातिभेद ईश्वर व मनुष्यकृत दोनों हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

ईश्वर ने इस संसार को अपने किसी निजी प्रयोजन से नहीं अपितु जीवों के कल्याणार्थ बनाया है। उसी ने सभी प्राणियों को उत्पन्न किया जिससे वह अपने प्रारब्ध अर्थात् पूर्व जन्मों के अवशिष्ट वा अनभुक्त कर्मों के सुख-दुःख रूपी फलों का भोग कर सकें और सद्कर्मों को करके उन्हें भविष्य में कोई दुःख न हो। मनुष्यों का एक उद्देश्य ईश्वर व उसकी कर्म-फल व्यवस्था को जानना भी है। इस व्यवस्था को जानकर और तदनुरूप पुरुषार्थयुक्त आचरण को करके उन्हें दुःखों से छूटने का प्रयत्न करना है। ईश्वर ने सृष्टि बनाने और जीवों को उनके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीर देकर तो सभी मनुष्यों पर कृपा की ही है, इससे भी अधिक कृपा उसने सृष्टि के आरम्भ में जीवन को सुखी बनाने व दुःखों की निवृत्ति के उपाय सुझाने के साथ मोक्ष प्राप्ति की भी शिक्षा व ज्ञान (वेद) दिया है। सृष्टि के हमारे इस ग्रह पृथिवी पर प्राणियों की उत्पत्ति लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 सहस्र वर्ष पूर्व हुई थी। अब से लगभग 5-6 हजार वर्षों तक संसार में सभी लोग वैदिक धर्म की मान्यताओं के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करते थे। किन्हीं कारणों से व्यवस्था में कुछ विकार हुआ जो समय के साथ बढ़ता गया जिसका परिणाम महाभारत का महाविनाशकारी युद्ध हुआ। इसी से सामाजिक व राजैनैतिक सभी व्यवस्थायें कुप्रभावित हुईं। इसके प्रभाव से विगत पांच हजार वर्षों में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक अर्थात् राजधर्म विषयक अनेकों विकृतियां उत्पन्न हुईं जिसका उदाहरण वर्तमान एवं इससे उससे पूर्व का भारत व विश्व का समाज रहा है। इन अनेक बुराईयों में से एक सामाजिक बुराई व विषमता मनुष्यों में जन्मना जातिवाद की है। इस व्यवस्था ने भारत का सर्वाधिक अहित व समाज का पतन किया है। आज भी यह जन्मना जातिवाद विद्यमान है परन्तु आज की परिस्थितियों में इसका पूर्व प्रचलित जटिल रूप काफी शिथिल हुआ है।

 

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने सन् 1863 में वेदों का पुनरुद्धार कर उनका प्रचार किया। वेद धर्म, समाज, राजधर्म व ज्ञान-विज्ञान सहित सभी सत्य विद्याओं के प्राचीनतम स्रोत व ग्रन्थ हैं। वर्तमान का जन्मना जातिवाद भी वेदों के मानने वाले महाभारत के उत्तरकालीन लोगों ने ही प्रचलित किया अथवा परिस्थितियोंवश ऐसा हो गया। अतः इसका निदान करने से पूर्व वेदों में समाज व्यवस्था का क्या स्वरूप है, यह देखना आवश्यक था। महर्षि दयानन्द महाभारत युद्ध के बाद वेदों के ऐसे प्रथम मर्मज्ञ विद्वान हुए हैं जिन्होंने वेदों के सत्य अर्थों को जाना था। उन्हें वेदों में पदे-पदे सत्य और मनुष्य जाति के कल्याण के ऐसे स्वर्णिम सूत्र प्राप्त हुए जिनका पालन न करने से ही संसार में अन्धकार छाया था। उन्होंने संसार से अज्ञान का अन्धकार दूर करने के लिए वेदों के ज्ञान वा शिक्षाओं के प्रचार को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया जिससे इस धराधाम पर रहनेवाली समस्त मानव जाति सुख व सम्मान के साथ अपना जीवन व्यतीत कर सके। उन्होंने वेद सम्मत सामाजिक व्यवस्था का भी अध्ययन किया और उसे अपने उपदेशों, वार्तालाप और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के माध्यम से सबके कल्याणार्थ प्रस्तुत किया। उनके अनुसार वेद सभी मनुष्यों को उनके गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने का अधिकार देते हैं। मनुष्यों के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार चार विभाग किये जा सकते हैं और यह हैं ज्ञान प्रधान, बल प्रधान, वाणिज्य-व्यापार-कृषि-गोपालन के गुण प्रधान और गुणरहित व्यक्तियों का विभाग वा समूह। इनको क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र की संज्ञायें दी गई हैं। सामाजिक व्यवहार हेतु यह विभाग आवश्यक थे। आज भी इनका परिवर्तित रूप न केवल भारत अपितु विश्व भर में प्रचलित है जहां किसी व्यक्ति का महत्व उसके गुणों, कार्यों व स्वभाव से ही होता है। अध्यापक, राजा, सैनिक, पुलिस, डाक्टर, इंजीनियर, ड्राइवर आदि मनुष्य के गुणों व कार्यों का ज्ञान कराते हैं। इसे जाति कहें या न कहें, परन्तु यह चार वर्ण के समान मनुष्य के गुण-कर्म व स्वभाव के बोधक शब्द हैं। देश व समाज में मनुष्यों की रक्षा हेतु राज्याधिकारियों, सेना व पुलिस का अलग वर्ग है, शिक्षक, वैज्ञानिक, चिन्तक, अनेक विषयों के अलग अलग विद्वानों का अलग वर्ग है, भिन्न भिन्न व्यवसायों, कृषकों व पशु पालकों आदि का अलग वर्ग है और इनको सहयोग देने वाले अल्पज्ञानी, अल्प शक्ति वाले व व्यापार में अल्प ज्ञान व अनुभव वालों का अलग वर्ग है। मनुष्यों के यह चार वर्ण क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि व इनके अन्तर्गत भिन्न-भिन्न जातियां ही महाभारतकाल व उसके बाद जन्मना जातिवाद में परिवर्तित हो गये। रामायण व महाभारत इतिहास के प्राचीन प्रमुख ग्रन्थ हैं। इसमें सहस्रों मनुष्यों के नामों का उल्लेख है परन्तु किसी के नाम के साथ कोई वर्ण व जातिसूचक शब्द का प्रयोग देखने को नहीं मिलता जैसा कि आजकल प्रयोग किया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है जन्मना जाति व जातिसूचक शब्दों का प्रयोग व प्रचलन महाभारत काल के बाद विगत 5 हजार वर्षों में हुआ है।

 

वेद सम्मत गुणकर्मस्वभाव पर आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था के विषय में महर्षि दयानन्द जी ने अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में विस्तार से लिखा है। वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था तथा जन्मना जातिवाद दोनों परस्पर एक दूसरे से भिन्न विरोधी हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के एकादश समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने जिज्ञासुओं की ओर से स्वयं प्रश्न प्रस्तुत किया है कि जाति भेद ईश्वरकृत है वा मनुष्यकृत? इसका वेद सम्मत उत्तर उन्होंने यह कहकर दिया है कि जातिभेद ईश्वरकृत और मनुष्यकृत भी हैं। अपने इस उत्तर पर वह स्वयं प्रश्न करते हैं कि कौन से जातिभेद ईश्वरकृत हैं और कौन से मनुष्यकृत हैं? इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, जलजन्तु आदि जातियां परमेश्वरकृत हैं। जैसे पशुओं में गो, अश्व, हस्ति आदि जातियां, वृक्षों में पीपल, वट, आम्र, आदि, पक्षियों में हंस, काक, वकादि, जलजन्तुओं में मत्स्य, मकरादि जातिभेद हैं वैसे ही मनुष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज जातिभेद हैं, यह भेद ईश्वरकृत हैं। परन्तु मनुष्यों में ब्राह्मणादि को सामान्य जाति में नहीं किन्तु सामान्य विशेषात्मक जाति में गिनते हैं। जैसा सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में वर्णाश्रम व्यवस्था के प्रकरण में उन्होंने लिखा है, वैसे ही गुण, कर्म, स्वभाव से वर्णव्यवस्था माननी अवश्य हैं। इसमें मनुष्यकृतत्व उनके गुण, कर्म, स्वभाव से पूर्वोक्तानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि वर्णों की परीक्षापूर्वक व्यवस्था करनी राजा (देश की सरकार) और विद्वानों (विद्यालयों महाविद्यालयों के प्राचार्य आदि) का (सम्मिलित) काम है। इसका तात्पर्य है कि जिसजिस मनुष्य में जैसी जितनी योग्यता हो उसका उसी के अनुसार राजा और विद्वानों द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र वर्ण निर्धारित करना चाहिये और उसी के अनुसार समाज में व्यवहार होना चाहिये। ऐसा होने पर जन्मना जाति व्यवस्था स्वमेव निरर्थक हो जाती है और इससे उत्पन्न सभी प्रकार की सामाजिक विषमतायें दूर होती हैं। महर्षि दयानन्द के यह विचार जन्मना जाति के सर्वथा विपरीत एवं मनुष्यों में सद्गुणों के पोषक तथा विषमतारहित आधुनिक समाज के आधार हैं। महर्षि दयानन्द इसके आगे कहते है। कि भोजन भेद भी ईश्वरकृत और मनुष्यकृत है। जैसे सिंह मांसाहारी और अर्णाभैंसा घासादि का आहार करते हैं यह ईश्वरकृत और मनुष्यों में देश, काल, खाद्यवस्तु भेद से भोजनभेद मनुष्यकृत अर्थात् मनुष्यों द्वारा किए हुए हैं। 

 

महर्षि दयानन्द के इन विचारों से सुस्पष्ट है कि मनुष्यों में वर्तमान समय के अनुरूप जातिभेद वेदसम्मत न होकर उसके सर्वथा विरुद्ध हैं। अतः जातिसूचक शब्दों का जो प्रयोग किया जाता है वह अनुचित व अनावश्यक है। हां, मनुष्यों में गोत्र का प्रचलन ज्ञान-विज्ञान से पुष्ट है। यह मनुष्यों के विवाह आदि में लाभदायक होता है जिससे सन्तानों में बुद्धि व बल पराक्रम आदि नाना गुण उत्तम होते हैं। वर्तमान आधुनिक समय में जन्मना जाति व्यवस्था कुछ कमजोर अवश्य हुई है। आर्यसमाज की स्थापना व इसके द्वारा वेदों के प्रचार की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है जिसने जन्मना जातिवाद के विरुद्ध वैचारिक आन्दोलन किया। आज समाज में जाति-व्यवस्था की अन्धविश्वासयुक्त मान्यताओं के विपरीत अन्तर्जातीय व प्रेम विवाह आदि हो रहे हैं जिससे लगता है कि कुछ पीढि़यों के बाद यह समाप्त होकर इतिहास की वस्तु बन जायेगी। आर्यसमाज में सभी जन्मना जातियों के लोग हैं। इसका पुरोहित वर्ग भी वर्तमान की सभी जन्मना जातियों से युक्त है। आर्यसमाज ने ब्राह्मणों सहित क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र मानी जाने वाली जातियों के बच्चों को अपने गुरुकुलों में पूरी समानता प्रदान कर अध्ययन कराया जो बड़े-बड़े वैदिक विद्वान, पण्डित व संस्कृत भाषी बने हैं व अब भी बड़ी संख्या में देश भर में विद्यमान हैं। यह आर्यसमाज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रान्ति थी। यह भी लिख दें कि जो व्यक्ति आर्यसमाज का सदस्य बनता है वह वेदानुसार व गुण-कर्म-स्वभावानुसार ब्राह्मण ही होता है। ऐसा इसलिए कि उसे सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञ करना होता है। यज्ञ करना व कराना, अध्ययन करना व कराना तथा दान देना व लेना, यह तीन कार्य ब्राह्मणों के मुख्य होते हैं। यह सभी कार्य आर्यसमाज के सभी सदस्य व अनुयायियों के किए जाने से आर्यसमाज के सभी अनुयायी कर्मणा वैदिक ब्राह्मण होते हैं।

 

मनुष्य जाति पशु-पक्षियों के समान ईश्वरकृत जाति है। इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि भेद राजा व विद्वानों द्वारा गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार किये जाते हैं। आज के समाज व आधुनिक व्यवस्था में न केवल भारत अपितु समस्त संसार में यह भेद दृष्टिगोचर हो रहे हैं जो नितान्त आवश्यक भी है। महर्षि दयानन्द के अनुसार जातिसूचक शब्दों का प्रयोग पूर्णतया अवैदिक है जो सामाजिक विषमता को जन्म देता है। महर्षि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ थे। उनके समान व उनसे अधिक वेदों का ज्ञाता महाभारत काल के बाद उत्पन्न नहीं हुआ। अतः वेदों की व्यवस्था की दृष्टि से महर्षि दयानन्द की बातें, मान्यतायें एवं सिद्धान्त न केवल प्रमाणित ही हैं अपितु वह देश, समाज सहित समूचे विश्व के लिए हितकारी में भी है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘‘ईश्वर की सिद्धि में प्रत्याक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं है’’ – की समीक्षा – डॉ. कृष्णपालसिंह

[वर्ष 2013 में ऋषि – मेले के अवसर पर आयोजित वेद-गोष्ठी में प्रस्तुत एवं पुरस्कृत यह शोध लेख पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।]                                           -सपादक

त्रद्धि जैन सिद्धान्त एक ही है पृथक् नहींःमहर्षि दयानन्द ने सर्वदर्शनसंग्रह, राजाशिव प्रसाद कृत ‘इतिहास तिमिरनाशक’ ग्रन्थ के आधार पर बौद्ध और जैन मतावलबियों को एक ही माना है। चाहे बौद्ध कहो, चाहे जैन कहो एक ही बात है। एतद्विषयक कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत हैं। राजा शिवप्रसाद जो जैन मत के अनुयायी और महर्षि के घोर विरोधी थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘इतिहासतिमिरनाशक’ में लिखा है, कि इनके दो नाम हैं, एक जैन और दूसरा बौद्ध। ये पर्यायवाची शब्द हैं। परन्तु बौद्धों में वाममार्गी मद्यमांसाहारी बौद्ध हैं उनके साथ जैनियों का विरोध है परन्तु जो महावीर और गौतमगण धर हैं उनका नाम बौद्धों ने बुद्ध रखा है और जो जैनियों ने गणधर और ‘जिनवर’ इसमें इनकी परपरा जैन मत है।1 इसी ग्रन्थ के तृतीय भाग में राजा शिवप्रसाद ने लिखा है कि स्वामी शंकाराचार्य से पहले जिनको हुए कुल एक हजार वर्ष के लगभग गुजरे हैं सारे भारतवर्ष में बौद्धों अथवा जैन मत (धर्म) फैला हुआ था, इस पर नोटः- बौद्ध कहने से हमारा आशय उस मत से है जो महावीर के गणधर गौतम स्वामी के समय से शंकर स्वामी के समय तक वेदविरुद्ध सारे भारत वर्ष में फैल रहा था और जिसको अशोक सप्रति महाराज ने माना उससे जैन बाहर किसी तरह नहीं निकल सकते। ‘जिन’ जिससे जैन निकला और बुद्ध जिससे बौद्ध निकला दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, कोश में दोनों का अर्थ एक ही लिखा  है और गौतम को दोनों ही मानते हैं, वर्ना दीपवंश इत्यादि पुराने बौद्ध ग्रन्थों में शाक्य मुनि गौतम बुद्ध को अक्सर महावीर ही के नाम से लिखा है। उनके समय में एक उनका मत रहा होगा। हमने जो जैन न लिखकर गौतम के मत वालों को बुद्ध लिखा उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि उनको दूसरे देशवालों ने बौद्ध ही के नाम से लिखा है।2 अमरकोश कार अमरसिंह ने भी अपने ग्रन्थ में ऐसा ही लिखा है।

सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो धर्मराजस्तथागतः।

समन्तभद्रो भगवान।।3

स्वामी वेदानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के 12वें समुल्लास के ऊपर एक टिप्पणी में लिखा है कि ‘वैदिक धर्म के विरोध में उठे ये सप्रदाय मनुष्यों को ईश्वर मानने के कारण एक हैं। बौद्धों ने परमेश्वर की सत्ता को अस्वीकार तो किया किन्तु उसके स्थान में बुद्ध को लोकनाथ (परमेश्वर) तथा सर्वज्ञ मानकर उसकी उपासना आराधना करने लगे। जैन भी ईश्वर को न मान ऋषभदेव आदि 24 तीर्थकंरों को सर्वज्ञ मान कर उनकी पूजा अर्चना करते हैं। यतः बुद्ध तथा जिन वर्तमान में जब इनको उपास्य मानने की भावना का उदय हुआ प्रत्यक्ष नहीं है, अतः उनकी मूर्ति बनाकर पूजा प्रचलित हुई।’

ईश्वर को मानने वाले जो-जो गुण ईश्वर में मानते हैं, उन-उन सबका आरोप जैन, बौद्धों ने अपने सादि आराध्यों में किया। दोनों ने अपने -अपने आराध्यों को समन्तभद्र, अर्थात् सब प्रकार से निर्दोष कहा है किन्तु बुद्ध तथा महावीर रोगाक्रान्त हुए। रोगाक्रान्त दोष का भूल का फल है। अतः जहाँ उनके ‘समन्तभद्र’ पने का निरास होता है, वहाँ उनके सर्वज्ञ होने का भी खण्डन हो जाता है।4 ……..स्वामी वेदानन्द जी ने ब्र. शीतलप्रसाद जैन जो दिगबर जैन सप्रदाय के लध प्रतिष्ठित विद्वान् हैं उनकी ‘जैन बौद्धतत्वज्ञान’ नामक पुस्तक के अनेक उदाहरण देते हुए लिखा है कि जहाँ तक मैंने बौद्धों व निर्वाण और निर्वाण के मार्ग का अनुभव करके विचार किया तो उसका बिल्कुल मेलान जैनियों के निर्वाण और निर्वाण के मार्ग से हो जाता है…..हमें तो ऐसा अनुमान होता है कि जैसे जैनों में एक सिद्धान्त मानते हुए भी दिगबर व श्वेताबर दो भेद पड़ गये उसी तरह श्री महावीर स्वामी के समय में ही वस्त्र सहित साधु चर्या स्थापित करने से बौद्ध संघ जैन संघ से पृथक् होगया।………हमारी राय में जैन व बौद्ध में कुछ भी अन्तर नहीं है।5 चाहे बौद्ध धर्म प्राचीन कहें या जैन धर्म प्राचीन कहें एकही बात है।……गौतम बुद्ध ने साधु मात्र की चर्या सुगम की, सिद्धान्त वही रखा।…….इस तरह जैन तत्व ज्ञान में समानता है।6

उपर्युक्त दीर्घ चर्चा करने का हमारा उद्देश्य इतना ही है कि ये दोनों सप्रदाय एक ही हैं, भिन्न नहीं। अतः चाहे बौद्ध कहो या चाहे जैन कहो कोई भेद नहीं है। इन्होंने प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति तथा अनुपलधि रूप छः (6) प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की असिद्धि करने का यत्न किया। परन्तु आचार्य उदयन ने स्वरचित न्यायकुसुमाञ्जलि के तृतीय स्तवक में इनके विचारों का प्रबल प्रत्ययान किया है। आचार्य विश्वेश्वर ने उक्त ग्रन्थ की टीका स्पष्ट एवं अति सरल संक्षिप्त रूप में की है। इस लेा में उनके विचारों का पुष्कल मात्रा में उपयोग किया गया है। महर्षि दयानन्द ने भी 12 वें समुल्लास में इनके विचारों तथा इनके सिद्धान्त, ग्रन्थों का उद्धरहण देते हुए सटीक समीक्षा की है। उन्होंने लिखा है कि ‘जिसलिये हम इस समय परमेश्वर को नहीं देखते इसलिये कोई सर्वज्ञ अनादि परमेश्वर प्रत्यक्ष नहीं है, जब ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं तो अनुमान भी नहीं घट सकता, क्योंकि एकदेश प्रत्यक्ष के बिना अनुमान नहीं हो सकता।जब प्रत्यक्ष, अनुमान नहीं तो आगम अर्थात् नित्य अनादि सर्वज्ञ परमात्मा का बोधक शब्द प्रमाण भी नहीं हो सकता। जब तीनों प्रमाण नहीं तो अर्थवाद अर्थात् स्तुति -निन्दा-परकृति अर्थात् पराये चरित्र का वर्णन और पुराकल्प अर्थात् इतिहास का तात्पर्य भी नहीं घट सकता। और अन्यार्थ प्रधान अर्थात् बहुब्रीहि समास के तुल्य परोक्ष परमात्मा की सिद्धि का विधान नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर के उपदेष्टाओं से सुने बिना अनुवाद भी कैसे हो सकता है।’7

सत्यार्थ प्रकाश के उपर्युक्त सर्न्दा में छः (6) प्रमाणों द्वारा ईश्वर की सत्ता का निषेध किया गया है। महर्षि ने उसका समाधान उसी दार्शनिक परिपेक्ष में किया है। परन्तु हम यहाँ पर न्यायकुसुमाञ्जलि के तृतीय स्तवक के आधार पर समीक्षा करने का प्रयास करेंगे।

ईश्वर की अभावसिद्धि में अनुपलधि की समीक्षाः

इहभूतले घटाभाव वदीश्वर स्याप्यनुपलधेः अभावस्य ग्रहात्।8

अर्थात् इस भूतल में घटाभाव के समान ईश्वर की अनुपलधि से उसका भी अभाव ग्रहण होने से ईश्वर नहीं है। तात्पर्य यह है कि भूतल में घटाभाव जैसे अनुपलधि से सिद्ध होता है वैसे ही ईश्वर के प्रत्यक्ष न होने से उसका भी अनुपलधि से आाव ग्रहण नहीं होता तो प्रत्यक्ष के अयोग्य ‘शशशृण्ङ्ग का भी अभाव सिद्ध नहीं होगा।3 इस पूर्वपक्ष के समाधान में आचार्य उदयन का कहना है कि ‘प्रत्यक्ष के अयोग्य परमात्मा में योग्यनुपलधि कहाँ घटता है? जिससे ईश्वर का अभाव सिद्ध हो। और जो अनुपलधि पाई जाती है वह केवल अनुलधि रूप से अभाव साधिका नहीं है अन्यथा बौद्धाभिमत आकाश, धर्माधर्म आदि अप्रत्यक्ष पदार्थों का भी लोप हो जायेगा। अतः अनुपलधि मात्र से ईश्वर का अभाव सिद्ध नहीं होता है। और आपने जो यह कहा है कि योग्यानुपलधि को अभाव साधिका का मानने पर प्रत्यक्ष के अयोग्य होने से शशशृङ्ग का अभाव अनुपलधि से सिद्ध नहीं होगा । आपका यह प्रतिबन्ध भी कहाँ बनता है? क्योंकि प्रत्यक्ष के अयोग्य (शश) श्रृङ्ग का बाघ हम कहाँ करते हैं, हम तो शृङ्ग में शशीयत्व, शशसबन्ध का निषेध करते हैं, शशशृङ्ग नामक पदार्थ का निषेध नहीं करते हैं। श्रृङ्ग प्रत्यक्ष के योग्य ही है।9

अभिप्राय यह है कि अनुपलधि अभाव साधिका नहीं है अपितु प्रत्यक्ष योग्यानुपलधि अर्थात् प्रत्यक्ष योग्य पदार्थ की अनुपलधि उसकी अभाव साधिका है। यहाँ यह भी जानना चाहिये कि केवल अनुपलधि को यदि अभाव साधिका मान लिया जायेगा तब तो बौद्धाभिमत आकाश धर्माधर्म आदि पदार्थ भी दिखाई न देने के कारण अनुपलधि मात्र से अभाव सिद्ध हो जायेगा। परन्तु बौद्ध इन पदार्थों की सत्ता मानते हैं। इस कारण अनुपलधिमात्र को अभाव साधिका नहीं माना जा सकता अपितु योग्यानुपलधि ही अभाव साधिका है।

‘प्रत्यक्षयोग्य परमात्मा में योग्यानुपलधि कहाँ है, वही बाधिका है और जो केवल अनुपलधि मात्र पाई जाती है, वह अभाव साधिका मान लिया जाय तो बौद्धाभिमत आकाश, धर्माधर्म आदि का विलोप हो जायेगा।’

आकाशादि अप्रत्यक्ष अर्थों का भी अभाव मानना होगा, जो बौद्ध को अभिमत नहीं है। योग्यानुपलधि को अभाव साधक मानने में शशशृङ्ग का भी अभाव सिद्ध नहीं होगा यह जो प्रतिबन्ध दिया है उसका भाव अगर यह है कि हम प्रत्यक्ष के अयोग्य शशशृङ्गनामक किसी पदार्थ का निषेध नहीं करते हैं अपितु शशरूप आधार में प्रत्यक्ष योग्य शृङ्ग के संयोग सबन्ध का निषेध करते हैं। शृङ्ग तो प्रत्यक्ष के योग्य ही है इसलिये प्रतिबन्ध नहीं बन सकता।  अयोग्य शृङ्ग का निषेध नहीं करते हैं। तब उसकी सत्ता सिद्ध हो जायेगी यह शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसके विषय में साधक प्रभावों का अभाव ही है। इसलिये अनुपलधि ईश्वर के अभाव को सिद्ध नहीं करता। इस पर बौद्ध ने ईश्वर के अभाव सिद्धि के लिये एक अन्य अनुमान प्राप्त किया कि ‘ईश्वरः न क्षित्यादिकर्त्ता शरीर सबन्ध भावात प्रयोजना भावात च’10अर्थात् ईश्वर क्षित्यादिका न कर्त्ता हैं क्योंकि शरीर सबन्ध का अभाव होने से प्रयोजन के न होने के कारण। इस अनुमान वाक्य का अभिप्राय यह है कि परमात्मा के प्रत्यक्ष योग्य होने से उसके क्षिति कर्तृत्वादि कर्म भी प्रत्यक्ष के अयोग्य हैं। यहाँ जो अनुमान प्रयुक्त किया गया है उसका आधार शरीर सबन्ध और प्रयोजन ये दो कर्तव्य के व्यापक धर्म हैं।

‘यत्र यत्र कर्तृत्व तत्र तत्र शरीर सबन्धःप्रयोजन च’11 अर्थात् जहाँ जहाँ कर्त्ता होता है वहाँ वहाँ शरीर युक्त अवश्य होता है। और उस कार्य के करने में उसका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। परन्तु ईश्वर न शरीरी है और न ही सृष्टि के निर्माण में उसका अपना कोई स्वार्थ अथवा कारुण्यरूप प्रयोजन ही है। यदि उसका कोई स्वार्थ है तो वह पूर्ण काम नहीं रहेगा। अन्य आत्माओं के उद्धार की कारुण्य भावना इसलिये नहीं बनती है कि दुःखी प्राणी को देखने के बाद ही करुणा हो सकती है, उसके पूर्व नहीं। दुःख संसार काल में ही हो सकता है अतएवं करुणा भी संसार काल में ही हो सकती है, सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व नहीं।12इसलिए सृष्टि निर्माण में उसका कोई प्रयोजन भी नहीं है और शरीर सबन्ध भी नहीं है। अतः ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं हो सकता यह बौद्धों का पक्ष है।

इस पर नैयायिक आचार्य उदयन का कहना है कि बौद्धों ने जो अनुमान दिया है जिसे हम पहले भी दिखा चुके हैं विषय स्पष्टीकरणार्थ पुनः प्रस्तुत करने में कोई आपत्ति नहीं है-

ईश्वरः न क्षित्यादिकर्त्ता शरीरसबन्धावात् प्रयोजनाभावात् च।13

इस अनुमान वाक्य में ईश्वर पक्ष या आश्रय है, जब वही सिद्ध नहीं है तो यह हेतु ‘आश्रयासिद्ध हेत्वामास’ होने से साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता है।14

आश्रयासिद्ध हेत्वाभासः इस हैत्वाभास को समझाने के लिये हेत्वाभास पद का अर्थ जानना भी आवश्यक है। ‘हेतुवद् आभासते इति हेत्वाभासः’ जो हेतु के समान भासित होता है वस्तुतः दोषयुक्त होने के कारण हेतु नहीं होता उसे हेत्वाभास कहते हैं। प्रकृत हेत्वाभास असिद्ध हेत्वाभास का एक वर्ग है। यह तीन प्रकार का होता है। (1) आश्रय सिद्ध (2) स्वरूपासिद्ध (3) व्याप्यत्वासिद्ध। प्रकृत स्थल पर आश्रयसिद्ध हेत्वाभास की ही चर्चा करेगें क्योंकि पूर्व पक्ष ने जो अनुमान दिया है वह आश्रयासिद्ध हेत्वाभास के अर्न्तगत आता है। इस का लक्षण है ‘आश्रयासिद्धो यथा, गगतारविन्दं सुरभिः अरविन्दत्वात् सरोजारविन्दवत्। अत्र गगनारविन्दं आश्रय सच नास्त्येव।15

जैसे आकाश कमल सुगन्धित होता है। यह प्रतिज्ञा क्योंकि वह कमल अथवा उसमें कमलत्व है (यह हेतु) सरोज में उत्पन्न कमल के समान (उदाहरण) यहाँ आकाश कमल आश्रय है वह होता ही नहीं है। बौद्धों ने जो अनुमान वाक्य दिया उसमें ईश्वर पक्ष या आश्रय हैं, जब वही सिद्ध नहीं है, इसलिये यह हेतु आश्रयासिद्ध हेतवाभास होने से साध्य को सिद्ध नही कर सकता है और यदि आश्रय सिद्धि से बचने के लिए ईश्वर की सत्ता मान लें तो जिस प्रमाण से उसकी सत्ता मानेंगे उसी धार्मिक ग्राहक प्रमाण से उसका क्षित्यादि कर्तव्य भी सिद्ध हो जायेगा। उस स्थिति में यह हेतु बाधित विषयत्व हेत्वाभास हो जायेगा। अतः एव दोनों प्रकार के हेत्वाभास होने से शरीर सबन्ध भावात् हेतु ईश्वर के अभाव का साधक नहीं हो सकता है।16

मिथ्याज्ञानवश ईश्वर की मान्यताः अब बौद्ध यह कहते हैं कि कुछ लोग मिथ्या ज्ञानवश ईश्वर को मानते हैं, उसका यह मिथ्याज्ञान, या भ्रम या असत्याति कहलाता है। इस असत्याति से ईश्वरवाद जिस परमात्मा को मानते हैं, उनको पक्ष बनाकर ‘ईश्वरः न क्षित्यादिकर्त्ता शरीर सबन्धाभावात् प्रयोजनाभावात् च’ यह अनुमान प्रस्तुत करते हैं अथवा ‘ईश्वरो नास्ति शरीरसबन्धाभावात् प्रयोजनाभावात्च’17यह अनुमान किया जा सकता है।

इसके समाधान में आचार्य उदयन का कहना है कि पहले अनुमान वाक्य में ईश्वर के कर्तव्य का अभाव सिद्ध किया जा रहा है। (क्षित्यादिकर्तृत्वाभाववानीश्वरः) उसमें ईश्वर विशेष्य और क्षित्यादि कर्तृत्वाभाव उसका विशेषण है। जबकि दूसरे अनुमान में ‘ईश्वर नास्ति’ में ईश्वर का अभाव प्रदर्शित किया जा रहा है। ‘यस्याभाव स तस्य प्रतियोगी इति नियमात्’ इस नियम के अनुसार जिसका अभाव होता है वह उस अभाव का प्रतियोगी कहलाता है। अतः ईश्वर अभाव का प्रतियोगी है, ‘विशेषता’ और ‘प्रतियोगिता’ दोनों ऐसे धर्म है जो किसी यथार्थ वस्तु में ही रह सकते हैं, मिथ्या या असत्याति से सिद्ध वस्तु में नहीं रह सकते क्योंकि विश्ेाष्यता का अर्थ वियोषणाश्रयता है, यह आश्रयता अभाव पदार्थ में नहीं रह सकती है और प्रतियोगिता अभाव विरोधी भावरूप ही होती है। अतः एवं प्रतियोगिता भी वस्तु में ही रह सकती है। इसलिये असत्याति से उपनीत ईश्वर न तो विशेष्य हो सकत है और न ही प्रतियोगी । अतः ईश्वर के अभाव साधक दोनों अनुमान नहीं बन सकते।18

योग्यानुपलधि ही अभावसाधिका है अनुपलधिमात्र नहींःजैसा कि हम यह बात पहले भी कह चुके हैं कि योग्यानुपलधि को अभाव साधिकमान से शशशृङ्ग का भी अभाव सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह प्रत्यक्ष के योग्य नहीं है, यह प्रतिबन्धक कहा गया है। यह पूर्वपक्ष का विचार है। अब सिद्धान्त पक्ष का इस विषय में यह कहना है कि हम अयोग्य शशशृङ्ग का अभाव सिद्ध नहीं करते हैं अपितु प्रत्यक्षयोग्य शृङ्ग का शश के साथ सबन्ध का निरास करते हैं, और शशशृङ्ग का निषेध न करने से उसका भाव सिद्ध नही हो सकता है क्योंकि उसका साधक कोई प्रमाण है ही नहीं। यदि आप शशशृङ्ग भी प्रत्यक्ष के योग्य है, और उसकी अनुपर्त्गव्ध योग्यानुपलधि ही है। अब यह प्रश्न उठता है कि यदि शशशृङ्ग प्रत्यक्ष के योग्य है तो उसका प्रत्यक्ष भी होना चाहिए, पर प्रत्यक्ष होता नहीं है। इस आशंका का समाधान करते हुए आचार्य उदयन का कहना है कि हाँ- जब उसके प्रत्यक्ष की सामग्री होगी तब उसका प्रत्यक्ष अवश्य होगा और यदि प्रत्यक्ष नहीं होता है तो यह मानना होगा कि उसके  प्रत्यक्ष की सामग्री ही नहीं है। शशशृङ्ग के प्रत्यक्ष की सामग्री दोषयुक्त इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष आदि हैं। जैसे पीलिया रोग के रोगी को (पीतः शङ्ख) की प्रतीति होती है। यहाँ इस प्रतीति में पित्तादि दोषयुक्त नेत्र कारण होते हैं। एवमेव शशश्रृङ्ग के प्रत्यक्ष में भी दुष्ट अर्थात् दोष धरित  प्रत्यक्ष, सामग्री होगी और उस सामग्री के होने पर शशशृङ्ग कााी प्रत्यक्ष हो सकता है। इसलिये शशशृङ्ग भी प्रत्यक्ष के योग्य हैं उसका अभाव योग्यानुपलधि से सिद्ध हो सकता है।19इस समीक्षा का निष्कर्ष यह है कि योग्यानुपलधि ही अभाव साधिका है, अनुपलधिमात्र नहीं।

आत्मा को पक्ष बनाकर बौद्धानुमान ईहाःइसके बाद अब बौद्ध आत्मा को पक्ष बनाकर अनुमान प्रस्तुत करने की ईहा  (चेष्टा) करता है कि ‘आत्मा न सर्वज्ञः आत्मत्वात्’ अथवा ‘आत्मा नक्षित्यादि कर्त्ता आत्मवात् अस्मदादिवत्’21 यह अनुमान प्रतिपादित किया है। इस अनुमान विषय पर आचार्य उदयन का कहना है कि पूर्व पक्षी बौद्ध किस आत्मा को पक्ष बनाकर यह अनुमान प्रदर्शित किया है। प्रसिद्ध आत्मा को अर्थात् जीवात्मा को अथवा अप्रसिद्धात्मा अर्थात् परमात्मा को यदि जीवात्मा को पक्ष बनाया गया है तो सिद्ध साधन या इष्टसिद्धि है, क्योंकि हम भी जीवात्मा को सर्वज्ञ या क्षित्यादि का कर्त्ता नहीं मानते हैं। और यदि अप्रसिद्ध आत्मा अर्थात् परमात्मा को पक्ष बनाया गया है तो उसके सिद्ध न होने से आश्रृ या सिद्धि हेत्वाभास तो पूर्ववत् है ही उसके अतिरिक्त ‘हेत्वसिद्धि अर्थात् स्वरूपासिद्धि भी हो जायेगी। पक्ष वृत्तिहोन हेतु का ज्ञान अनुमान का प्रयोजक होता है वह यहाँ पक्ष के न होने से पक्षवृत्तित्व विशिष्ट हेतु का ज्ञान भी अभाव होने से हेतु सिद्धि भी होगी।22

एवमेव बौद्धों द्वारा ईश्वर के निरासार्थ अनेक प्रमाणों, अनुमानों का प्रयोग किया गया परन्तु उन सभी अनुमानों में आश्रय सिद्धि या स्वरूपा सिद्धि हो जाने से अभीष्ट सिद्धि न हो पाई है। आचार्य उदयन ने यह सिद्ध किया कि अनुपलधि तथा अनुमान इन दोनों प्रमाणों से ईश्वर  का अभाव सिद्ध करने का प्रयास उनका असफल रहा क्योंकि अनुपलधि का अभाव सही मानने में तो आकाश, धर्माधर्मादि का भी विलोम हो जाता है जो बौद्ध को मान्य नहीं है। ये नित्य आत्मा तथा ईश्वर की सत्ता को तो नहीं मानते परन्तु आकाश, धर्माधर्मादि का अस्तित्व मानते हैं। इसलिये अनुपलधि को अभाव साधिका मानने से तो उक्त पदार्थों का निषेध होने लग जाता है तो बौद्धायभीत हो उठता है। इसी प्रकार अनुपलधि को अभाव साधिका मान लेने पर अनुमान प्रमाण का कोई उपयोग नहीं रहता है और उसके अनुमान का भी लोप हो जाता है, यह भी बौद्ध को अभीष्ट नहीं है क्योंकि बौद्ध प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनुमानादि प्रमाण को मानता ही नहीं है। और जब आकाश, धर्माधर्मादि और अनुमान के लोप का अवसर आता है तब वह चुप हो जाता है फलस्वरूप वह अनुपलधि को अभाव साधिका भी नहीं मान सकता है। वस्तुतः यह उसके सिद्धान्त की बहुत बड़ी कमजोरी है इस कारण वह ईश्वर का अभाव सिद्ध करने में असमर्थ रहा है।

प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर सिद्धिः महर्षि दयानन्द प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर की सिद्धि करना अभीष्ट मानते हैं। वह यह जानते थे कि चार्वाक, जैन बौद्धादि नास्तिक मतानुयायी ईश्वर विषय में ईश्वर प्रत्यक्ष दिखाने पर बल देते हैं। परन्तु प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है। 1. बाह्य प्रत्यक्ष 2. आयन्तर प्रत्यक्ष प्रथम कोटि का प्रत्यक्ष चक्षुरादि इन्द्रिय जन्य होता है जो ईश्वर में नहीं घटता है क्योंकि ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म होने के कारण चक्षुरादि स्थूल इन्द्रियों का विषय नहीं है। दूसरा अयन्तर प्रत्यक्ष है जो आत्मा द्वारा ही परमात्मा का साक्षात्कारात्मक ज्ञान प्राप्त करता है। जैसा कि प्राचीन ऋषियों ने आत्मा के द्वारा आत्मा (परमात्मा) को प्रत्यक्ष किया। इसलिये महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम पृष्ठ पर लिखा ‘नमो ब्राह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मवदिष्यामि’23

सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास जिसमें ईश्वर विषय तथा वेद विषय का निरूपरण किया है। इसमें ही ईश्वर सिद्धि के विषय में पूर्व प्रश्न उठाते हुए लिखा है कि ‘आप ईश्वर ईश्वर कहते हो उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो? (उत्तर) सब प्रत्यक्षादिप्रमाणों से (पूर्व) ईश्वर में प्रत्यक्षादिप्रमाण कभी नहीं घट सकते (उत्तर) इन्द्रियान सन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानं अव्ययदेश्यं अव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।’ यह गौतम महर्षि कृत न्याय दर्शन (1/1/4) का सूत्र है। जो श्रोत्रत्व चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्य और असत्य विषयों के साथ सबन्ध होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नहीं । जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का ज्ञान होने से गुणी पृथिवी उसका आत्मयुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है वैसे इस प्रत्यक्ष के होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता है वा चोरी आदि बुरी व परोपकार आदि अच्छी बाते करने में जिस क्षण में आरभ करता है उस समय जीव की इच्छा ज्ञान आदि उसी इच्छित विषय पर झुक जाती है, उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने  में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे काम करने में आय, निःशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है। और जब जीवात्मा शुद्ध हो के परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देखकर कारण का अनुमान होता है। (पूर्व.) ईश्वर व्यापक है वा किसी देश विशेष में रहता है? (उत्तर) व्यापक है, क्योंकि जो एक देश में रहता तो सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता सबका स्रष्टा, सबका धर्त्ता और प्रलय कर्त्ता नहीं हो सकता, अप्राप्तदेश में कर्त्ता की क्रिया का असभव है।24

उपदेश मंजरी के प्रथम उपदेश में ही ईश्वर सिद्धि का विषय है। यहाँ पर महर्षि ने कहा कि प्रथम हमें ईश्वर की सिद्धि करनी चाहिए उसके पश्चात् धर्मप्रान्ध का वर्णन करना योग्य है क्योंकि ‘सति कुडये चित्रम्’ इस न्याय से जब तक ईश्वर की सिद्धि नहीं हो जाती  तब तक धर्म व्यायान करने का अवकाश नहीं।25

क्या उपासनार्थ उपास्य के आकार की आवश्यकता है?ः-

भक्त लोग प्रायः यह कहा करते हैं कि परमेश्वर की उपासना करने के लिए उसके आकार की आवश्यकता महसूस होती है। ‘इसी प्रकार भक्तों को उपासना करने के लिये ईश्वर का कुछ आकार होना चाहिए, परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीरस्थ जो जीव है, वह भी आकार रहित है, यह सब कोई मानते हैं अर्थात् वैसा आकार न होते भी हम परस्पर एक दूसरे को पहचानते हैं, प्रत्यक्ष कभी न देखते हुए भी केवल गुणानुवादों ही से सद्भावना और पूज्यबुद्धि मनुष्यादि के विषय में रखते हैं। उसी प्रकार ईश्वर के सबन्ध में नहीं हो सकता, यह कहना ठीक नहीं है। इसके सिवाय मन का आकार नहीं है मन के द्वारा परमेश्वर ग्राह्य है, उसे जड़ इन्द्रिय ग्राह्यता लगाना यह अप्रयोजक है।’26 प्रमाण बहुत प्रकार के हैं यथा-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द…….परन्तु सब शास्त्रकार अपने शास्त्र के उपयोगी प्रमाण को मानते हैं। ‘सारे प्रमाणों का अन्तर्भाव करके तीन प्रमाण अपशिष्ट रहते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। प्रत्यक्ष भी सविकल्प और निर्विकल्प होता है। अनुमान तीन प्रकार का होता है- पूर्ववत् शेषवत् और सामान्यतो दृष्ट। इन तीन प्रकार के प्रमाणों की व्यापिका ईश्वर सिद्धि विषयक प्रयत्न करते समय प्रत्यक्ष की व्यापिका (विचार) करने से पूर्व अनुमान की लापिका करनी चाहिये क्योंकि प्रत्यक्ष का ज्ञान बहुत संकुचित और शुद्र है’………इससे प्रत्यक्ष को एक ओर रखकर शास्त्रीय विषयों में अनुमान प्रमाण ही विशेष गिना गया है। व्यवहार के लिये अनुमान आवश्यक है। अनुमान के बिना भविष्य के व्यवहारों के विषय में हमारा  जो दृढ़ निश्चय रहता है, वह निरर्थक होगा। कल सूर्य उदय होगा यह प्रत्यक्ष नहीं है तथापि इस विषय में किसी के मन में तिलमात्र की भी शंका नहीं होती।27

अनुमान और प्रत्यक्ष से ईश्वर सिद्धिः ‘तीन प्रकार के अनुमान की लापिक करने से ईश्वर= परमपुरुष= सनातन ब्रह्म सब पदार्थों का बीज है, ऐसा सिद्ध होता है। रचना रूपी कार्य दिखता है, इससे अनुमान होता है कि इस सृष्टि को रचने वाला अवश्य कोई है। पंच महाभूतों की सृष्टि आप ही आप रची हुई नहीं है, क्योंकि व्यवहार में घर का सामान विद्यमान होने ही से केवल घर नहीं बन जाता, यह हमारा देाा हुआ अनुभव सर्वत्र है। साथ ही साथ पंच महाभूतों का मिश्रण नियमित प्रमाण से विशिष्ट उत्पन्न होने की ही सुगमता  के लिए कभी भी आप स्वयं घटित नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि सृष्टि की व्यवस्था जो हम देखते हैं, उसका उत्पादक और नियंता ऐसा कोई श्रेष्ठ पुरुष अवश्य होना चाहिये।’28

‘अब किसी को यह अपेक्षा लगे कि ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण होना चाहिए, उसका विचार यूँ है कि प्रत्यक्ष रीति से गुण का ज्ञान होता है। गुण का अधिकरण जो गुणी द्रव्य है उसका ज्ञान प्रत्यक्ष रीति से नही होता। इसी प्रकार ईश्वर सबन्धी गुण का अधिकरण जो ईश्वर है उसका ज्ञान होता है, ऐसा समझना चाहिए।’29 ‘हिरण्य र्गाः’ इस मन्त्र को प्रस्तुत करके लिखा है कि हिरण्यर्गा का अर्थ शालिग्राम की वटिया नहीं है, किन्तु हिरण्य अर्थात् ‘ज्योति जिसके उदर में है, वह ज्योति स्वरूप परमात्मा ऐसा अर्थ है।’

यत्र नान्यत् पश्यति नान्यत् शृणोति नान्यत्विजानाति स भूमा

यत्र अन्यत् पश्यति अयत् शृणोति, अन्यत् विजानति तत् अल्पभ। 

यो वैभूमा तदमृतमथ यदलयं तन्मर्त्यं स भगवः कस्मिन्

प्रतिष्ठितः इति स्वे महिति यदिवा न महिम्रीति।30

जब उपासक अन्य वस्तुओं को जानता नहीं। वह भूमा है। और जब उपासक अन्य वस्तु को देखता है। अन्य वस्तु को सुनता है। अन्य वस्तु को जानता है। वह अल्प है। जो भूमा है वही अमृत है। जो अल्प है वही मर्त्य मरण योग्य है। नारद- वह भूमा किसमें प्रतिष्ठित है? सनत्कुमार-निज महिमा में यह प्रतिष्ठित है।

एतदालबनं श्रेष्ठ एतदालंवनं परम्।

एतदालंवनं ज्ञात्वा स ब्रह्म लेके महीयते।।

टिप्पणियाँ

  1. सत्यार्थप्रकाश, पृ. 383
  2. सत्यार्थप्रकाश, पृ. 383-384
  3. अमरकोश 118
  4. सत्यार्थप्रकाश, 12वाँ समु., पृ. 384 पर स्वामी वेदानन्द की टिप्पणी
  5. वही देखें, पृ. 384
  6. वही देखें, पृ. 384
  7. न्याय कुसुमांजलि, तृतीयस्तबक, पृ. 101
  8. वही देखें, पृ. 101
  9. न्याय कुसुमांजलि, पृ. 101
  10. वही देखें, पृ. 103
  11. वही देखें, पृ. 102
  12. वही देखें, पृ. 102
  13. वही देखें, पृ. 103
  14. वही देखें, पृ. 103
  15. तर्कभाषा, पृ. 111
  16. वही देखें, पृ. 103
  17. वही देखें, पृ. 103
  18. वही देखें, पृ. 104
  19. वही देखें, पृ. 105
  20. वही देखें, पृ. 106
  21. वही देखें, पृ. 106
  22. सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समु., पृथम पृथम पृष्ठ
  23. सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समु., पृ. 154-155
  24. उपदेश मंजरी, पृ. 2
  25. वही देखें, पृ. 3
  26. उपदेश मंजरी, पृ. 3
  27. वही देखें, पृ. 4
  28. छान्दोग्योपनिषद् 7/24/1

– ई-128, गोविन्दपुरी, सोडाला, जयपुर, राज.

क्यों माने ईश्वर को?’  -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

ईश्वर को क्यों माने? यह प्रश्न किसी भी मननशील मनुष्य के मस्तिष्क में आ सकता है। वह अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करेगा और हो सकता है कि उसे कोई सन्तोषजनक उत्तर प्राप्त न हो। यदि वह अपने परिवार व मित्रों से इसकी चर्चा करेगा तो सबके उत्तर अलग-अलग होंगे। सभी मतों व सम्प्रदायों के विचार व  उत्तर, परस्पर वैचारिक समानता न होने के कारण, अलग-अलग होंगे, यह निश्चित है। अब जिज्ञासु मनुष्य को उन सभी विचारों व मान्यताओं पर विचार कर निर्णय करना होगा। हमें लगता है कि उसे जो भी उत्तर प्राप्त होंगे या तो वह गलत होंगे या अधूरे होंगे जिससे जिज्ञासु प्रवृत्ति के विवेकशील मनुष्य का समाधान नहीं हो सकेगा। उसके पास एक ही मार्ग शेष रहता है कि वह किसी वेद या आर्य विद्वान की शरण ले और उससे इस प्रश्न की चर्चा करे, तो अनुमान है कि उसका पूरा समाधान अवश्य ही होगा। इसका कारण यह है कि वेद व आर्य विद्वानों के पास ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद का प्रकाश है। इन वैदिक आर्य विद्वानों में ईश्वर की विशेष कृपा भी होती है जो कि सम्भवतः अन्य मतों के विद्वानों व अनुयायियों में नहीं देखी जाती जबकि उनके दावे बड़े-बड़े होते हैं। विभिन्न मतों के आचार्यों व उनके अनुयायियों के ईश्वर सम्बन्धी किए जाने वाले दावो में उनकी अज्ञानता छिपी हुई दिखाई देती है। सत्य व असत्य का जैसा विश्लेषण व समीक्षा वेद व आर्य विद्वान करते हैं, वैसी समीक्षा व विश्लेषण अन्य किसी मत में नहीं किया जता है। यही कारण है कि वेदभक्त आर्यों को ईश्वर के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होने के साथ उन्हें ईश्वर के मानने से लाभ व न मानने से होने वाली हानियों का भी पूरा-पूरा ज्ञान होता है।

 

हम एक पौराणिक मान्यता व विश्वास वाले परिवार में जन्में और अपनी आयु के 18 से 20 वर्षों तक हम अपने सभी धामिऱ्क कार्य यथा पूजा-उपासना आदि पौराणिक रीति के अनुसार ही करते थे। एक युवा सज्जन विद्वान मित्र की प्रेरणा से हमें आर्यसमाज का परिचय मिला जो हमें रविवार के अवकाश के दिन खाली समय में वहां धुमाने ले जाने लगे। हमने वहां विद्वानों के प्रवचनों को सुना और समाज-मन्दिर में उपलब्ध सत्यार्थ प्रकाश आदि वैदिक साहित्य को लेकर पढ़ा। आर्यसमाज के विद्वानों के तर्क पूर्ण प्रवचनों और सत्यार्थप्रकाश की बुद्धि व तर्क पूर्ण मान्यताओं को पढ़कर उन विचारों व मान्यताओं का हमारे मन व मस्तिष्क पर धीरे-धीरे प्रभाव होने लगा। अब विचार करने पर हमें अपनी जन्मना पौराणिक मान्यताओं की सत्यता के सन्तोषप्रद समाधान नहीं मिले और आर्यसमाज की वेदमूलक मान्यताओं की सत्यता की साक्षी व पुष्टि हमारा मन-मस्तिष्क व हृदय करने लगा। फिर जो होना था वही हुआ। हमने आर्यसमाज की सदस्यता का फार्म लेकर भर दिया और आर्यसमाज के साप्ताहिक यज्ञ व सत्संगों में वहां जाने लगे। हर बार वहां से किसी नये धार्मिक विषय की पुस्तक ले आते जिसे पढ़कर उस विषय का ज्ञान हो जाता था। वेद व आर्यसमाज की मान्यताओं को हम अपने पौराणिक तर्कों से काटना चाहते थे, परन्तु हमारे पास तर्क होते ही नहीं थे। अतः वैदिक विचारों ने हमारे पौराणिक विचारों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली जिसका परिणाम है कि हम विगत 40 से 45 वर्षों से मन व आत्मा से आर्यसमाज की विचारधारा से जुड़े हुए हैं।

 

ईश्वर को मानना व न मानना हमारी निजी सोच पर निर्भर होता है। संसार में बहुत से लोग हैं जो ईश्वर को नहीं मानते। उन्हें साम्यवादी कह सकते हैं। यह बात अलग है कि बंगाल व अन्यत्र रहने वाले हमारे भारत के साम्यवादी व उनके कुटुम्बी दुर्गापूजा आदि जैसे नाना प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान भी करते हैं। जो लोग ईश्वर को बिल्कुल नहीं मानते और जो विदू्रप ईश्वर पूजा को मानते व करते हैं, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वह न तो स्वयं आत्मचिन्तन करते हैं और न ही ईश्वर व जीवात्मा विषयक सर्वाधिक प्रमाणिक वैदिक साहित्य को पढ़ते हैं। यदि यह लोग उपनिषद ही पढ़ ले तो ईश्वर के स्वरूप से परिचित हो सकते हैं। उपनिषदें यद्यपि संस्कृत भाषा में है परन्तु इनके हिन्दी सहित अनेक भाषाओं में भाष्य व अनुवाद उपलब्ध हैं। ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप और संसार की रचना की पहेली के यथार्थ रहस्य को जानने के लिए ‘‘सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ईश्वर की सत्ता को तर्क व युक्ति से समझाया गया है।

 

सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में महर्षि दयानन्द जी ने प्रश्न प्रस्तुत किया है कि आप ईश्वरईश्वर कहते हो, परन्तु उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से। फिर वह प्रश्न प्रस्तुत करते हैं कि ईश्वर में प्रत्यक्षादि प्रमाण कभी नहीं घट सकते। इसके उत्तर में वह न्यायदर्शन का सूत्र  ‘‘इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। प्रस्तुत करते हैं और बताते हैं कि श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्यासत्य विषयों के साथ जो सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उस का आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचनाविशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा, मन और इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव की इच्छा, ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशकता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से (होता) है। और जब जीवात्मा शुद्ध होकर परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है, उस को उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का (शुद्ध हृदय से विचार ध्यान करने पर) प्रत्यक्ष होता है अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है। हमने इन पंक्तियों में महर्षि दयानन्द के विचारों की कुछ झलक प्रस्तुत की है। विस्तार से जानने के लिए जिज्ञासुओं को सत्यार्थ प्रकाश का गहन अध्ययन करना चाहिये। हमारा अनुमान है कि बार-बार सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से अध्येता को ईश्वर के बारे में निभ्र्रान्त ज्ञान अवश्य हो जाता है।

 

ईश्वर है और उसी ने इस सृष्टि को बनाया है तथा वही इसका संचालन कर रहा है। उसी से, जन्म के बाद मृत्यु की भांति, संसार की प्रलय होती है व आगे चलकर इस सृष्टि की भी होगी। उसी परमात्मा से सभी प्राणी अस्तित्व में आते हैं और अपने कर्मानुसार सुख-दुःख रूपी फलों का भोग करते हैं। इस सन्दर्भ में हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि संसार के किसी वैज्ञानिक, मत-पन्थ के आचार्य व अन्य के पास सृष्टि और सभी प्राणियों के जन्मदाता का बुद्धिसंगत निर्भान्त ज्ञान व उत्तर उपलब्ध नहीं है। यह केवल वेद और वैदिक साहित्य में ही उपलब्ध होता है। अभी तक ईश्वर व जीवात्मा विषयक वेद, दर्शन, उपनिषद व सत्यार्थ प्रकाश आदि किसी ग्रन्थ की मान्यताओं व सिद्धान्तों का किसी वैज्ञानिक व नास्तिक विद्वान ने युक्ति व तर्कपूर्वक खण्डन नहीं किया है। अतः ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व विषयक अन्य कोई सन्तोषजनक पक्ष न होने के कारण सभी मनुष्यों को वेदसम्मत ईश्वर को मानने में ही कल्याण है। ईश्वर है, यदि उसे मानेंगे तो ईश्वर को मानने से मिलने वाले लाभों से समृद्ध होंगे और यदि नहीं मानेंगे तो उन लाभों से वंचित हो जायेंगे। कुछ क्षण के लिए यदि इस मिथ्या मान्यता को भी स्वीकार कर लें कि ईश्वर नहीं है, तो भी ईश्वर को मानने से हमें कोई हानि नहीं होगी। क्योंकि जब वह है हि नहीं तो हानि होने का प्रश्न ही नहीं है। परन्तु यदि ईश्वर है और हम उसे नहीं मानेंगे तो हानि होना निश्चित है। अतः दोनों ही स्थितियों में ईश्वर को मानने में ही मनुष्य को लाभ है।

 

ईश्वर को मानने से क्या लाभ हैं? पहला लाभ तो यह है कि ईश्वर को जानने व मानने तथा उसकी स्तुति प्रार्थना व उपासना करने से जीवात्मा के बुरे गुण-कर्म-स्वभाव छूट कर ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप, शुद्ध व पवित्र, हो जाते हैं। आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि जिससे दुःखों की निवृत्ति होने के साथ सभी प्रकार के भय दूर होते हैं। मृत्यु का भय भी समाप्त हो जाता है। अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। मनुष्य को स्वस्थ जीवन का लाभ होने के साथ सुख व समृद्धि सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की उपलब्धि होती है। इसके विपरीत ईश्वर को न मानने पर मनुष्य इन अधिकांश लाभों से वंचित हो जाता है। उसे केवल अपने सत्यासत्य कर्मों के फल ही ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त होते हैं। ईश्वर से जो सत्प्रेरणायें जीवात्माओं कों प्राप्त होती है उसका अनुभव अधार्मिक नास्तिक लोग नहीं कर पाते। असली सहिष्णुता ईश्वर को मानने वाले धार्मिक लोगों में ही पायी जाती है। ईश्वर के सच्चे स्वरूप को न जानने व मानने वाले लोग सहिष्णुता का दिखावा करते हैं, वह सहिष्णुता के मूल स्वभाव व चरित्र से कोशों दूर होते हैं। जीवात्मा अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी व अमर है। इसका पुनर्जन्म सुनिश्चित व अवश्यम्भावी है जो जीवात्मा के कर्मानुसार ईश्वर द्वारा दिया जाता है। यदि ईश्वर को नहीं मानेंगे तो हमारा आगामी जीवन बिगड़ेगा अर्थात् निम्न व नीच योनियों में जन्म लेकर दीर्घ अवधि तक दुःखों को भोगना ही होगा। ईश्वर को मान कर और उसकी वैदिक विधि से स्तुति-प्रार्थना उपासना कर नास्तिकों व अर्धनास्तिक मत-पन्थ के अनुयायियों को होने वाली हानियों से बचा जा सकता है। हम आशा करते हैं कि यह लेख पाठकों को उपयोगी होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सब सत्य विद्याओं एवं उससे उत्पन्न किए व हुए संसार व पदार्थों का मूल कारण ईश्वर’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

हम कोई भी काम करते हैं तो उसमें विद्या अथवा ज्ञान का प्रयोग करना अनिवार्य होता है। अज्ञानी व्यक्ति ज्ञान के अभाव व कमी के कारण किसी सरल कार्य को भी भली प्रकार से नहीं कर सकता। जब हम अपने शरीर का ध्यान व अवलोकन करते हैं तो हमें इसके आंख, नाक, कान, श्रोत्र, बुद्धि, मन व मस्तिष्क आदि सभी अवयव किसी महत् विद्या के भण्डार व सर्वशक्तिमान सत्ता रूपी कर्ता का ही कार्य अनुभव होतें हैं। बिना विद्या के कोई भी कर्ता कुछ कार्य नहीं कर सकता और बिना कर्ता के भी कोई कार्य नहीं होता। इससे यह सिद्ध है कि हमारे शरीर व इस सृष्टि के सभी पदार्थों का कर्ता व रचयिता एक निराकार, सर्वविद्या व ज्ञान से पूर्ण सूक्ष्मातिसूक्ष्म अदृश्य सत्ता व उसका अस्तित्व है। उस सत्ता के आंखों से न दिखने के अनेक कारण हो सकते हैं जिनमें से एक कारण उसका अति सूक्ष्म होना भी व ही है। यह सारा ब्रह्माण्ड उस ईश्वर की रचना है और इस रचना से ही इसके कर्त्ता ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। संसार में आज तक ऐसी रचना देखने को नहीं मिली जो स्वमेव, बिना किसी बुद्धिमान-ज्ञानी-चेतनसत्ता के उत्पन्न हुई हो और जो मनुष्यों व प्राणियों के उपयोगी वा बहुपयागी हो जैसी कि हमारी यह सृष्टि व इसके पदार्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु, हमारे व अन्य प्राणियों के शरीर, वनस्पति जगत आदि हैं।

इससे यह निर्विवाद रुप से सिद्ध होता है कि यह संसार एक निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य, अमर सत्ता की रचना है। रचना को देखकर इसमें प्रयुक्त ज्ञान से ईश्वर का सर्वज्ञ अर्थात् सर्वज्ञान व विद्याओं का भण्डार होना भी सिद्ध होता है। इस निष्कर्ष पर पहुंच कर हमें सभी विद्याओं की प्राप्ति के लिए ईश्वर की शरण में ही जाना आवश्यक हो जाता है। ईश्वर की शरण में कैसे जा सकते हैं? इसका उपाय सद्ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय, ज्ञानीनिर्लोभीनिरभिमानीअनुभवी गुरूओं का शिष्यत्व सहित बुद्धि को शुद्ध, पवित्र सात्विक बनाकर उससे ईश्वर के स्वरुप का चिन्तन मनन करना है। किसी विषय का गहन चिन्तन व मनन करना ही ध्यान कहलाता है। जब एक ही विषय यथा ईश्वर के स्वरुप का नियमित रूप से निश्चित समय पर लम्बी अवधि तक मनुष्य चिन्तन व मनन करते हैं तो वह ध्यान की अवस्था ही कालान्तर में समाधि का रूप ले लेती है। इस अवस्था में एक समय वा दिवस ऐसा आता है कि जब ध्याता को ध्येय ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है। यह साक्षात्कार मनुष्य वा योगी में यह योग्यता उत्पन्न करता है कि जिससे वह जब जिस विषय का अध्ययन व चिन्तन करता है, कुछ ही समय में उसका उसको साक्षात ज्ञान हो जाता है। यह सफलता ईश्वर द्वारा प्रदान की जाती है। इसी लिए हमारे देश में जितने भी ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न ऋषि व मुनि हुए हैं, वह सभी योगी ही हुआ करते थे। यदि हम आजकल के वैज्ञानिकों व उच्च श्रेणी के ज्ञानियों की स्थिति पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि यह सभी भी विचारक, चिन्तक, इष्ट वा अभीष्ट विषय का निरन्तर ध्यान करने वाले व समाधि की स्थिति व उससे कुछ पूर्व की स्थिति तक पहुंचे हुए व्यक्ति ही प्रायः होते हैं। अतः ज्ञान की प्राप्ति विचार, चिन्तन व ध्यान से ही होती है। यह भी स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया को अपनाकर बुद्धि में प्राप्त ज्ञान ईश्वर से ही प्रेरित वा प्राप्त होता है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि हमारे आज के वैज्ञानिक व इंजीनियर बन्धुओं को जो उच्च ज्ञान विज्ञान की उपलब्धि हुई है वह, कोई माने या न माने, ध्यान व किंचित समाधि की अवस्था आने पर ईश्वर के द्वारा ही सुलभ हुई है।

 

संसार को समझने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है और ज्ञान के रूप में सृष्टि के सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद हमें उपलब्ध है। प्रमाण, परम्परा, तर्क व विवेचन से यह सिद्ध होता है कि चारों वेदों का ज्ञान सृष्टि की आदि में चार ऋषियों को ईश्वर द्वारा प्रदत्त ज्ञान है। इस बारे में गहन स्वाध्याय व अध्ययन न करने वालों को अनेक प्रकार की भ्रान्तियां हैं जिसका कारण उनका इस विषय का अध्ययन न करना ही मुख्य है।  यदि वह इसका अध्ययन करें तो उनकी सभी शंकाओं व भ्रान्तियों का निवारण हो सकता है जिस प्रकार से सृष्टि के आदि काल से महाभारत काल पर्यन्त ऋषियों सहित महर्षि दयानन्द सरस्वती और पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी आदि का हुआ था। महर्षि दयानन्द जी और उनके अनुवर्ती आर्य विद्वानों का वेदभाष्य इस बात का प्रमाण है कि वेद परा और अपरा विद्या का आदि स्रोत व भण्डार होने के साथ पूर्णतया सत्य ज्ञान है। महर्षि दयानन्द की यह घोषणा भी हमें ध्यान में रखनी चाहिये कि ‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इस लिए वेदों का सभी आर्यों वा मनुष्यों को पढ़ना व पढ़ाना परम धर्म है। इससे यह सिद्ध हो रहा है कि मनुष्य धर्म वेदों अर्थात् सत्य ज्ञान का अध्ययन आचरण करना ही है। हमारे वैज्ञानिकों ने बहुत सी अपरा विद्याओं को खोज कर अपूर्व कार्य किया है। वह विश्व मानव समुदाय की ओर से अभिनन्दन के पात्र हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि हमारे वैज्ञानिक बन्धु परा विद्या वा ईश्वर-जीवात्मा के सत्य ज्ञान से बहुत दूर हैं। इसकी पूर्ति वैज्ञानिक विधि से रिसर्च व अनुसंधान से नहीं होगी। इसका उपाय तो वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन, योगाभ्यास, ध्यान व समाधि को सिद्ध कर ही प्राप्त होगा। जिस दिन हमारे वैज्ञानिक विज्ञान के शोध व उपयोग के साथ वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन सहित योगाभ्यास में अग्रसर होंगे, तभी उनका अपना जीवन भी पूर्णता को प्राप्त होगा और इससे मानवता का भी अपूर्व हित व कल्याण होगा। हमें लगता है कि महर्षि दयानन्द सहित सभी प्राचीन ऋषियों में ईश्वर विषयक ज्ञान व आधुनिक वा भौतिक विज्ञान दोनों का ही समन्वय था जिससे संसार में सुख अधिक और दुःख कम थे और आज की परिस्थितियों में स्थिति सर्वथा विपरीत है। अध्यात्मिक ज्ञान से ही मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों बुरे आचरण पर नियन्त्रण किया जा सकता है।

 

इस लेख में हमने यह समझने का प्रयास किया है कि संसार की विद्याओं व ज्ञान की उत्पत्ति का आदि स्रोत ईश्वर है और उसी से सभी विद्यायें इस सृष्टि की रचना, इसके पालन व वेदों के माध्यम से प्रकट हुई है। हमें चिन्तन, मनन व ध्यान आदि की क्रियाओं से उसे और अधिक उन्नत करना होता है। यदि ईश्वर यह संसार न बनाता और वेदों का ज्ञान न देता तो हम और हमारे विचारकों, चिन्तकों व वैज्ञानिकों को करने के लिए कुछ न होता। अतः सबको कल्पित ईश्वर नहीं अपितु सच्चे ईश्वर की शरण में जाना आवश्यक है जिससे जीवन के उद्देश्य वा लक्ष्य धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष की प्राप्ति हो सके। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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ईश्वरः जैन एवं वैदिक दृष्टि -डॉ. वेदपाल, मेरठ

[वर्ष 2013 में ऋषि – मेले के अवसर पर आयोजित वेद-गोष्ठी में प्रस्तुत एवं पुरस्कृत यह शोध लेख पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।]                                                             -सपादक%मनुष्य के अस्तित्वकाल से ही उसके विचारणीय महत्त्वपूर्ण विषयों में एक है- ईश्वर। ईश्वर के सबन्ध में कल्पना बाहुल्य उपलध है। जिसका आधार देश, मत – पन्थ तथा धार्मिक विश्वास हैं। इसी कारण उसे अनेक नाम से सबोधित किया गया है। ईश्वर के स्वरूपविषयक कल्पनाएं भी कम मनोरंजक नहीं हैं। शिव के किरात रूप की कल्पना इसका निदर्शन है। इसी प्रकार न कुछ से सब कुछ (अर्थात् अभाव से भाव) करने वाला-मानना (इस्लाम के अनुसार)।

सामान्यतः ऐश्वर्य सपन्न,  जगत् कर्त्ता, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा जीव के कर्मफल प्रदाता1 के रूप में उसे स्वीकार किया जाता है। एक मत-धर्म ऐसा भी है जो उक्त जगत्कर्तृत्व आदि रूप में तो उसकी सत्ता स्वीकार नहीं करता, किन्तु सर्वज्ञ गुण सपन्न व्यक्ति को ही जिसने अर्थतः और तत्त्वतः आत्मतत्त्व को जान लिया तथा कर्म से विप्रमोक्ष हो गया है उसे सर्वज्ञ2 केवली/ईश्वर कहा गया है। यद्यपि यहाँ यह विशेषण स्मरणीय है कि तत्त्वसूत्र (उमास्वामी विरचित जैनधर्म के प्रमुख दार्शनिक ग्रन्थ) तथा आचार्य कुन्दकुन्द विरचित ‘समयसार’ (जैनमत का प्रमुख आध्यात्मिक ग्रन्थ) में ईश्वर पद का प्रयोग नहीं हुआ है।

यह सर्वानुमत है कि संसार में जितने भी कार्य पदार्थ हैं, उनसब का कोई चेतन कर्त्ता है। जैसे-घड़ी, वस्त्र, मोटरकार, कागज, लेखनी आदि पदार्थ किसी न किसी व्यक्ति, सत्ता द्वारा बनाए गये हैं। इनमें से कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसे किसी ने बनाया न हो और वह स्वयं बन गया हो अथवा अनादि निधन हो। जो पदार्थ जितना व्यवस्थित और बेहतर ढंग से डिजायन किया गया है उसका कर्त्ता उतना ही बुद्धिमान् माना जाता है।

इस दृश्य संसार के लिए सृष्टि, जगत् तथा संसार शदों का प्रयोग किया जाता है। सृष्टि शद ‘सृज् विसर्गे’ धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है-रची हुई, पैदा हुई। जगत् शद का अर्थ है- ‘गच्छतीतिजगत्’। संसार का अर्थ भी संसरणशील है3 संसार का कोई भी जड़ पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें स्वतः गति हो अथवा वह संसरणशील हो या स्वयं ही निर्मित हो गया हो। अर्थात् इन पदार्थों का स्वभाव बनना गतिशील होना हो। इनमें बनना या इनका गतिशील होना किसी अन्य बनाने वाले अथवा इन्हें गति देने वाले की अपेक्षा रखते हैं।

सृष्टि एवं सृष्टा ईश्वर के विषय में जैन सिद्धान्तों को निम्नवत् समझा जा सकता है-

  1. सृष्टि नाम भले ही प्रयोग किया जाए, किन्तु यह सृष्ट नहीं है। अणु-स्कन्ध के स्वाभाविक परिणमन से पुद्गल की उत्पत्ति होती है, किन्तु यह अकृत है। स्वभावतः अनादिनिधना है। अतः स्रष्टा अपेक्षित नहीं।
  2. 2. सृष्टि प्रयोजन कर्मफल भोग के सर्न्दा में- कर्म स्वतः फलप्रदाता है और कर्त्ता जीव स्वयं भोक्ता है, इसमें किसी अन्य के हस्तक्षेप का अवकाश नहीं।
  3. 3. सृष्ट वस्तु के आधार पर कार्यत्व हेतु- ‘क्षित्यादिकं सकर्तृकं घटवत्’ सयुक्तिक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार इस जगत् का कर्त्ता इष्ट है, उसी प्रकार ईश्वर कााी कोई कर्त्ता होना चाहिए। इस प्रकार अनवस्था दोष होगा।
  4. 4. यदि ईश्वर सृष्टि का स्वभावतः रूचिवशात् या कर्मवशात् कर्त्ता है तो ईश्वर का स्वातन्त्र्य कहाँ? क्योंकि उसे तो उक्त कारणो से चाहे-अनचाहे सृष्टि करनी ही होगी। तब तो वह स्वतन्त्र रहा ही नहीं।
  5. 5. जैनमत के संयमप्रधान तपोधर्म होने से ईश्वर के अस्तित्व पर विचार ही नहीं किया गया है अथवा उसकी आवश्यकता ही अनुभव नहीं की गयी, किन्तु जैन मत आध्यात्मिक (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत समयसार) एवं दार्शनिक (उमास्वामी प्रणीत तत्वार्थसूत्र तथा आचार्य समन्तभद्र प्रणीत आप्तमीमांसा प्रभूति) ग्रन्थों में ईश्वर का निषेध भी उपलध नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि- ईश्वरपद ही वहाँ अपराभृष्ट है भले ही आज व्यवहार में जिनेश, जिनेश्वर, जिनभगवान् जैसे शदों का प्रयोग क्यों न किया जाता हो।

जैन मत में ईश्वर से मिलती-जुलती अवस्था केवली की है इसे ही सर्वज्ञ कहा गया है। मोह का क्षय होने पर अन्तर्मुहूर्त तक क्षीणकषाय रहकर एक साथ ज्ञानावरण- दर्शनावरण तथा अन्तराय क्षय होने पर केवल ज्ञान प्राप्त होता है।4 वह केवली ही बन्ध हेतुओं (मिथ्यात्व आदि) के अभाव होने तथा तप आदि निर्जरा हेतुओं द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों का विप्रमोक्ष होकर मोक्ष को प्राप्त होता है।5 ऐसा मुक्तात्मा ही सर्वज्ञ पद भाक् है।

जैन मत में ईश्वर की चर्चा न होने के सबन्ध में एक अन्य दृष्टिकोण भी ध्यातव्य है, जिसके अनुसार- ईश्वर विषयक अवधारणा का मूल स्रोत वेद है। जैन मत वेदोपनिषद् से पूर्व भारत में प्रचलित मुनिजनों के संयमात्मक तपोधर्म से उदित है।6 अर्थात् उस समय ईश्वर की संकल्पना ही नहीं थी।

वैदिक दृष्टि– ईश्वर के सबन्ध में वैदिक दृष्टि सुस्पष्ट है। तदनुसार प्रकृति के परमाणुओं -(जो कि जड़ हैं अतः अक्रिय हैं।) को अव्यक्तावस्था से व्यक्तावस्था में लाने वाली चेतन सत्ता ईश्वर पद वाच्य है। जिस प्रकार लौकिक घट-पट आदि कार्य पदार्थों का उपादान कारण मृत्तिका-तन्तु आदि सर्वस्वीकृत हैं इन कार्य पदार्थों का कर्त्ता-निमित्त कारण कुभकार तन्तुवाय आदि हैं। उसी प्रकार इस कार्य जगत् का उपादान प्रकृति के परमाणु तथा निमित्त कारण ईश्वर है।

दृश्यमान जगत्/संसार कार्य है। किसी भी कार्य/पदार्थ के सपन्न हेने में तीन कारण सभव हैं। सर्वप्रथम उसके लिए उसका मूल, जिसके रूपान्तरित होने पर वह वस्तु बनती है। जिस प्रकार पार्थिव घर के लिए  मृत्तिका आदि। इसे उपादान कारण कहा जाता है। दूसरा कारण है, जिसके बनाने से कोई वस्तु बने और न बनाने से न बने तथा वह स्वयं रूपान्तरित न हो, अपितु किसी अन्य पदार्थ-उपादान को कुछ बना देवे। जैसे कुभकार मृत्तिका को घट रूप में रूपान्तरित कर देता है। अतः वह उसका निमित्त होने से निमित्त कारण कहा जाता है। तीसरा कारण है- साधारण, जिन साधनों का उपयोग पदार्थ निर्माण में सामान्येन अपेक्षित रहता है वह साधारण होने से साधारण कारण कहलाता है। उपादान के गुण पदार्थ में रहते हैं।

संसार में दो ही प्रकार के पदार्थ हैं- 1. चित्-चेतन। 2. अचित्-अचेतन-जड़।7 अचेतन पदार्थ अक्रिय हैं, उनसे स्वतः किसी अन्य पदार्थ का निर्माण नहीं होता अथवा यों कहें कि वह किसी पदार्थ का निर्माण नहीं कर सकते। जैसे- पृथिवी जड़ है, इससे बिना बनाये ईंट, घर आदि पदार्थ कभी नहीं बन सकते। जब कोई चेतन कर्त्ता इच्छापूर्वक प्रयत्न करता है तब उससे ईंट-घर आदि पदार्थ बना लेता है। इसी प्रकार कपास से तन्तु/वस्त्र  आदि चेतन कर्त्ता के इच्छा-प्रयत्न से ही बनते हैं। जब यह छोटे से छोटे पदार्थ भी चेतन कर्त्ता के बिना नहीं बनते, तब इतने व्यवस्थित संसार/ब्रह्माण्ड का निर्माण बिना चेतन कर्त्ता के किस प्रकार सभव है। स्कन्ध के स्वतः परिणमन से संसार का निर्माण मानने वाले पार्थिव परमाणुओं (पुद्गल/स्कन्ध) से स्वतः घर का निर्माण क्यों नहीं मानते अथवा बिना कुभकार/ तन्तुवाय के स्वयं बनते हुए घट-पट क्यों नहीं दिखा देते? स्वयं केलिए भवन व वस्त्र क्यों बनाते हैं? अर्थात् सृजन क्रिया के लिए चेतन कर्त्ता अपेक्षित है। संसार में जितनेाी चेतन कर्त्ता हैं, उनका ज्ञान व सामर्थ्य सीमित है। अतः इतना व्यवस्थित नियमबद्ध संसार8 जिसका कर्त्ता सीमित ज्ञान प्रयत्न वाला (मनुष्य) होना सभव नहीं। इसका कर्त्ता निश्चय ही सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ होना चाहिए। उसी का नाम ईश्वर है। यदि ईश्वर के स्थान पर कोई अन्य संज्ञा रखें तब भी संज्ञा उक्त गुणयुक्त ही होगा। अन्य संज्ञा पराी वही प्रश्न सभव है। अतः अन्वर्थ संज्ञा के प्रयोग से कोई हानि नहीं।

जगत् कारणता विषय में कार्यकारण सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है, किन्तु जैन दर्शन में इस पर स्पष्ट विचार उपलध नहीं है। केवल जीव द्वारा किए कर्म जिनसे कार्मण वर्गणाएं बनती हैं और वह पुद्गल रूप में रहती हैं, क्योंकि ‘‘कर्म-पुद्गल द्रव्य का पर्याय है….अर्थात् कर्मरूप से परिणत कार्मण वर्गणाओं की सत्ता पौद्गलिक रूप में बनी रहती है9’’। कार्य कारण सिद्धान्त पर जैन की अपेक्षा बोद्धाचार्यों ने अधिक विचार किया है। कल्याण रक्षित (829 ई.) ने ईश्वर भंगकारिका में ईश्वरास्तित्व का निरसन किया है। इनके शिष्य धर्मोत्तराचार्य (847 ई.) ने भी कल्याणरक्षित की परपरा का अपने ग्रन्थों (अपोह नामसिद्धि, क्षणभंगसिद्धि) में पुष्ट किया है।

कार्य कारण सिद्धान्त का खण्डन करने वालों ने अग्नि की कारणता के खण्डन (वह्विदाह का कारण है- अन्वय व्यतिरेक….किन्तु अरणि सत्त्वेवह्रिसत्ता…, मणिसत्त्वेवह्रिसन्ता…., तृणसत्त्वेवह्रिसत्ता…. अन्वय तो बनेगा किन्तु व्यतिरेक नहीं। यथाअरण्यभावे वह्रयभावः…., मण्यभावे वह्रयभावः…, तृणभावे बह्रयभावः नहीं….) के द्वारा अन्य सभी प्रकार की कारणता का भी खण्डन किया है। वस्तुतः यह सद् हेतु न होकर हेत्वाभास है, क्योंकि अग्नि दाह के प्रति स्वरूपतः कारण नहीं, अपितु शक्ति मत्त्वेन कारण (शक्तिवाद मीमांसक मत है) है। अर्थात् कारणावच्छेदकता धर्म अरणित्व-मणित्व-तृणत्व न होकर वह्यनुकूलैकशक्तिमत्त्वे सति बह्रिसत्ता-अन्वयः वह्न्यनुकूलैक शक्तिमत्त्वाभावे सति बह्न्यभावः- व्यतिरेकः। इस प्रकार हेत्वाभास का वारण हो जाता है।

इसी प्रकार अकस्मात् वाद (पूर्वपक्ष-‘अनिमित्ततो भावोसत्तिः कण्टक तैक्ष्ण्यादिदर्शनात्’ न्याय 4.1.22 प्रत्यायान-‘अनिमित्तनिमित्तत्वान्नानिमित्ततः’, ‘निमित्तानिमित्तयोरर्थान्तर भावादप्रतिषेधः’ 23-24)। का प्रत्यायान न्याय के साथ ही उदयनार्च ने न्याय कुसुमाञ्जलि 1.5 में किया है-

हेतुभूतिनिषेध न स्वानुपायविचिर्न च।

स्वभाववर्णना नैवमवचेर्नियत त्वतः।।

प्रस्तुतकारिका में उदयनाचार्य ने अकस्मात्-अकारणात् की पाँच व्यायाओं 1. कारणं विना भवति 2. कारण व्यतिरिक्ताद्भवति प्रथम के दो अर्थों-– हेतु का निषेधक . उत्पत्ति का निषेधक तथा द्वितीय के तीन अर्थों-वा- स्वस्माद् भवति घ. अलीकाद भवति और स्वभावाद् भवति- इन पाँचों का खण्डन एक ही- अवधेर्नियतत्वतः= ‘नियतकालावधिककार्यदर्शनात्’ द्वारा किया है। कार्यों की स्थिति नियतकाल तक ही दिखाई देती है। कार्य नित्य रहने वाला पदार्थ नहीं है। यह स्थिति तभी बन सकती है, जब कार्यों का कोई कारण माना जाए।

  1. 1. यदि उत्पत्ति ही न होती हो या 2. उसका कोई कारण न हो तो उन्हें नित्यपदार्थ के समान होना चाहिए। 3. यदि स्वयं अपने से अथवा 4. अलीक वन्ध्यापुत्र सदृश मिथ्या पदार्थ से अथवा 5. स्वभाव से कार्य (जगत्) की उत्पत्ति मानी जाए तो कार्य के नाश का कोई कारण नहीं बनता। क्योंकि जिन पदार्थों का कारण कोई भाव पदार्थ है। उस कारण के नाश होने से कार्य का नाश हो जाता है। परन्तु स्वस्मात्-अलीकात्-स्वभावात् (…स्वानुपारव्यविधिर्न च। स्वभाववर्णनाा नैवम्…) से उत्पन्न होने की स्थिति में किसके नाश से कार्य का नाश माना जाएगा?

इसलिए नाश का सभव न होने से इन तीनों पक्षों में भी कार्य कादाचित्क-अकस्मात्-क्यों है? इसका उपपादन नहीं किया जा सकता है। इसलिए 1. न कार्य के हेतु या कारण का निषेध किया जा सकता है और 2. न उसकी उत्पत्ति या भवन का खण्डन हो सकता है (हेतुभूति निषेधो न) इसलिए अकस्मात् भवति यह कथन करना सर्वथा युक्तिविरुद्ध है।

सांयदर्शन में पूर्वपक्ष के रूप में उपन्यस्त ‘ईश्वरासिद्धेः’ 1.92 नास्तिकों का सर्वप्रमुख एवं प्रिय प्रमाण है। जबकि यह सूत्र पूर्व पक्ष है तथा उत्तर पक्ष सांय में ही द्रष्टव्य है, कि उदयनाचार्य ने इस पूर्वपक्ष के समाधानार्थ आठ हेतु उपस्थित किए हैं-

कार्यायोजन-घृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।

वाकयात् संया विशेषाच्च साध्यो विधिवदव्ययः।।10

महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास में प्रश्नोत्तर के रूप तथा द्वादश समुल्लास में आस्तिक-नास्तिक के संवाद (प्रश्नोत्तर) के माध्यम से जगत् कारण (निमित्त) ईश्वर के स्वरूप को सुव्यक्त कर दिया है। जिज्ञासु वहीं देख सकते हैं।

वेद में ईश्वर को ‘अज एकपात्’11 ‘अकायमव्रणम्’12 सर्वज्ञ वेद भुवनानि13, विश्वा

साक्षी-‘अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति’14 सृष्टिकर्त्ता-  ‘य इदं विश्वं भुवनं जजान’15 ‘हृदयगुहा में दर्शनयोग्य – वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा यत्’16 अमर्त्य-‘अमर्त्योमर्त्येना सयोनिः’17 आदि विशेषण विशेषित रूप में वर्णित किया गया है।

सक्षेप में कहा जा सकता है कि जैन मतानुसार प्रत्यक्ष दृश्य जगत्/सृष्टि अनादिनिधना है। वहाँ न तो ईश्वर की स्थापना है और न ही निषेध । हाँ केवली पुरुष/तीर्थंकर अवश्य सर्वज्ञ कहे गए हैं। व्यावहारिक दृष्टि से विचारने पर स्पष्ट है कि जगत्/ सृष्टि कार्य है। इसका मूल उपादान प्रकृति तथा निमित्त कारण सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ ईश्वर है। नास्तिकों द्वारा कार्यकारण के निषेधक हेतु मात्र हेत्वाभास हैं। वेद में ईश्वर को सर्वज्ञ, न्यायकारी, सृष्टिकर्त्ता, अज, अमर्त्य आदि विशेषण विशेषित कहा गया है।

सन्दर्भः

  1. तत्रैश्वर्य विशिष्टः संसार धर्मैरीषदप्यस्पष्टः।

परो भगवान् परमेश्वरः सर्वज्ञः सकलजगद्विधाता।। न्यायसार आगम परिच्छेद

  1. दोषावरणयोहीनिर्निश्शेषास्त्यतिशायनात्ः।।

क्वचिघथा स्वहेतुयो बहिरन्तर्मलक्षयः।।

सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः प्रत्यक्षः कस्यचिद्यथा।

अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञ संस्थितिः।। समन्तभद्र, आप्तमीमांसा, परिच्छेद 1,4-5

  1. स्वोपात्तकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः
  2. मोहक्षयाज्ज्ञान दर्शनावरणान्तराय क्षयाच्च केवलम्-तत्त्वार्थसूत्र 10.1
  3. बन्ध हेत्वभाव निर्जरायां कृत्स्न कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः – 10.2
  4. भारतीय संस्कृतिकोश-सपादक – पं. महादेव शास्त्री जोशी, खण्ड-3 पृ.367
  5. जीव-पुद्गल-दोनों भिन्न-भिन्न हैं-समयसार पूर्वरंग 23-25, टीकायाम् चेतन-जड़
  6. आकृष्टि शक्तिस्तु महीयत्, स्वस्थं गुरुस्वाभिमुख स्वशक्त्या।

आकृष्यते तत् पततीव भाति, समे समन्तात् वच पतत्ययं रवेः।।

-भास्कराचार्य, सिद्धान्त शिरोमणि 19-6 (समय-1171 वि.)

  1. प्रो. उदयचन्द्र जैन,-‘आप्त मीमांसा’ 1.4 की व्याया, पृ. 71
  2. न्यायकुसुमाञ्जलि 5.1
  3. यजु. 34.53
  4. वही 40.4
  5. वही 32.10
  6. ऋक् 1.164.20
  7. अथर्व. 13.3.15
  8. अथर्व. 2.1.1
  9. ऋक् 1.64.6

‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’

soul and god

ओ३म्

जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है


मनुष्य जीवन का उद्देश्य है उन्नति करना। संसार में ईश्वर सबसे बड़ी सत्ता है। जीवात्माओं की ईश्वर से पृथक स्वतन्त्र सत्ता है। जीवात्मा को अपनी उन्नति के लिए सर्वोत्तम या बड़ा लक्ष्य बनाना है। सबसे बड़ा लक्ष्य तो यही हो सकता है कि वह ईश्वर व ईश्वर के समान बनने का प्रयास करे। प्रश्न यह है कि मनुष्य यदि प्रयास करे तो क्या वह ईश्वर बन सकता है? इसका उत्तर विचार पूर्वक दिया जाना समीचीन है। इसके लिए ईश्वर तथा जीवात्मा, दोनों के स्वरूप को जानना होगा। ईश्वर क्या है? ईश्वर वह है जिससे यह संसार अस्तित्व में आता है अर्थात् ईश्वर इस सृष्टि या जगत का निमित्त कारण हैं। निमित्त कारण किसी वस्तु के बनाने वाले चेतन तत्व व सत्ता को कहते हैं। इसमें ईश्वर भी आता है और मनुष्य वा जीवात्मा भी। ईश्वर ने इस सारे संसार को रचकर बनाया है। ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में हमारे पूर्वजों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि पुरूषों सहित स्त्रियों को भी बनाया और उसके बाद से वह मैथुनी सृष्टि द्वारा मनुष्य आदि और समस्त प्राणियों की रचना कर उन्हें जन्म देता आ रहा है।

 

ईश्वर के कार्यों में सृष्टि की रचना कर उसका संचालन करना और अवधि पूरी होने पर प्रलय करना भी सम्मिलित है जिसे वह इस सृष्टि के कल्प में विगत 1.96 अरब वर्षो से करता आ रहा है। इससे पूर्व भी वह अनन्त बार अनन्त कल्पों में सृष्टि की रचना कर उसका पालन करता रहा है। वह यह कार्य इस लिए कर पाता है कि उसका स्वरूप सच्चिदानन्द (सत्य, चित्त व आनन्द) स्वरूप है। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। जीवों के पुण्य व पापों के अनुसार जीवों को भिन्न-भिन्न योनियों में भेजकर उन्हें उनके अनुसार सुख-दुःख रूपी फल देना भी ईश्वर का कार्य है और यह भी उसका स्वरूप है। दूसरी ओर जीवात्मा के कुछ गुण ईश्वर के अनुरूप हैं व कुछ भिन्न। जीवात्मा अर्थात् हम वा हमारा आत्मा अर्थात् हमारे शरीर मे विद्यमान चेतन तत्व है। यह या इसका स्वरूप कैसा है? जीवात्मा सत्य पदार्थ, चेतन तत्व, आनन्द रहित व ईश्वर से आनन्द की अपेक्षा रखने व प्राप्त करने वाला, अल्पज्ञ, निराकार, अल्प व सीमित शक्ति से युक्त, न्याय व अन्याय करने वाला, अजन्मा, अनादि, अविनाशी, अमर, जिसका आधार ईश्वर है, ईश्वर से ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, अजर, नित्य व पवित्र है। यह कर्म करने में स्वतन्त्र तथा उनका फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ईश्वर की उपासना करना इसका कर्तव्य है।

 

जीवात्मा और ईश्वर का वेद सम्मत युक्ति व तर्क सम्मत स्वरूप उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित है। जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों में अल्पज्ञता, नित्य व इसका अनादि होना आदि गुण हैं जो सर्वज्ञता में कदापि नहीं बदल सकते। ईश्वर अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार ही सर्वज्ञ है। जीवात्मा अल्प शक्तिशाली है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सृष्टि को बनाकर इसका सफलतापूर्वक संचालन करता है। यह कार्य जीवात्मा कितनी भी उन्नति कर ले नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वव्यापक है और जीवात्मा एकदेशी। यह जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर भी सर्वव्यापकता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार से जीवों की अपनी सीमायें है। अतः जीवात्मा सदा जीवात्मा ही रहेगा और ईश्वर सदा ईश्वर रहेगा। यह जान लेने के बाद यह जानना शेष है कि जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर किस स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसका उत्तर यह मिलता है कि जीवात्मा के अन्दर मुख्य रूप से दो गुण विद्यमान हैं। एक ज्ञान व दूसरा कर्म या क्रिया। जीवात्मा अल्पज्ञ और ससीम होने से सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर सकता है और सीमित कर्म या क्रियायें ही कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने में भी इसे ईश्वर की सहायता की अपेक्षा है। ईश्वर ने जीवात्मा में ज्ञान की उत्पत्ति के लिए सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा के माध्यम से दिया था जो विगत 1.96 अरब वर्षों से यथावत् चला आ रहा है। वेदों में एक साधारण तिनके से लेकर सभी सृष्टिगत पदार्थों व संसार की सबसे सूक्ष्म व बड़ी सत्ता ईश्वर तक का आवश्यक ज्ञान दिया गया है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने से यह पूर्णतया निभ्रान्त सत्य ज्ञान है और परम प्रमाण है। यह भी कह सकते हैं कि वेदो में सत्य ज्ञान की पराकाष्ठा है। जीवात्मा परम्परानुसार पुरूषार्थ व तप पूर्वक वेदों का ज्ञान अर्जित कर सर्वोच्च उन्नति पर पहुंच सकता है। यही उसका उद्देश्य व लक्ष्य भी है। जीवात्मा में दूसरा गुण कर्म करने का है। कर्म भी मुख्यतः शुभ व अशुभ भेद से दो प्रकार के हैं। उसे कौन से कर्म करने हैं और कौन से नहीं, इसका ज्ञान भी वेदों से मिलता है। अन्य सामान्य आवश्यक कर्मों के साथ ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता-आचार्य व विद्वान अतिथियों की सेवा तथा सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखते हुए उनके जीवानयापन में सहयोगी होना ही मनुष्य के मुख्यः कर्म हैं जो उन्हें नियमित रूप से करने होते हैं। इनमें अनाध्याय नहीं होता। इस प्रकार वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंचता है। इसके अलावा जीवन की उन्नति का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। केवल धन कमाना और सुख सुविधाओं को एकत्रित करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। धर्म व सदाचार पूर्वक घन कमाना यद्यपि धर्म के अन्तर्गत आता है परन्तु इससे जीवन की सर्वांगीण उन्नति नहीं हो सकती। इसके लिए तो वेद विहित व निर्दिष्ट सभी करणीय कर्मों को करना होगा और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना होगा।

 

ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र आदि वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य की ईश्वर से मित्रता हो जाती है अर्थात् जीवात्मा ईश्वर का सखा बन जाता है। महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, पतंजलि, गौतम, कपिल, कणाद, व्यास, जैमिनी, पाणिनी तथा यास्क आदि ऋषियों ने सम्पूर्णं वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेदानुसार कर्म करके ईश्वर का सान्निध्य, मित्रता व सखाभाव को प्राप्त किया था। यह ईश्वर तो नहीं बने परन्तु ईश्वर के सखा अवश्य बने। यह सभी विद्वान भी थे और धर्मात्मा भी। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ व्यवहार भानु में एक प्रश्न उठाया है कि क्या सभी मनुष्य विद्वान व धर्मात्मा हो सकते हैं? इसका युक्ति व प्रमाण सिद्ध उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है कि सभी विद्वान नहीं हो सकते परन्तु धर्मात्मा सभी हो सकते हैं। ईश्वर का मित्र बनने के लिए वेदों का विद्वान बनना व वेद की शिक्षाओं का आचरण कर धर्मात्मा बनना मनुष्य जीवन की उन्नति का शिखर स्थान है। इससे ईश्वर से सखा भाव बन जाता है। यदि कोई विद्वान न भी हो तो वह विद्वानों की संगति कर उनके मार्गदर्शन में ऋषियों मुनियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर धर्मात्मा बन कर ईश्वर से मित्रता व सखाभाव उत्पन्न कर सकता है और जीवन सफल बना सकता है। यह सफलता धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरूषार्थों का युग्म है। यह वेद के ज्ञान से सम्पन्न और वेदानुसार आचरण करने वाले योगियों या ईश्वर भक्तों को ही प्राप्त होती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आजकल प्रचलित मत-मतान्तर के अनुयायियों को ईश्वर का यह मित्रभाव पूर्णतः प्राप्त नहीं हो सकता, आंशिक व न्यून ही प्राप्त हो सकता है। यह सभी मत-मतान्तर धर्म नहीं है। यह विष मिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं इसलिए कि इनमें सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण हैं। पूर्ण सत्य केवल वेदों में है जिसे स्वाध्याय द्वारा जाना जा सकता है। आईये, वेद की शरण में चले और वेदाचरण कर ईश्वर से मित्रभाव सखा प्राप्त कर अपने जीवन की उच्चतम उन्नति कर धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त करें। यह मित्रभाव ऐसा होता है कि दोनों एक तो नहीं बनते लेकिन लगभग समान कहे जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में जीव यह धोषणा कर सकता है कि अहं ब्रह्मास्मिअर्थात् मैं ब्रह्म में हूं, ब्रह्म अर्थात् ईश्वर मुझ में है, हम दोनों परस्पर सखा व मित्र बन गये हैं। यही नहीं सर्वा आशा मम मित्रं भवंतुअर्थात् सभी दिशायें और सभी प्राणी मेरे मित्र बन गये हैं। मेरा जीवन सार्थक हो गया है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121