[वर्ष 2013 में ऋषि – मेले के अवसर पर आयोजित वेद-गोष्ठी में प्रस्तुत एवं पुरस्कृत यह शोध लेख पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।] -सपादक
त्रद्धि जैन सिद्धान्त एक ही है पृथक् नहींः– महर्षि दयानन्द ने सर्वदर्शनसंग्रह, राजाशिव प्रसाद कृत ‘इतिहास तिमिरनाशक’ ग्रन्थ के आधार पर बौद्ध और जैन मतावलबियों को एक ही माना है। चाहे बौद्ध कहो, चाहे जैन कहो एक ही बात है। एतद्विषयक कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत हैं। राजा शिवप्रसाद जो जैन मत के अनुयायी और महर्षि के घोर विरोधी थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘इतिहासतिमिरनाशक’ में लिखा है, कि इनके दो नाम हैं, एक जैन और दूसरा बौद्ध। ये पर्यायवाची शब्द हैं। परन्तु बौद्धों में वाममार्गी मद्यमांसाहारी बौद्ध हैं उनके साथ जैनियों का विरोध है परन्तु जो महावीर और गौतमगण धर हैं उनका नाम बौद्धों ने बुद्ध रखा है और जो जैनियों ने गणधर और ‘जिनवर’ इसमें इनकी परपरा जैन मत है।1 इसी ग्रन्थ के तृतीय भाग में राजा शिवप्रसाद ने लिखा है कि स्वामी शंकाराचार्य से पहले जिनको हुए कुल एक हजार वर्ष के लगभग गुजरे हैं सारे भारतवर्ष में बौद्धों अथवा जैन मत (धर्म) फैला हुआ था, इस पर नोटः- बौद्ध कहने से हमारा आशय उस मत से है जो महावीर के गणधर गौतम स्वामी के समय से शंकर स्वामी के समय तक वेदविरुद्ध सारे भारत वर्ष में फैल रहा था और जिसको अशोक सप्रति महाराज ने माना उससे जैन बाहर किसी तरह नहीं निकल सकते। ‘जिन’ जिससे जैन निकला और बुद्ध जिससे बौद्ध निकला दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, कोश में दोनों का अर्थ एक ही लिखा है और गौतम को दोनों ही मानते हैं, वर्ना दीपवंश इत्यादि पुराने बौद्ध ग्रन्थों में शाक्य मुनि गौतम बुद्ध को अक्सर महावीर ही के नाम से लिखा है। उनके समय में एक उनका मत रहा होगा। हमने जो जैन न लिखकर गौतम के मत वालों को बुद्ध लिखा उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि उनको दूसरे देशवालों ने बौद्ध ही के नाम से लिखा है।2 अमरकोश कार अमरसिंह ने भी अपने ग्रन्थ में ऐसा ही लिखा है।
सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो धर्मराजस्तथागतः।
समन्तभद्रो भगवान।।3
स्वामी वेदानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के 12वें समुल्लास के ऊपर एक टिप्पणी में लिखा है कि ‘वैदिक धर्म के विरोध में उठे ये सप्रदाय मनुष्यों को ईश्वर मानने के कारण एक हैं। बौद्धों ने परमेश्वर की सत्ता को अस्वीकार तो किया किन्तु उसके स्थान में बुद्ध को लोकनाथ (परमेश्वर) तथा सर्वज्ञ मानकर उसकी उपासना आराधना करने लगे। जैन भी ईश्वर को न मान ऋषभदेव आदि 24 तीर्थकंरों को सर्वज्ञ मान कर उनकी पूजा अर्चना करते हैं। यतः बुद्ध तथा जिन वर्तमान में जब इनको उपास्य मानने की भावना का उदय हुआ प्रत्यक्ष नहीं है, अतः उनकी मूर्ति बनाकर पूजा प्रचलित हुई।’
ईश्वर को मानने वाले जो-जो गुण ईश्वर में मानते हैं, उन-उन सबका आरोप जैन, बौद्धों ने अपने सादि आराध्यों में किया। दोनों ने अपने -अपने आराध्यों को समन्तभद्र, अर्थात् सब प्रकार से निर्दोष कहा है किन्तु बुद्ध तथा महावीर रोगाक्रान्त हुए। रोगाक्रान्त दोष का भूल का फल है। अतः जहाँ उनके ‘समन्तभद्र’ पने का निरास होता है, वहाँ उनके सर्वज्ञ होने का भी खण्डन हो जाता है।4 ……..स्वामी वेदानन्द जी ने ब्र. शीतलप्रसाद जैन जो दिगबर जैन सप्रदाय के लध प्रतिष्ठित विद्वान् हैं उनकी ‘जैन बौद्धतत्वज्ञान’ नामक पुस्तक के अनेक उदाहरण देते हुए लिखा है कि जहाँ तक मैंने बौद्धों व निर्वाण और निर्वाण के मार्ग का अनुभव करके विचार किया तो उसका बिल्कुल मेलान जैनियों के निर्वाण और निर्वाण के मार्ग से हो जाता है…..हमें तो ऐसा अनुमान होता है कि जैसे जैनों में एक सिद्धान्त मानते हुए भी दिगबर व श्वेताबर दो भेद पड़ गये उसी तरह श्री महावीर स्वामी के समय में ही वस्त्र सहित साधु चर्या स्थापित करने से बौद्ध संघ जैन संघ से पृथक् होगया।………हमारी राय में जैन व बौद्ध में कुछ भी अन्तर नहीं है।5 चाहे बौद्ध धर्म प्राचीन कहें या जैन धर्म प्राचीन कहें एकही बात है।……गौतम बुद्ध ने साधु मात्र की चर्या सुगम की, सिद्धान्त वही रखा।…….इस तरह जैन तत्व ज्ञान में समानता है।6
उपर्युक्त दीर्घ चर्चा करने का हमारा उद्देश्य इतना ही है कि ये दोनों सप्रदाय एक ही हैं, भिन्न नहीं। अतः चाहे बौद्ध कहो या चाहे जैन कहो कोई भेद नहीं है। इन्होंने प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति तथा अनुपलधि रूप छः (6) प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की असिद्धि करने का यत्न किया। परन्तु आचार्य उदयन ने स्वरचित न्यायकुसुमाञ्जलि के तृतीय स्तवक में इनके विचारों का प्रबल प्रत्ययान किया है। आचार्य विश्वेश्वर ने उक्त ग्रन्थ की टीका स्पष्ट एवं अति सरल संक्षिप्त रूप में की है। इस लेा में उनके विचारों का पुष्कल मात्रा में उपयोग किया गया है। महर्षि दयानन्द ने भी 12 वें समुल्लास में इनके विचारों तथा इनके सिद्धान्त, ग्रन्थों का उद्धरहण देते हुए सटीक समीक्षा की है। उन्होंने लिखा है कि ‘जिसलिये हम इस समय परमेश्वर को नहीं देखते इसलिये कोई सर्वज्ञ अनादि परमेश्वर प्रत्यक्ष नहीं है, जब ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं तो अनुमान भी नहीं घट सकता, क्योंकि एकदेश प्रत्यक्ष के बिना अनुमान नहीं हो सकता।जब प्रत्यक्ष, अनुमान नहीं तो आगम अर्थात् नित्य अनादि सर्वज्ञ परमात्मा का बोधक शब्द प्रमाण भी नहीं हो सकता। जब तीनों प्रमाण नहीं तो अर्थवाद अर्थात् स्तुति -निन्दा-परकृति अर्थात् पराये चरित्र का वर्णन और पुराकल्प अर्थात् इतिहास का तात्पर्य भी नहीं घट सकता। और अन्यार्थ प्रधान अर्थात् बहुब्रीहि समास के तुल्य परोक्ष परमात्मा की सिद्धि का विधान नहीं हो सकता। पुनः ईश्वर के उपदेष्टाओं से सुने बिना अनुवाद भी कैसे हो सकता है।’7
सत्यार्थ प्रकाश के उपर्युक्त सर्न्दा में छः (6) प्रमाणों द्वारा ईश्वर की सत्ता का निषेध किया गया है। महर्षि ने उसका समाधान उसी दार्शनिक परिपेक्ष में किया है। परन्तु हम यहाँ पर न्यायकुसुमाञ्जलि के तृतीय स्तवक के आधार पर समीक्षा करने का प्रयास करेंगे।
ईश्वर की अभावसिद्धि में अनुपलधि की समीक्षाः–
इहभूतले घटाभाव वदीश्वर स्याप्यनुपलधेः अभावस्य ग्रहात्।8
अर्थात् इस भूतल में घटाभाव के समान ईश्वर की अनुपलधि से उसका भी अभाव ग्रहण होने से ईश्वर नहीं है। तात्पर्य यह है कि भूतल में घटाभाव जैसे अनुपलधि से सिद्ध होता है वैसे ही ईश्वर के प्रत्यक्ष न होने से उसका भी अनुपलधि से आाव ग्रहण नहीं होता तो प्रत्यक्ष के अयोग्य ‘शशशृण्ङ्ग का भी अभाव सिद्ध नहीं होगा।3 इस पूर्वपक्ष के समाधान में आचार्य उदयन का कहना है कि ‘प्रत्यक्ष के अयोग्य परमात्मा में योग्यनुपलधि कहाँ घटता है? जिससे ईश्वर का अभाव सिद्ध हो। और जो अनुपलधि पाई जाती है वह केवल अनुलधि रूप से अभाव साधिका नहीं है अन्यथा बौद्धाभिमत आकाश, धर्माधर्म आदि अप्रत्यक्ष पदार्थों का भी लोप हो जायेगा। अतः अनुपलधि मात्र से ईश्वर का अभाव सिद्ध नहीं होता है। और आपने जो यह कहा है कि योग्यानुपलधि को अभाव साधिका का मानने पर प्रत्यक्ष के अयोग्य होने से शशशृङ्ग का अभाव अनुपलधि से सिद्ध नहीं होगा । आपका यह प्रतिबन्ध भी कहाँ बनता है? क्योंकि प्रत्यक्ष के अयोग्य (शश) श्रृङ्ग का बाघ हम कहाँ करते हैं, हम तो शृङ्ग में शशीयत्व, शशसबन्ध का निषेध करते हैं, शशशृङ्ग नामक पदार्थ का निषेध नहीं करते हैं। श्रृङ्ग प्रत्यक्ष के योग्य ही है।9’
अभिप्राय यह है कि अनुपलधि अभाव साधिका नहीं है अपितु प्रत्यक्ष योग्यानुपलधि अर्थात् प्रत्यक्ष योग्य पदार्थ की अनुपलधि उसकी अभाव साधिका है। यहाँ यह भी जानना चाहिये कि केवल अनुपलधि को यदि अभाव साधिका मान लिया जायेगा तब तो बौद्धाभिमत आकाश धर्माधर्म आदि पदार्थ भी दिखाई न देने के कारण अनुपलधि मात्र से अभाव सिद्ध हो जायेगा। परन्तु बौद्ध इन पदार्थों की सत्ता मानते हैं। इस कारण अनुपलधिमात्र को अभाव साधिका नहीं माना जा सकता अपितु योग्यानुपलधि ही अभाव साधिका है।
‘प्रत्यक्षयोग्य परमात्मा में योग्यानुपलधि कहाँ है, वही बाधिका है और जो केवल अनुपलधि मात्र पाई जाती है, वह अभाव साधिका मान लिया जाय तो बौद्धाभिमत आकाश, धर्माधर्म आदि का विलोप हो जायेगा।’
आकाशादि अप्रत्यक्ष अर्थों का भी अभाव मानना होगा, जो बौद्ध को अभिमत नहीं है। योग्यानुपलधि को अभाव साधक मानने में शशशृङ्ग का भी अभाव सिद्ध नहीं होगा यह जो प्रतिबन्ध दिया है उसका भाव अगर यह है कि हम प्रत्यक्ष के अयोग्य शशशृङ्गनामक किसी पदार्थ का निषेध नहीं करते हैं अपितु शशरूप आधार में प्रत्यक्ष योग्य शृङ्ग के संयोग सबन्ध का निषेध करते हैं। शृङ्ग तो प्रत्यक्ष के योग्य ही है इसलिये प्रतिबन्ध नहीं बन सकता। अयोग्य शृङ्ग का निषेध नहीं करते हैं। तब उसकी सत्ता सिद्ध हो जायेगी यह शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसके विषय में साधक प्रभावों का अभाव ही है। इसलिये अनुपलधि ईश्वर के अभाव को सिद्ध नहीं करता। इस पर बौद्ध ने ईश्वर के अभाव सिद्धि के लिये एक अन्य अनुमान प्राप्त किया कि ‘ईश्वरः न क्षित्यादिकर्त्ता शरीर सबन्ध भावात प्रयोजना भावात च’10अर्थात् ईश्वर क्षित्यादिका न कर्त्ता हैं क्योंकि शरीर सबन्ध का अभाव होने से प्रयोजन के न होने के कारण। इस अनुमान वाक्य का अभिप्राय यह है कि परमात्मा के प्रत्यक्ष योग्य होने से उसके क्षिति कर्तृत्वादि कर्म भी प्रत्यक्ष के अयोग्य हैं। यहाँ जो अनुमान प्रयुक्त किया गया है उसका आधार शरीर सबन्ध और प्रयोजन ये दो कर्तव्य के व्यापक धर्म हैं।
‘यत्र यत्र कर्तृत्व तत्र तत्र शरीर सबन्धःप्रयोजन च’11 अर्थात् जहाँ जहाँ कर्त्ता होता है वहाँ वहाँ शरीर युक्त अवश्य होता है। और उस कार्य के करने में उसका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है। परन्तु ईश्वर न शरीरी है और न ही सृष्टि के निर्माण में उसका अपना कोई स्वार्थ अथवा कारुण्यरूप प्रयोजन ही है। यदि उसका कोई स्वार्थ है तो वह पूर्ण काम नहीं रहेगा। अन्य आत्माओं के उद्धार की कारुण्य भावना इसलिये नहीं बनती है कि दुःखी प्राणी को देखने के बाद ही करुणा हो सकती है, उसके पूर्व नहीं। दुःख संसार काल में ही हो सकता है अतएवं करुणा भी संसार काल में ही हो सकती है, सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व नहीं।12इसलिए सृष्टि निर्माण में उसका कोई प्रयोजन भी नहीं है और शरीर सबन्ध भी नहीं है। अतः ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं हो सकता यह बौद्धों का पक्ष है।
इस पर नैयायिक आचार्य उदयन का कहना है कि बौद्धों ने जो अनुमान दिया है जिसे हम पहले भी दिखा चुके हैं विषय स्पष्टीकरणार्थ पुनः प्रस्तुत करने में कोई आपत्ति नहीं है-
ईश्वरः न क्षित्यादिकर्त्ता शरीरसबन्धावात् प्रयोजनाभावात् च।13
इस अनुमान वाक्य में ईश्वर पक्ष या आश्रय है, जब वही सिद्ध नहीं है तो यह हेतु ‘आश्रयासिद्ध हेत्वामास’ होने से साध्य को सिद्ध नहीं कर सकता है।14
आश्रयासिद्ध हेत्वाभासः– इस हैत्वाभास को समझाने के लिये हेत्वाभास पद का अर्थ जानना भी आवश्यक है। ‘हेतुवद् आभासते इति हेत्वाभासः’ जो हेतु के समान भासित होता है वस्तुतः दोषयुक्त होने के कारण हेतु नहीं होता उसे हेत्वाभास कहते हैं। प्रकृत हेत्वाभास असिद्ध हेत्वाभास का एक वर्ग है। यह तीन प्रकार का होता है। (1) आश्रय सिद्ध (2) स्वरूपासिद्ध (3) व्याप्यत्वासिद्ध। प्रकृत स्थल पर आश्रयसिद्ध हेत्वाभास की ही चर्चा करेगें क्योंकि पूर्व पक्ष ने जो अनुमान दिया है वह आश्रयासिद्ध हेत्वाभास के अर्न्तगत आता है। इस का लक्षण है ‘आश्रयासिद्धो यथा, गगतारविन्दं सुरभिः अरविन्दत्वात् सरोजारविन्दवत्। अत्र गगनारविन्दं आश्रय सच नास्त्येव।15’
जैसे आकाश कमल सुगन्धित होता है। यह प्रतिज्ञा क्योंकि वह कमल अथवा उसमें कमलत्व है (यह हेतु) सरोज में उत्पन्न कमल के समान (उदाहरण) यहाँ आकाश कमल आश्रय है वह होता ही नहीं है। बौद्धों ने जो अनुमान वाक्य दिया उसमें ईश्वर पक्ष या आश्रय हैं, जब वही सिद्ध नहीं है, इसलिये यह हेतु आश्रयासिद्ध हेतवाभास होने से साध्य को सिद्ध नही कर सकता है और यदि आश्रय सिद्धि से बचने के लिए ईश्वर की सत्ता मान लें तो जिस प्रमाण से उसकी सत्ता मानेंगे उसी धार्मिक ग्राहक प्रमाण से उसका क्षित्यादि कर्तव्य भी सिद्ध हो जायेगा। उस स्थिति में यह हेतु बाधित विषयत्व हेत्वाभास हो जायेगा। अतः एव दोनों प्रकार के हेत्वाभास होने से शरीर सबन्ध भावात् हेतु ईश्वर के अभाव का साधक नहीं हो सकता है।16
मिथ्याज्ञानवश ईश्वर की मान्यताः– अब बौद्ध यह कहते हैं कि कुछ लोग मिथ्या ज्ञानवश ईश्वर को मानते हैं, उसका यह मिथ्याज्ञान, या भ्रम या असत्याति कहलाता है। इस असत्याति से ईश्वरवाद जिस परमात्मा को मानते हैं, उनको पक्ष बनाकर ‘ईश्वरः न क्षित्यादिकर्त्ता शरीर सबन्धाभावात् प्रयोजनाभावात् च’ यह अनुमान प्रस्तुत करते हैं अथवा ‘ईश्वरो नास्ति शरीरसबन्धाभावात् प्रयोजनाभावात्च’17यह अनुमान किया जा सकता है।
इसके समाधान में आचार्य उदयन का कहना है कि पहले अनुमान वाक्य में ईश्वर के कर्तव्य का अभाव सिद्ध किया जा रहा है। (क्षित्यादिकर्तृत्वाभाववानीश्वरः) उसमें ईश्वर विशेष्य और क्षित्यादि कर्तृत्वाभाव उसका विशेषण है। जबकि दूसरे अनुमान में ‘ईश्वर नास्ति’ में ईश्वर का अभाव प्रदर्शित किया जा रहा है। ‘यस्याभाव स तस्य प्रतियोगी इति नियमात्’ इस नियम के अनुसार जिसका अभाव होता है वह उस अभाव का प्रतियोगी कहलाता है। अतः ईश्वर अभाव का प्रतियोगी है, ‘विशेषता’ और ‘प्रतियोगिता’ दोनों ऐसे धर्म है जो किसी यथार्थ वस्तु में ही रह सकते हैं, मिथ्या या असत्याति से सिद्ध वस्तु में नहीं रह सकते क्योंकि विश्ेाष्यता का अर्थ वियोषणाश्रयता है, यह आश्रयता अभाव पदार्थ में नहीं रह सकती है और प्रतियोगिता अभाव विरोधी भावरूप ही होती है। अतः एवं प्रतियोगिता भी वस्तु में ही रह सकती है। इसलिये असत्याति से उपनीत ईश्वर न तो विशेष्य हो सकत है और न ही प्रतियोगी । अतः ईश्वर के अभाव साधक दोनों अनुमान नहीं बन सकते।18
योग्यानुपलधि ही अभावसाधिका है अनुपलधिमात्र नहींः– जैसा कि हम यह बात पहले भी कह चुके हैं कि योग्यानुपलधि को अभाव साधिकमान से शशशृङ्ग का भी अभाव सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह प्रत्यक्ष के योग्य नहीं है, यह प्रतिबन्धक कहा गया है। यह पूर्वपक्ष का विचार है। अब सिद्धान्त पक्ष का इस विषय में यह कहना है कि हम अयोग्य शशशृङ्ग का अभाव सिद्ध नहीं करते हैं अपितु प्रत्यक्षयोग्य शृङ्ग का शश के साथ सबन्ध का निरास करते हैं, और शशशृङ्ग का निषेध न करने से उसका भाव सिद्ध नही हो सकता है क्योंकि उसका साधक कोई प्रमाण है ही नहीं। यदि आप शशशृङ्ग भी प्रत्यक्ष के योग्य है, और उसकी अनुपर्त्गव्ध योग्यानुपलधि ही है। अब यह प्रश्न उठता है कि यदि शशशृङ्ग प्रत्यक्ष के योग्य है तो उसका प्रत्यक्ष भी होना चाहिए, पर प्रत्यक्ष होता नहीं है। इस आशंका का समाधान करते हुए आचार्य उदयन का कहना है कि हाँ- जब उसके प्रत्यक्ष की सामग्री होगी तब उसका प्रत्यक्ष अवश्य होगा और यदि प्रत्यक्ष नहीं होता है तो यह मानना होगा कि उसके प्रत्यक्ष की सामग्री ही नहीं है। शशशृङ्ग के प्रत्यक्ष की सामग्री दोषयुक्त इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष आदि हैं। जैसे पीलिया रोग के रोगी को (पीतः शङ्ख) की प्रतीति होती है। यहाँ इस प्रतीति में पित्तादि दोषयुक्त नेत्र कारण होते हैं। एवमेव शशश्रृङ्ग के प्रत्यक्ष में भी दुष्ट अर्थात् दोष धरित प्रत्यक्ष, सामग्री होगी और उस सामग्री के होने पर शशशृङ्ग कााी प्रत्यक्ष हो सकता है। इसलिये शशशृङ्ग भी प्रत्यक्ष के योग्य हैं उसका अभाव योग्यानुपलधि से सिद्ध हो सकता है।19इस समीक्षा का निष्कर्ष यह है कि योग्यानुपलधि ही अभाव साधिका है, अनुपलधिमात्र नहीं।
आत्मा को पक्ष बनाकर बौद्धानुमान ईहाः– इसके बाद अब बौद्ध आत्मा को पक्ष बनाकर अनुमान प्रस्तुत करने की ईहा (चेष्टा) करता है कि ‘आत्मा न सर्वज्ञः आत्मत्वात्’ अथवा ‘आत्मा नक्षित्यादि कर्त्ता आत्मवात् अस्मदादिवत्’21 यह अनुमान प्रतिपादित किया है। इस अनुमान विषय पर आचार्य उदयन का कहना है कि पूर्व पक्षी बौद्ध किस आत्मा को पक्ष बनाकर यह अनुमान प्रदर्शित किया है। प्रसिद्ध आत्मा को अर्थात् जीवात्मा को अथवा अप्रसिद्धात्मा अर्थात् परमात्मा को यदि जीवात्मा को पक्ष बनाया गया है तो सिद्ध साधन या इष्टसिद्धि है, क्योंकि हम भी जीवात्मा को सर्वज्ञ या क्षित्यादि का कर्त्ता नहीं मानते हैं। और यदि अप्रसिद्ध आत्मा अर्थात् परमात्मा को पक्ष बनाया गया है तो उसके सिद्ध न होने से आश्रृ या सिद्धि हेत्वाभास तो पूर्ववत् है ही उसके अतिरिक्त ‘हेत्वसिद्धि अर्थात् स्वरूपासिद्धि भी हो जायेगी। पक्ष वृत्तिहोन हेतु का ज्ञान अनुमान का प्रयोजक होता है वह यहाँ पक्ष के न होने से पक्षवृत्तित्व विशिष्ट हेतु का ज्ञान भी अभाव होने से हेतु सिद्धि भी होगी।22’
एवमेव बौद्धों द्वारा ईश्वर के निरासार्थ अनेक प्रमाणों, अनुमानों का प्रयोग किया गया परन्तु उन सभी अनुमानों में आश्रय सिद्धि या स्वरूपा सिद्धि हो जाने से अभीष्ट सिद्धि न हो पाई है। आचार्य उदयन ने यह सिद्ध किया कि अनुपलधि तथा अनुमान इन दोनों प्रमाणों से ईश्वर का अभाव सिद्ध करने का प्रयास उनका असफल रहा क्योंकि अनुपलधि का अभाव सही मानने में तो आकाश, धर्माधर्मादि का भी विलोम हो जाता है जो बौद्ध को मान्य नहीं है। ये नित्य आत्मा तथा ईश्वर की सत्ता को तो नहीं मानते परन्तु आकाश, धर्माधर्मादि का अस्तित्व मानते हैं। इसलिये अनुपलधि को अभाव साधिका मानने से तो उक्त पदार्थों का निषेध होने लग जाता है तो बौद्धायभीत हो उठता है। इसी प्रकार अनुपलधि को अभाव साधिका मान लेने पर अनुमान प्रमाण का कोई उपयोग नहीं रहता है और उसके अनुमान का भी लोप हो जाता है, यह भी बौद्ध को अभीष्ट नहीं है क्योंकि बौद्ध प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनुमानादि प्रमाण को मानता ही नहीं है। और जब आकाश, धर्माधर्मादि और अनुमान के लोप का अवसर आता है तब वह चुप हो जाता है फलस्वरूप वह अनुपलधि को अभाव साधिका भी नहीं मान सकता है। वस्तुतः यह उसके सिद्धान्त की बहुत बड़ी कमजोरी है इस कारण वह ईश्वर का अभाव सिद्ध करने में असमर्थ रहा है।
प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर सिद्धिः– महर्षि दयानन्द प्रत्यक्ष प्रमाण से ईश्वर की सिद्धि करना अभीष्ट मानते हैं। वह यह जानते थे कि चार्वाक, जैन बौद्धादि नास्तिक मतानुयायी ईश्वर विषय में ईश्वर प्रत्यक्ष दिखाने पर बल देते हैं। परन्तु प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है। 1. बाह्य प्रत्यक्ष 2. आयन्तर प्रत्यक्ष प्रथम कोटि का प्रत्यक्ष चक्षुरादि इन्द्रिय जन्य होता है जो ईश्वर में नहीं घटता है क्योंकि ईश्वर सर्वातिसूक्ष्म होने के कारण चक्षुरादि स्थूल इन्द्रियों का विषय नहीं है। दूसरा अयन्तर प्रत्यक्ष है जो आत्मा द्वारा ही परमात्मा का साक्षात्कारात्मक ज्ञान प्राप्त करता है। जैसा कि प्राचीन ऋषियों ने आत्मा के द्वारा आत्मा (परमात्मा) को प्रत्यक्ष किया। इसलिये महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम पृष्ठ पर लिखा ‘नमो ब्राह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मवदिष्यामि’23
सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास जिसमें ईश्वर विषय तथा वेद विषय का निरूपरण किया है। इसमें ही ईश्वर सिद्धि के विषय में पूर्व प्रश्न उठाते हुए लिखा है कि ‘आप ईश्वर ईश्वर कहते हो उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो? (उत्तर) सब प्रत्यक्षादिप्रमाणों से (पूर्व) ईश्वर में प्रत्यक्षादिप्रमाण कभी नहीं घट सकते (उत्तर) इन्द्रियान सन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानं अव्ययदेश्यं अव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।’ यह गौतम महर्षि कृत न्याय दर्शन (1/1/4) का सूत्र है। जो श्रोत्रत्व चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्य और असत्य विषयों के साथ सबन्ध होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नहीं । जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का ज्ञान होने से गुणी पृथिवी उसका आत्मयुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है वैसे इस प्रत्यक्ष के होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता है वा चोरी आदि बुरी व परोपकार आदि अच्छी बाते करने में जिस क्षण में आरभ करता है उस समय जीव की इच्छा ज्ञान आदि उसी इच्छित विषय पर झुक जाती है, उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे काम करने में आय, निःशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है। और जब जीवात्मा शुद्ध हो के परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देखकर कारण का अनुमान होता है। (पूर्व.) ईश्वर व्यापक है वा किसी देश विशेष में रहता है? (उत्तर) व्यापक है, क्योंकि जो एक देश में रहता तो सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता सबका स्रष्टा, सबका धर्त्ता और प्रलय कर्त्ता नहीं हो सकता, अप्राप्तदेश में कर्त्ता की क्रिया का असभव है।24
उपदेश मंजरी के प्रथम उपदेश में ही ईश्वर सिद्धि का विषय है। यहाँ पर महर्षि ने कहा कि प्रथम हमें ईश्वर की सिद्धि करनी चाहिए उसके पश्चात् धर्मप्रान्ध का वर्णन करना योग्य है क्योंकि ‘सति कुडये चित्रम्’ इस न्याय से जब तक ईश्वर की सिद्धि नहीं हो जाती तब तक धर्म व्यायान करने का अवकाश नहीं।25
क्या उपासनार्थ उपास्य के आकार की आवश्यकता है?ः-
भक्त लोग प्रायः यह कहा करते हैं कि परमेश्वर की उपासना करने के लिए उसके आकार की आवश्यकता महसूस होती है। ‘इसी प्रकार भक्तों को उपासना करने के लिये ईश्वर का कुछ आकार होना चाहिए, परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीरस्थ जो जीव है, वह भी आकार रहित है, यह सब कोई मानते हैं अर्थात् वैसा आकार न होते भी हम परस्पर एक दूसरे को पहचानते हैं, प्रत्यक्ष कभी न देखते हुए भी केवल गुणानुवादों ही से सद्भावना और पूज्यबुद्धि मनुष्यादि के विषय में रखते हैं। उसी प्रकार ईश्वर के सबन्ध में नहीं हो सकता, यह कहना ठीक नहीं है। इसके सिवाय मन का आकार नहीं है मन के द्वारा परमेश्वर ग्राह्य है, उसे जड़ इन्द्रिय ग्राह्यता लगाना यह अप्रयोजक है।’26 प्रमाण बहुत प्रकार के हैं यथा-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द…….परन्तु सब शास्त्रकार अपने शास्त्र के उपयोगी प्रमाण को मानते हैं। ‘सारे प्रमाणों का अन्तर्भाव करके तीन प्रमाण अपशिष्ट रहते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। प्रत्यक्ष भी सविकल्प और निर्विकल्प होता है। अनुमान तीन प्रकार का होता है- पूर्ववत् शेषवत् और सामान्यतो दृष्ट। इन तीन प्रकार के प्रमाणों की व्यापिका ईश्वर सिद्धि विषयक प्रयत्न करते समय प्रत्यक्ष की व्यापिका (विचार) करने से पूर्व अनुमान की लापिका करनी चाहिये क्योंकि प्रत्यक्ष का ज्ञान बहुत संकुचित और शुद्र है’………इससे प्रत्यक्ष को एक ओर रखकर शास्त्रीय विषयों में अनुमान प्रमाण ही विशेष गिना गया है। व्यवहार के लिये अनुमान आवश्यक है। अनुमान के बिना भविष्य के व्यवहारों के विषय में हमारा जो दृढ़ निश्चय रहता है, वह निरर्थक होगा। कल सूर्य उदय होगा यह प्रत्यक्ष नहीं है तथापि इस विषय में किसी के मन में तिलमात्र की भी शंका नहीं होती।27
अनुमान और प्रत्यक्ष से ईश्वर सिद्धिः– ‘तीन प्रकार के अनुमान की लापिक करने से ईश्वर= परमपुरुष= सनातन ब्रह्म सब पदार्थों का बीज है, ऐसा सिद्ध होता है। रचना रूपी कार्य दिखता है, इससे अनुमान होता है कि इस सृष्टि को रचने वाला अवश्य कोई है। पंच महाभूतों की सृष्टि आप ही आप रची हुई नहीं है, क्योंकि व्यवहार में घर का सामान विद्यमान होने ही से केवल घर नहीं बन जाता, यह हमारा देाा हुआ अनुभव सर्वत्र है। साथ ही साथ पंच महाभूतों का मिश्रण नियमित प्रमाण से विशिष्ट उत्पन्न होने की ही सुगमता के लिए कभी भी आप स्वयं घटित नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि सृष्टि की व्यवस्था जो हम देखते हैं, उसका उत्पादक और नियंता ऐसा कोई श्रेष्ठ पुरुष अवश्य होना चाहिये।’28
‘अब किसी को यह अपेक्षा लगे कि ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण होना चाहिए, उसका विचार यूँ है कि प्रत्यक्ष रीति से गुण का ज्ञान होता है। गुण का अधिकरण जो गुणी द्रव्य है उसका ज्ञान प्रत्यक्ष रीति से नही होता। इसी प्रकार ईश्वर सबन्धी गुण का अधिकरण जो ईश्वर है उसका ज्ञान होता है, ऐसा समझना चाहिए।’29 ‘हिरण्य र्गाः’ इस मन्त्र को प्रस्तुत करके लिखा है कि हिरण्यर्गा का अर्थ शालिग्राम की वटिया नहीं है, किन्तु हिरण्य अर्थात् ‘ज्योति जिसके उदर में है, वह ज्योति स्वरूप परमात्मा ऐसा अर्थ है।’
यत्र नान्यत् पश्यति नान्यत् शृणोति नान्यत्विजानाति स भूमा
यत्र अन्यत् पश्यति अयत् शृणोति, अन्यत् विजानति तत् अल्पभ।
यो वैभूमा तदमृतमथ यदलयं तन्मर्त्यं स भगवः कस्मिन्
प्रतिष्ठितः इति स्वे महिति यदिवा न महिम्रीति।30
जब उपासक अन्य वस्तुओं को जानता नहीं। वह भूमा है। और जब उपासक अन्य वस्तु को देखता है। अन्य वस्तु को सुनता है। अन्य वस्तु को जानता है। वह अल्प है। जो भूमा है वही अमृत है। जो अल्प है वही मर्त्य मरण योग्य है। नारद- वह भूमा किसमें प्रतिष्ठित है? सनत्कुमार-निज महिमा में यह प्रतिष्ठित है।
एतदालबनं श्रेष्ठ एतदालंवनं परम्।
एतदालंवनं ज्ञात्वा स ब्रह्म लेके महीयते।।
टिप्पणियाँ
- सत्यार्थप्रकाश, पृ. 383
- सत्यार्थप्रकाश, पृ. 383-384
- अमरकोश 118
- सत्यार्थप्रकाश, 12वाँ समु., पृ. 384 पर स्वामी वेदानन्द की टिप्पणी
- वही देखें, पृ. 384
- वही देखें, पृ. 384
- न्याय कुसुमांजलि, तृतीयस्तबक, पृ. 101
- वही देखें, पृ. 101
- न्याय कुसुमांजलि, पृ. 101
- वही देखें, पृ. 103
- वही देखें, पृ. 102
- वही देखें, पृ. 102
- वही देखें, पृ. 103
- वही देखें, पृ. 103
- तर्कभाषा, पृ. 111
- वही देखें, पृ. 103
- वही देखें, पृ. 103
- वही देखें, पृ. 104
- वही देखें, पृ. 105
- वही देखें, पृ. 106
- वही देखें, पृ. 106
- सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समु., पृथम पृथम पृष्ठ
- सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समु., पृ. 154-155
- उपदेश मंजरी, पृ. 2
- वही देखें, पृ. 3
- उपदेश मंजरी, पृ. 3
- वही देखें, पृ. 4
- छान्दोग्योपनिषद् 7/24/1
– ई-128, गोविन्दपुरी, सोडाला, जयपुर, राज.