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हम आयु, तेज, समृद्धि आदि प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार

हम आयु, तेज, समृद्धि आदि  प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वत्सप्री: । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्नेऽभ्यावर्तिन्नूभि निवर्तस्वायुषा वर्चसा प्रजय धनेन। सुन्या मेधयां रय्या पोषेण

-यजु० १२ । ७ |

हे ( अभ्यावर्तिन् अग्ने ) शरीर में अनुकूलता के साथ रहनेवाली प्राणाग्नि ! (अभिमानिवर्तस्व) मेरे शरीर में निरन्तर विद्यमान रह ( आयुषा ) स्वस्थ आयु के साथ, ( वर्चसा ) वर्चस्विता के साथ, (प्रजया) उत्कृष्ट प्रजननशक्ति एवं प्रजा के साथ, ( धनेन ) धन के साथ ( सन्या) इष्ट प्राप्ति के साथ, ( मेधया ) धारणावती बुद्धि के साथ, ( रय्या) विद्या-श्री के साथ ( पोषेण ) पुष्टि के साथ।

शरीर में जब तक प्राणाग्नि प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान आदि द्वारा सुचारुतया कार्य करती रहती है, तब तक शरीर जीवित रहता है। अतः मैं चाहता हूँ कि शरीर में आकर अनुकूलता के साथ रहनेवाली प्राणाग्नि मेरे अन्दर निरन्तर विद्यमान रहे। परन्तु केवल प्राणाग्नि शरीर में विद्यमान रहे, अन्य आवश्यक साज न हो, तो भी शरीर में होने के बराबर है। इसलिए मन्त्र में प्राणाग्नि के साथ अन्य समस्त साज की भी याचना की गयी है, ‘स्वस्थ एवं दीर्घ आयु, वर्चस्विता, उत्कृष्ट प्रजननशक्ति एवं प्रजा, धन, इष्ट लाभ, बुद्धि, विद्या श्री और पुष्टि । प्रत्येक मनुष्य की अभिलाषा होती है कि उसे स्वस्थ दीर्घायुष्य प्राप्त हो, रुग्ण दीर्घायुष्य कोई नहीं चाहता। रुग्ण दीर्घायुष्य की अपेक्षा स्वस्थ अल्पायुष्य अधिक अच्छा  है। साथ ही मनुष्य के आत्मा में वर्चस्विता भी होनी चाहिए। विज्ञान, स्मृतिशक्ति, सदाचार आदि आत्मा के गुणों का नाम वर्चस् है। वर्चस् में ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज दोनों आ जाते हैं। फिर मनुष्य को प्रजननशक्ति और प्रजा भी प्राप्त होनी चाहिए। अपने और अपने परिवार के पालन के लिए धन भी आवश्यक वस्तु है। धन में रुपया-पैसा, बँगले-कोठी, खाद्य सामग्री, मनोरञ्जन की वस्तुएँ आदि सभी पदार्थ आ जाते हैं। धन के अतिरिक्त अन्य बहुत-सी अभीष्ट प्राप्तियों की भी आवश्यकता पड़ती है-यथा, सुख की प्राप्ति, यश की प्राप्ति, सद्गुणों की प्राप्ति, ईश्वर-भक्ति की प्राप्ति, कर्मण्यता की प्राप्ति । ये समस्त प्राप्तियाँ ‘सनि’ के अन्तर्गत आ जाती हैं। इनके अतिरिक्त ‘मेधा’ या धारणावती बुद्धि भी जीवन का अनिवार्य अङ्ग है। बुद्धि से ही मनुष्य अनेकविध सफलताओं को पाने में समर्थ होता है। बुद्धि के साथ विद्या-श्री भी चाहिए, क्योंकि विद्याविहीन जन पशुतुल्य माना जाता है। ऊपर जिन पदार्थों की चर्चा की गयी है, वे प्राप्त भी हो जाएँ, पर क्षीण होते चलें तो भी मनुष्य कृतकार्य नहीं हो सकते। अतः समस्त प्राप्त ऐश्वर्यों की पुष्टि भी होती रहनी चाहिए।

हे प्राणाग्नि! तुम उक्त सब ऐश्वर्यों के साथ हमारे अन्दर निवास करो तथा हमें सर्वोन्नत जनों की श्रेणी में ला बैठाओ।

पादटिप्पणियाँ

१. (अभ्यावर्तिन्) आभिमुख्येन वर्तितु शीलं यस्य-द० ।

२. सन्या=इष्टलाभेन–म० | षण सम्भक्तौ, भ्वादिः ।३०.४.१४१ इ प्रत्यय। सन्यते संभज्यते इति सनिः ।।

३. रयि शब्द धनवाची है। धन मन्त्र में पृथक् आ चुका है, अतः यहाँविद्याधन अभिप्रेत है। रय्या=विद्याश्रिया-द० ।

हम आयु, तेज, समृद्धि आदि  प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार