अग्नि परमेश्वर सबके साथ है – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दध्यङ् अथर्वणः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् ब्राह्मी अनुष्टुप् ।
समग्निरग्निना गत सं दैवेन सवित्रा ससूर्येणारोचिष्ट।
स्वाहा समुग्निस्तपसा गत सं दैव्येन सवित्रा ससूर्येणारूरुचत ।
-यजु० ३७.१५ |
( अग्निः ) तेजस्वी परमेश्वर ( अग्निना ) पार्थिव अग्नि के साथ ( सं गत ) संस्थित है, (दैव्येन सवित्रा ) विद्वानों के हितकारी वायु के साथ ( सं ) संस्थित है, (सूर्येणसंरोचते) सूर्य के साथ चमक रहा है। (स्वाहा ) उस तेजस्वी परमेश्वराग्नि की हम जय बोलते हैं। ( अग्निः ) तेजस्वी परमेश्वर ( तपसा सं गतः ) ग्रीष्म ऋतु के साथ संस्थित है, ( दैव्ये न सवित्रा ) विद्वानों के हितकर्ता विद्युत् अग्नि के साथ ( सं ) संस्थित है। वही तेजस्वी परमेश्वराग्नि (सूर्येण ) सूर्य के द्वारा ( अरूरुचत ) सबको चमकाता रहा है।
ब्रह्माण्ड में जो भी अद्भुत कलाकृतियाँ दिखायी देती हैं, उन सबमें कोई कलाकार बैठा झाँक रहा है। इनमें एक कलाकृति ‘अग्नि’ है। प्राचीन याज्ञिक लोग उत्तरारणि और अधरारणि को परस्पर रगड़ कर यज्ञकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित करते थे। जङ्गल में बांसों की रगड़ से अग्नि उत्पन्न हो जाती है। आजकल का सरल उपाय यह है कि दीपशलाका की मसाले-लगी डिबिया की पीठ पर शलाका को रगड़ कर अग्नि जलाते हैं। उत्पन्न की गयी सूक्ष्म अग्नि ईंधन पाकर ऊँची विकराल ज्वालाओं को धारण कर लेती है। इस अग्नि में कितनी शक्ति है, कितनी उज्ज्वलता है, कितनी तेजस्विती है। इस अग्नि में अग्रणी परमेश्वर कारीगर बनकर बैठा हुआ है। फिर ‘सविता’ को देखो। ‘सवितृ’ शब्द निरुक्त में मध्यमस्थानीय तथा उत्तमस्थानीय दोनों प्रकार के देवों में पठित होने से इसके अर्थ मध्यमस्थानीय वायु तथा उत्तम स्थानीय सूर्य दोनों होते हैं। यहाँ सूर्य पृथक् पठित होने से प्रस्तत स्थल में सविता प्रेरक वाय के अर्थ में है। कभी यह सविता वायु शीतल सगन्धित रूप से मन्द-मन्द चलता है और कभी प्रचण्ड उष्ण झंझावात का रूप धारण कर लेता है। मन्द-मन्द बहता हुआ यह मन में कैसी शान्ति उत्पन्न करता है और प्रखरता से धूल के चक्रवात के साथ उड़ता हुआ, बाधाओं को तोड़ता-फोड़ता हुआ, कभी बिजली की कड़क और वर्षा को साथ लेता हुआ भूमि की कैसी सफाई कर डालता है। इस सविता वायु को उत्पन्न करनेवाला और चलानेवाला परमेश्वर भी इसी के साथ बैठा हुआ है। जो उसे देखना चाहते हैं, उन्हें वह अपने पूरे साज के साथ दीख जाता है। फिर द्युलोक के देदीप्यमान राजमुकुट सूर्य की ओर भी दृष्टिपात करो। पृथिवी, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि ग्रहों तथा इनके उपग्रहों को अपने आकर्षण की डोर से पकड़कर वेग से अपने चारों ओर घुमाता हुआ और इन्हें अपने प्रकाश से प्रकाशित और प्राण से अनुप्राणित करता हुआ यह कितना बड़ा सम्राट् बना हुआ है। इस सूर्य में भी परमात्माग्नि चमक रहा है, अपनी छवि बखेर रहा है।
फिर देखो, वह तेजस्वी परमेश्वर ग्रीष्म ऋतु के साथ भी सङ्गत है। ग्रीष्म की तपस कैसी उग्र होती है। यह उग्रता देनेवाला अग्रणी जगदीश्वर ही है। वह तेजोमय परमेश दैव्य सविता के साथ, दीप्तिमान् विद्युद्वजे के साथ भी सङ्गत है। विद्युत् को चमकाने-गर्जानेवाला वही है। वही परमेश्वर सूर्य द्वारा सबको प्रकाशित और रोचमान कर रहा है।
इसी प्रकार प्रकृति के अन्य सजीले पदार्थों के साथ भी वह सङ्गत है। वह पर्वतों के साथ सङ्गत है, समुद्रों के साथ सङ्गत है, बादलों के साथ सङ्गत है, वन-उपवनों के साथ सङ्गत है, स्रोतों-सरोवरों के साथ सङ्गत है, पुष्पित-फलित, हरित पत्रों से अलंकृत वृक्षों के साथ सङ्गत है। आओ, सब रमणीक पदार्थों में बैठे हुए उस परमेश्वर के दर्शन करें, उसकी विभूति को देखें और उस पर मुग्ध हों।
अग्नि परमेश्वर सबके साथ है – रामनाथ विद्यालंकार