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बाइबल में यहोवा का भयंकर विज्ञान

जी हाँ इतना विज्ञानं आप सुनकर चौंक जायेंगे –वैसे तो किसी भी पशु का मांस नहीं खाना चाहिए क्योंकि ये मनुष्यता नहीं – फिर भी यहोवा को कुछ अकल आई और उसने कुछ पशुओ को अशुद्ध ठहरा दिया – उन पशुओ में सूअर, शापान आदि के साथ साथ एक जानवर आपने देखा होगा – “खरगोश” – इसके मांस को – यहोवा ने अशुद्ध बताया है –आइये एक नजर डालिये

– की इन पशुओ में क्या ऐसा है जो इनको अशुद्ध बनाता है – और अन्य पशुओ को शुद्ध –1 फिर यहोवा ने मूसा और हारून से कहा

2. इस्त्राएलियों से कहो, कि जितने पशु, पृथ्वी पर हैं उन सभों में से तुम इन जीवधारियों का मांस खा सकते हो।

3. पशुओं में से जितने चिरे वा फटे खुर के होते हैं और पागुर करते हैं उन्हें खा सकते हो।

4. परन्तु पागुर करने वाले वा फटे खुर वालों में से इन पशुओं को न खाना, अर्थात ऊंट, जो पागुर तो करता है परन्तु चिरे खुर का नहीं होता, इसलिये वह तुम्हारे लिये अशुद्ध ठहरा है।

5. और शापान, जो पागुर तो करता है परन्तु चिरे खुर का नहीं होता, वह भी तुम्हारे लिये अशुद्ध है।

6. और खरहा, जो पागुर तो करता है परन्तु चिरे खुर का नहीं होता, इसलिये वह भी तुम्हारे लिये अशुद्ध है।

7. और सूअर, जो चिरे अर्थात फटे खुर का होता तो है परन्तु पागुर नहीं करता, इसलिये वह तुम्हारे लिये अशुद्ध है

8. इनके मांस में से कुछ न खाना, और इनकी लोथ को छूना भी नहीं; ये तो तुम्हारे लिये अशुद्ध है॥ (लैव्यव्यवस्था, अध्याय ११)

तो देखा आपने – शुद्ध और अशुद्ध का निराकरण करना – वो भी बाइबिल के यहोवा का तर्कसम्मत विज्ञानं ? क्या कोई जीव – ईश्वर की नजर में अशुद्ध है ?

फिर बनाया क्यों ?

अब क्या ऐसे को जो अपनी ही बनाई सृष्टि में कुछ पक्षपात करता डोलता है – शुद्ध अशुद्ध का भेद करके – उसे ईश्वर कह सकते हैं –चलिए इस विषय पर फिर कभी चर्चा करेंगे अभी तो ऊपर की आयत में यहोवा का भयंकर विज्ञानं पढ़िए – हंसी आएगी कि बाइबिल का यहोवा इतना मुर्ख ?

3 पशुओं में से जितने चिरे वा फटे खुर के होते हैं और पागुर करते हैं उन्हें खा सकते हो।यानी जो पशु जुगाली करते हो और उनके खुर फटे हो – यानी खुर (hoof) में फटाव हो – अथवा बंटे हो – ये दोनों स्थति होनी चाहिए =

अब देखिये – यहोवा का मंदबुद्धि विज्ञान 6 और खरहा, जो पागुर तो करता है परन्तु चिरे खुर का नहीं होता, इसलिये वह भी तुम्हारे लिये अशुद्ध है।यहाँ खरगोश को अशुद्ध बताया है – यानी खरगोश जुगाली तो करता है मगर उसके खुर फटे नहीं होते –किसी भाई ने खरगोश को जुगाली करते देखा ?खरगोश के खुर फटे होते हैं।क्या ये नार्मल सी बाते भी बाइबिल के यहोवा को नहीं मालूम ?हाँ केवल आदम हव्वा से दुनिया के अनेक मनुष्य बनाता है – इतना ही अक्ल है –वाह जी वाह – क्या विज्ञानं है यहोवा का ?

इतने पर भी मेरे ईसाई मित्र कहते हैं –बाइबिल में विज्ञान है। भाई ऐसे विज्ञानं को आप ही पढ़ो और आप ही बांटो –हम से न होगा हंसो मत भाई – यहोवा को बुरा लग गया – तो क़यामत भेज देगा –बताओ इतना मंदबुद्धि और कम अक्ल वाला बाइबिल का यहोवा अपने को सर्वज्ञ और ईश्वर कहलवाता है – मेरे ईसाई मित्रो – इस विज्ञानं पर कुछ बोलना है ? ज्ञान और विज्ञानं वेद में है – उसे अपना इस ढोंग को छोडो – धर्म से नाता जोड़ो – लौटो वेदो की ओर

( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व

|| ओ३म् ॥
( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
वैदिक धर्म में सिर पर चोटी (शिखा ) धारण करने का असाधारण महत्व है। प्रत्येक बालक के जन्म के बाद मुण्डन संस्कार के
नवजात बच्चे पश्चात् सिर के उस भाग पर गौ के के खुर के प्रमाण वाले आकार की चोटी रखने का विधान है।
यह वही स्थान सिर पर होता है, जहां से सुषुम्ना नाड़ी पीठ के मध्य भाग में से होती हुई ऊपर की ओर आकर समाप्त होती है
और उसमें से सिर के विभिन्न अंगों के वात संस्थान का संचालन करने के लिए अनेक सूक्ष्म वात नाड़ियों का प्रारम्भ होता है ।
सुषुम्ना नाड़ी सम्पूर्ण शरीर के वात संस्थान का संचालन करती है।
दूसरे शब्दों में उसी से वात संस्थान प्रारम्भ व संचालित होता है। यदि इसमें से निकलने वाली कोई भी नाड़ी किसी भी कारण
से सुस्त पड़ जाती है तो उस अंग को फालिज़ (अधरंग) मारना कहते हैं। आप यह ध्यान रक्खें कि समस्त शरीर को जो भी
शक्ति मिलती है, वह सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा ही मिलती है।
सिर के जिस भाग पर चोटी रखी जाती है, उसी स्थान पर अस्थि के नीचे लघुमस्तिष्क का स्थान होता है, जो गौ के नवजात
बच्चे के खुर के ही आकार का होता है और शिखा भी उतनी ही बड़ी उसके ऊपर रखी जाती हैं।
बाल गर्मी पैदा करते हैं। बालों में विद्युत का संग्रह रहता है जो सुषुम्ना नाड़ी को उतनी ऊष्पा हर समय प्रदान करते रहते हैं,
जितनी कि उसे समस्त शरीर के वात नाड़ी संस्थान को जागृत व उत्तेजित रखने के लिए आवश्यकता होती है। इसका
परिणाम यह होता है कि मानव का वात नाड़ी संस्थान आवश्यकतानुसार जागृत रहता है जो समस्त शरीर को बल देता है।
किसी भी अंग में फालिज गिरने का भय नहीं रहता. है । और साथ ही लघु मस्तिष्क विकसित होता रहता है जिसमें जन्म-
जन्मान्तरों के एवं वर्तमान जन्म के संस्कार संग्रहीत रहते हैं।
यह परीक्षण करके देखा गया है कि बड़ी गुच्छेदार शिखा धारण करने वाले दाक्षिणीय ब्राह्मणों के मस्तिष्क शिखा न रहने
वाले ब्राह्मणों की अपेक्षा विशेष विकसित पाये गये हैं। यह परीक्षण अनेक वैज्ञानिकों ने दक्षिण भारत में किया था।
सुषुम्ना का जो भाग लघुमस्तिष्क को संचालित करता है । वह उसे शिखा द्वारा प्राप्त ऊष्मा (विद्युत) से चैतन्य बनाता है।
इससे स्मरण शक्ति भी विकसित होती है।
वेद में शिखा धारण करने का विधान कई स्थानों पर मिलता है, देखिये-
शिखिभ्यः स्वाहा॥

  • अथर्ववेद १९-२२-१५
    अर्थ- चोटी धारण करने वालों का कल्याण हो। आत्मन्नुपस्थे न वृकस्य लोम मुखे श्मश्रूणि न व्याघ्रलोमा केशा न शीर्षन्यशसे
    श्रियैशिखा सिँहस्य लोमत्विषिरिन्द्रियाणि ॥
  • यजुर्वेद अध्याय १९ मन्त्र ९२ यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें।
    याज्ञिकैगोदर्पण माजनि गोक्षुर्वच्च शिखा ।
  • यजुर्वेदीय काठकशाखा । अर्थात् सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त मानव को गौ के खुर के बराबर स्थान में चोटी रखनी चाहिये।
    नोट-गौ के खुर के प्रमाण से तात्पर्य है कि गाय के पैदा होने के समय बछड़े के खुर के बराबर सिर पर चोटी धारण करें।
    • केशानाँ शेष कारणं शिखास्थापनं केश शेष करणम्।

इति मंगल हेतोः ॥
.
-पारस्कर गृह्य सूत्र
मुण्डन संस्कार के बाद जब भी बाल सिर के कटावे तो चोटी के बालों को छोड़कर शेष बाल कटावे, मंगलकारक होता है।
सदोपवीतिना भाव्यं सदा वद्धशिखेन च। बिशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम् ॥
यह

  • कात्यायन स्मृति ४ अर्थ-यज्ञोपवीत सदा धारण करें तथा सदा चोटी में गांठ लगा कर रखें। बिना शिखा व यज्ञोपवीत के
    कोई यज्ञ सन्ध्योपासनादि कृत्य न करें अन्यथा वह न करने के ही समान है।
    बड़ी शिखा धारण करने से वीर्य की रक्षा करने में भी सहायता मिलती है। शिखा बल-बुद्धि लक्ष्मी व स्मृति को संरक्षण प्रदान
    करती है।
    एक अंग्रेज डॉक्टर विक्टर ई क्रोमर ने अपनी पुस्तक विरलि कल्पक में लिखा है जिसका भावार्थ निम्न प्रकार है-
    ध्यान करते समय ओज शक्ति प्रकट होती है। किसी वस्तु पर चिन्तन शक्ति एकाग्र करने से ओज शक्ति उसकी ओर दौड़ने
    लगती है।
    यदि ईश्वर पर ध्यान एकाग्र किया जावे तो मस्तिष्क के ऊपर शिखा के चोटी के मार्ग से ओज शक्ति प्रकट होती है या प्रवेश
    करती है। परमात्मा की शक्ति इसी मार्ग से मनुष्य के भीतर आया करती है।
    सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न योगी इन दोनों शक्तियों के असाध रण सुन्दर रंग भी देख लेते हैं। जो शक्ति परमात्मा के द्वारा मस्तिष्क में
    आती है वह वर्णनातीत है।
    प्रोफेसर मैक्समूलर ने भी लिखा था-
    The Concentration of mind upwards sends a rush of this power through the of the head.
    अर्थात् शिखा द्वारा मानव मस्तिष्क सुगमता से इस ओज शक्ति को धारण कर लेता है। श्री हापसन ने भारत भ्रमण के पश्चात्
    एक लेख में गार्ड पत्रिका नं० २५८ में लिखा था।
    For a long time in India I studied on Indian civilization and tradition southern Indians cut their hair up to
    half head only. I was highly effected by their mentality. I assert that the hair tuft on head is very useful in
    Culture of mind. I also believe in Hindu religion now. I am very particular about hair tuft.
    अर्थात् भारत में कई वर्षों तक रहकर मैंने भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं का अध्ययन किया। दक्षिण भारत
    में आधे सिर तक बाल रखने की प्रथा है। उन मनुष्यों की बौद्धिक विलक्षणता से मैं प्रभावित हुआ। निश्चित रूप से शिखा
    बौद्धिक उन्नति में बहुत सहायक है । मेरा तो हिन्दू धर्म में अगाध विश्वास है और अब मैं चोटी धारण करने का कायल हो गया
    हूँ।
    इसी प्रकार सरल्यूकस वैज्ञानिक ने लिखा है-
    शिखा का शरीर के अंगों से प्रधान सम्बन्ध है। उसके द्वारा शरीर की वृद्धि तथा उसके तमाम अंगों का संचालन होता है। जब
    से मैंने इस वैज्ञानिक तथ्य का अन्वेषण किया है मैं स्वयं शिखा रखने लगा हूँ।

सिर के जिस स्थान पर शिखा होती है उसे Pinial- Joint कहते हैं। उसके नीचे एक ग्रन्थि होती है जिसे Picuitary कहते हैं।
इससे एक रस बनता है जो सम्पूर्ण शरीर व बुद्धि को तेज सम्पन्न तथा स्वस्थ एवं चिरंजीवी बनाता है। इसकी कार्य शक्ति
चोटी के बड़े बालों व सूर्य की प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है।
मूलाधार से लेकर समस्त मेरु मण्डल में व्याप्त सुषुम्ना नाड़ी का एक मुख ब्रह्मरन्ध ( बुद्धि केन्द्र) में खुलता है।
इसमें से तेज (विद्युत) निर्गमन होता रहता है।
शिखा बन्धन द्वारा यह रुका रहता है। इसी कारण से शास्त्रकारों ने शिखा में गांठ लगाकर रखने का विधान किया है।
डॉक्टर क्लार्क ने लिखा है- के
मुझे विश्वास हो गया है कि हिन्दुओं का हर एक नियम विज्ञान से भरा हुआ है। चोटी रखना हिन्दुओं का धार्मिक चिन्ह ही नहीं
बल्कि सुषुम्ना नाड़ी की रक्षा लिए ऋषियों की खोज का एक विलक्षण चमत्कार है।
अर्ल टामस ने सन् १८८१ में अलार्म पत्रिका के विशेषांक में लिखा था-
Hindus keep safety of Medulla oblongle by lock of hair. It is superior than other religious experiments.
Any way the safety of oblongle is essential.
अर्थात् सुषुम्ना की रक्षा हिन्दू शिखा रख कर करते हैं। अन्य धर्म के कई प्रयोगों में चोटी सबसे उत्तम है। किसी भी प्रकार
सुषुम्ना की रक्षा आवश्यक है।
गुच्छेदार चोटी बाहरी उष्णता को अन्दर आने से रोकती है और सुषुम्ना व लघुमस्तिष्क तथा सम्पूर्ण स्नायविक
संस्थान की गर्मी से रक्षा करती है और शारीरिक विशेष उष्णता को बाहर निकाल देती है। हां, यदि अत्यन्त उष्ण प्रदेश हो तो
शिखा न रखना भी हानिकारक नहीं होगा।
संन्यासी ( चतुर्थ आश्रमी ) को शिखा न रखने का आदेश इस आधार पर है कि उसने तीन आश्रमों में उसे रखकर शरीर को पुष्ट
कर लिया होता है और चौथे आश्रम में वह योगाभ्यास द्वारा वात नाड़ी संस्थान को पुष्ट करता रहता है, अतः उसके लिये
शिखा विहित नहीं रह जाती है।

  • इस प्रकार वैदिक धर्म में शिखा वैज्ञानिक- आयुर्वेदिक तथा धार्मिक दृष्टि से मानव मात्र के लिये अत्यन्त उपयोगी है । किन्तु
    उससे लाभ तभी होगा जबकि शास्त्रादेश के अनुसार गौ के पैदाशुदा बच्चे के खुर के बराबर की जगह पर रखकर उसे बड़ा
    किया जायेगा व ग्रन्थि लगाकर रखा जावेगा।
    जापानी पहलवान अपने सिर पर मोटी चोटी गांठ लगाकर धारण करते हैं, यह भारतीय परम्परा जापान में आज भी
    विद्यमान देखी जा सकती है।
    चोटी के बाल वायु मण्डल में से प्राणशक्ति ( आक्सीजन) को आकर्षण करते हैं और उसे शरीर में
    स्नायविक संस्थान के माध्यम से पहुंचाते हैं। इससे ब्रह्मचर्य के संयम में सहायता मिलती है। जबकि शिखाहीन व्यक्ति कामुक व
    उच्छृंखल देखे जाते हैं।
    शिखा मस्तिष्क को शान्त रखती है तथा प्रभु चिन्तन में साधक को सहायक होती है। शिखा गुच्छेदार रखने व उससे गांठ
    बांधने के कारण प्राचीन आर्यो में ब्रह्मचर्य -तेज- मेधा बुद्धि व दीर्घायु तथा बल की विलक्षणता मिलती थी।
    जब से अंग्रेजी कुशिक्षा के प्रभाव में शिखा व सूत्र का परित्याग करना प्रारम्भ कर दिया है उनमें यह शीर्षस्थ गुणों का निरन्तर
    ह्रास होता चला जा रहा है।

पागलपन-अन्धत्व तथा मस्तिष्क के रोग शिखाधारियों को नहीं होते थे, वे अब शिखाहीनों में बहुत देखे जा सकते हैं।
जिस शिखा व सूत्र की रक्षा के लिए लाखों भारतीयों ने विधर्मियों के साथ युद्धों में प्राण देना उचित समझा, अपने बलिदान
दिये। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी गुरु गोविन्दसिंह धर्मवीर हकीकतराय आदि सहस्रों भारतीयों ने चोटी जनेऊ की रक्षार्थ
अन्तिम बलिदान देकर भी इनकी
रक्षा मुस्लिम शासन के कठिन काल में की, उसी चोटी जनेऊ को आज का बाबू टाइप का अंग्रेजीयत का गुलाम सांस्कृतिक
चिन्ह (चोटी जनेऊ) को त्यागता चला जा रहा है यह कितने दुःख की बात है।
आज के इस बाबू को इन परमोपयोगी धार्मिक एवं स्वास्थ्यवर्धक प्रतीकों को धारण करने में ग्लानि व हीनता महसूस होती
है।
परन्तु अंग्रेजी गुलामी की निशानी ईसाईयत की वेषभूषा पतलून पहन कर खड़े होकर मूतने (पेशाब करने) में कोई शर्म
अनुभव नहीं होती है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक है तथा भारतीय दृष्टि से घोर असभ्यता की निशानी है।
आजकल का ये सभ्य कहलाने वाला व्यक्ति जहाँ चाहे खड़े होकर स्त्रियों, बच्चों अन्य पुरुषों की उपस्थिति का ध्यान किये बिना
ही मूतने लगता है, जबकि टट्टी और पेशाब छिपकर आड़ में एकान्त स्थान में त्यागने की भारतीय परम्परा है।
प्रश्न- यदि केवल चोटी न रखकर समस्त सिर पर लम्बे बाल रखे जावें तो क्या हानि होगी?
उत्तर-तालु भाग पर लम्बे बालों से स्मृति शक्ति कम हो जावेगी, दाहिने कान के ऊपर सिर पर लम्बे बालों से जिगर को हानि
होगी व बायें कान के ऊपर के भाग पर रखने से प्लीहा को नुकसान पहुंचेगा।
स्त्रियों के सिर पर लम्बे बाल होना उनके शरीर की बनावट तथा उनके शरीरगत विद्युत के अनुकूल रहने से उनको अलग से
चोटी नहीं रखनी चाहिए। उनका फैशन के चक्कर में पड़कर बाल कटाना अति हानिकारक रहता है।
अतः स्त्रियों को बाल कदापि नहीं कटाने चाहिये।
समाप्त।

महर्षि दयानन्दकृत यजुर्वेद भाष्य में ईश्वर-स्वरूप :-डॉ. कृष्णपाल सिंह

इषे त्वोर्जे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा वस्तेन ईशत माघशंसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौस्यात वह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।

-यजु. १। १

इस मन्त्र के प्रतिपाद्य विषय का निर्देश करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘अथोत्तमकर्मसिद्धयर्थमीश्वरः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते’ अर्थात् उत्तम कर्म की सिद्धि के लिये ईश्वर की प्रार्थना अवश्य करनी चाहिये, इस बात का मन्त्र में उपदेश है। मन्त्र का ऋषि परमेष्ठी प्रजापति है और देवता सविता-ईश्वर है। वेद चार हैं जिनमें ऋग्वेद स्तुति प्रधान है जैसा कि ऋषियों ने कहा है कि ‘ऋग्भिःस्तुवन्ति’ अर्थात् ऋचाओें=ऋग्वेदीय मन्त्रों के साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा उनकी स्तुति अर्थात् गुणानुवाद का यथार्थ कथन किया जाता है। आचार्य यास्क ने निरुक्त शास्त्र में लिखा है कि ‘यजुभिर्यजन्ति’अर्थात् यजु. मन्त्रों के द्वारा यज्ञ-कर्म का निरूपण किया गया है। यजुर्वेद में कर्म का प्राधान्य है अर्थात् क्रिया प्रधान है। यजुर्वेदीय मन्त्रों से कर्म-क्रिया का सम्पादन होता है।

अतएव क्रिया-कर्मप्रधान वेद के प्रथम मन्त्र में ही कहा गया है कि ‘प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे’ अर्थात् श्रेष्ठ कर्मों का सम्पादन करो। महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में कहा है कि ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ यज्ञ अर्थात् परोपकार करना ही श्रेष्ठ कर्म है। परोपकारार्थमिदं शरीरम्। इस वेद में विभिन्न स्थानों पर श्रेष्ठ कर्म करने का उपदेश है। जैसे यजुर्वेद के ४० वें अध्याय में कहा है कि ‘कुर्वन्नेवेहकर्माणिजिजीविषेच्छतं समाः’ अर्थात् इस संसार में मनुष्य जब तक जीवित रहे, तब तक शुभकर्म करते हुए जीने की इच्छा करे। क्योंकि यह शरीर भस्म होने वाला है। अपनी शक्ति (सामर्थ्य) का स्मरण कर, अपने कार्यों का स्मरण कर, ओ३म् पद वाच्य ब्रह्म-परमात्मा का स्मरण कर। इस प्रकार सम्पूर्ण यजुर्वेद अर्थात् आद्यन्तमध्य में भी श्रेष्ठ कर्म करने की प्रेरणा देता है। प्रकृत मन्त्र में परमात्मा ने आशीर्वाद रूप में कहा है कि श्रेष्ठ कर्म करते हुए इस जगत् में खूब उन्नति प्राप्त करो। ‘आप्यायध्वम् अघ्न्याः’ अर्थात् अहिंसित कर्म करते हुए समग्र ऐश्वर्य को प्राप्त करो। ‘यजमानस्य पशून्पाहि’ कहकर मन्त्र में यजमान के पशुओं की रक्षा करने का उपदेश यह कह रहा है कि वेद में सर्वथा हिंसा का निषेध है। मनुष्य की आजीविका के साधन भी अहिंसनीय होने की प्रेरणा है। इस लिये वेद में श्रेष्ठ कर्म करने की बात कही है और हिंसादि दुष्ट कर्म का निषेध जानना चाहिये।

परन्तु आज सम्पूर्ण संसार मांसाहार की ओर जा रहा है जो कि हिंसा का मार्ग है। वेद प्राणियों की हिंसा न करने की प्रेरणा दे रहा है। हे प्रभु! आप ही उन सब मनुष्यों के हृदय में परपीड़ा समझने का ज्ञान प्रदान कर, जिससे हिंसा कर्म संसार से समाप्त हो जाये। मन्त्र में सविता परमात्मा सकल जगत् अर्थात् दृश्यादृश्य, स्थूल-सूक्ष्म जगत् का उत्पादक, समग्र ऐश्वर्ययुक्त अपनी परमकृपा से सब प्राणियों को अन्न जलादि पदार्थों की प्राप्ति कराता है। वही सब जगत् की रक्षा करता है। उसकी रक्षा एवं कृपा के बिना किसी भी पदार्थ वा प्राणी का रक्षण कठिन है। वह सबको प्राणप्रिय है। उसकी प्राण-शक्ति के आधार पर समस्त प्राणी-जगत् तथा भौतिक जगत् के पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में स्थित दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इसके अभाव में कोई वस्तु अपने स्वरूप में स्थित नहीं रह सकती। यह प्राण-शक्ति ओषधि-वनस्पतियों अन्यधात्वादि औषधियों में परिपूर्ण होने से आरोग्यवर्धक होकर प्राणियों के दुःख दूर कर उन्हें आनन्दित करती है। यह सब उस सविता परमात्मा की महती कृपा है।

महर्षि दयानन्दकृत मन्त्रार्थःहे मनुष्यो! यह (सविता) सब जगत् का उत्पादक, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न जगदीश्वर (देवः) सब सुखों के दाता, सब विद्याओं का प्रकाशक भगवान् है (वायवस्थ) जो हमारे (वः) और तुम्हारे प्राण, अन्तःकरण और इन्द्रियाँ हैं एवं सब क्रियाओं की प्राप्ति के हेतु स्पर्शगुण वाले भौतिक प्राणादि हैं, उनको (श्रेष्ठतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ यज्ञ (कर्मणे) जो सबके उपकार के लिये कर्त्तव्य कर्म हैं, उससे (प्रार्पयतु) अच्छे प्रकार सयुक्त करें। हम लोग (इषे) अन्न, उत्तम इच्छा तथा विज्ञान की प्राप्ति के लिये सविता देवरूप (त्वा) तुझे विज्ञानरूप परमेश्वर को तथा (ऊर्जे) पराक्रम एवं उत्तम रस की प्राप्त्यर्थ (भागम्) सेवनीय धन और ज्ञान के पात्र (त्वा) अनन्त पराक्रम तथा आनन्द रस से भरपूर सदा आपकी शरण चाहते हैं। हे मनुष्यो! ऐसे होकर तुम (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त करो और हम उन्नति प्राप्त कर रहे हैं। हे परमेश्वर! आप कृपा करके हमें   (इन्द्राय) परमेश्वर की प्राप्ति के लिये और (श्रेष्ठतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ यज्ञ (कर्मणे) कर्म करने के लिये इन (प्रगावतीः) बहुत प्रजावाली (अघ्न्याः) बढ़ने योग्य, अहिंसनीय, गौ, इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि और जो पशु हैं, उनसे सदैव (प्रार्पयतु) संयुक्त कीजिये।

हे परमात्मन्! आपकी कृपा से हमारे मध्य में कोई (अघशंसः)पाप का प्रशंसक पापी और (स्तेनः) चोर (मा ईशत) कभी उत्पन्न न हो और आप इस (यजमानस्य) जीव के एवं परमेश्वर और सर्वोपकारक धर्म के उपासक विद्वान् के (पशून्) गौ, घोड़े, हाथी आदि लक्ष्मी वा प्रजा की (पाहि) सदा रक्षा कीजिये, क्योंकि (वः) उन गौओं और इन पशुओं को (अघशंस) पापी (स्तेनः) चोर (मा+ईशत) हनन करने में समर्थ न हो। जिससे (अस्मिन्) इस (गोपतौ) पृथिवी आदि की रक्षा के इच्छुक धार्मिक मनुष्य एवं गोस्वामी के पास (बह्वीः) बहुत सी गौवें (ध्रुवा) स्थिर सुखकारक (स्यात्) होवें।

मन्त्र का भावार्थ महर्षिकृतःमनुष्य सदा धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय से, ऋग्वेद के अध्ययन से गुण और गुणी को जानकर सब पदार्थों के प्रयोग से पुरुषार्थ सिद्धि के लिये उत्तम क्रियाओं से संयुक्त रहें। जिससे ईश्वर की कृपा से सबके सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि होवे, शुभ कर्मों से प्रजा की रक्षा और शिक्षा सदा करें। जिससे कोई रोगरूप विघ्न और चोर प्रबल न हो सके और प्रजा सब सुखों को प्राप्त होवे। जिसने यह विचित्र सृष्टि रची है, उस जगदीश्वर का आप सदैव धन्यवाद करें। ऐसा करने से आपकी दयालु ईश्वर कृपा करके सदा रक्षा करेगा।

ईश्वर स्वरूप दर्शनःइस मन्त्र में सविता=ईश्वर सम्पूर्ण जगत् का उत्पादक, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होने से सविता नाम से कहा गया है और सर्वसुख प्रदाता, सर्वदुःख विनाशक, सर्व विद्याओं का प्रकाशक होने से ‘देव’ कहा गया है।

परमेश्वर की प्रार्थना इस प्रकार करेंःमन्त्र में कहा गया है कि हे सविता देव! आप हमारे प्राण, अन्तःकरण और समग्र इन्द्रियों को सर्वोत्कृष्ट यज्ञ कर्म में लगाइये। हे जगदीश्वर! हमक लोग अन्न बल, पराक्रम, विज्ञानादि की प्राप्ति के लिये आपका ही आश्रय करते हैं, क्योंकि आप ही सब प्रकार के परम ऐश्वर्य के प्रदाता हैं। हे दयानिधे परमेश्वर! आपकी परम कृपा से हमारे गौ, हस्ति आदि पशु, इन्द्रिय तथा पृथिवीस्थ सभी पदार्थ अनमीवा अर्थात् रोग रहित होवें। आपकी महती कृपा से हमारे मध्य कोई भी चोर, पापी कभी उत्पन्न न हो। हे परमेश्वर! आप ईश्वरोपासक, धर्मात्मा, विद्वान्, परोपकारी के गौ आदि विभिन्न पशुओं लक्ष्मी तथा प्रजा की सदैव रक्षा कीजिये।

महर्षि द्वारा अन्यत्र की गई व्याख्याः ‘इषे त्वोर्जे’ इस मन्त्र को संस्कारविधि के ‘स्वस्तिवाचन’ में रखा गया है। ‘गोकरुणा निधि’ में इस मन्त्र की सम्पूर्ण व्याख्या न करके कुछ अंश की व्याख्या इस प्रकार है-यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में परमात्मा की आज्ञा है कि ‘अघ्न्या यजमानस्य पशून् पाहि’हे पुरुष! तू इन पशुओं को कभी मत मार और यजमान् अर्थात् सबके सुख देने वाले जनों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे और इसीलिये ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे और अब भी समझते हैं। इनकी रक्षा में अन्न भी मंहगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि केअधिक होने से दरिद्रों को भी खान-पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है और अन्न के कम खाने से मल भी कम होता है, मल के न्यून होने से दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टि-जल की शुद्धि भी विशेष होती है। उससे रोगों की न्यूनता होने से सबको सुख बढ़ता है। इससे यह ठीक है कि गो आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का नाश हो जाता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों की भी कटौती होती है।

कतिपय विशिष्ट पद और उनका अर्थः-

(१) इषेः- यह मन्त्र का प्रथम ही पद है। आचार्य यास्क ने निघण्टु (२/७) में ‘इषम्’ पद को अन्न नामों में पढ़ा है। ‘इषति’ पद निघण्टु २/१४ में गत्यर्थक धातुओं में पढ़ा है और इस धातु से क्विप् सर्वापहारी प्रत्यय करने से ‘इष्’ शब्द बनता है। इस पद का अर्थ महर्षि ने ‘अन्नविज्ञानयोः प्राप्तये’अर्थात् अन्न विशान की प्राप्ति के लिये, यह किया है।

(२) ऊर्जेः- महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ ब्राह्मण ५/१/२/८ में ऊर्ग्रस वचन से ‘ऊर्क’ का अर्थ ‘रस’ किया गया है। इसलिये महर्षि दयानन्द ने ‘ऊर्जो’ का अर्थ ‘पराक्रमोत्तमरसलाभाय’अर्थात् पराक्रम एवं उत्तम रस की प्राप्ति के लिये, यहकिया है।

(३) देवः- आचार्य यास्क ने निरुक्त ७/१५ में देव शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा’इसकी व्याख्या महर्षि ने ऋ. भा. भूमिका के वेद-विषय विचार प्रकरण में की है। दान देने से देव नाम पड़ता है और दान कहते हैं ‘किसी वस्तु के विषय में अपने स्वामित्व को छोड़ते हुए दूसरे के स्वामित्व को उत्पन्न करना।’ दीपन कहते हैं प्रकाश करने को। द्योतन कहते हैं सत्योपदेश को। इनमें से दान का दाता मुख्य ईश्वर ही है कि जिसने जगत् को सब पदार्थ दे रखे हैं। तथा विद्वान् मनुष्य भी विद्यादि पदार्थों को देने वाले होने से देव कहाते हैं। दीपन अर्थात् सब मूर्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव है। द्योतन-माता, पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन विद्या और सत्योपदेशादि के करने से देव कहाते हैं, वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करने वाला है, वह ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने योग्य इष्टदेव है, अन्य कोई नहीं। इसमें कठोपनिषद् का भी प्रमाण है कि सूर्य, चन्द्रमा, तारे, विद्युत (बिजली) और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इन सबका प्रकाश करने वाला वही है, क्योंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्यादि सब जगत् प्रकाशित हो रहा है। इसमें यह जानना चाहिये कि इईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करने वाला नहीं है, इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव हैं।

इसी प्रकार महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश प्रथम समुल्लास में देव शब्द के विषय में लिखा है कि ‘दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युति-स्तुति-मोद-मद-स्वप्न-कान्ति-गतिषु’ इस धातु से देव शब्द सिद्ध होता है। क्रीडा जो शुद्ध, जगत् को क्रीडा कराने विजिगीषा= धार्मिकों को जिताने की इच्छायुक्त, व्यवहार=सब चेष्टा के साधनोपसाधनों का दाता, द्युति=स्वयं प्रकाश स्वरूप, सबका प्रकाशक, स्तुति=प्रशंसा के योग्य, मोद=आप आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द देने हारा, मद-मदोन्मत्तो का ताड़ने हारा, कान्ति=कामना के योग्य और गति=ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘देव’ है।

अथवा ‘यो दीव्यति क्रीडति स देवः’ जो अपने स्वरूप में आनन्द से आप ही क्रीडा करे अथवा किसी के सहाय के बिना क्रीडावत् सहज स्वभाव से सब जगत् को बनाता वा सब क्रीडाओं का आधार है, ‘यो विजिगीषते स देवः’ जो सबका जीतने हारा स्वयं अजेय अर्थात् जिसको कोई भी न जीत सके, ‘यो व्यवहारयति स देवः’ जो न्याय और अन्यायरूप व्यवहारों का जनाने हारा और उपदेष्टा, ‘यश्चराचरं जगत् द्योतयति स देवः’ जो सबका प्रकाशक, ‘यःस्तूयते स देवः’ जो सब मनुष्यों की प्रशंसा के योग्य और निन्दा के योग्य आनन्द कराता, जिसको दुःख का लेश भी न हो, ‘यो मोद्यति स देवः’ जो सदा हर्षित, शोकरहित और दूसरों को हर्षित करने और दुःखों से पृथक् रखने वाला, ‘यः स्वापयति स देवः’ जो प्रलय के समय अव्यक्त में सब जीवों को सुलाता, ‘यः कामयते काम्यते वा स देवः’। जिसके सब सत्यकाम और जिसकी प्राप्ति की कामना सब शिष्ट करते हैं, तथा ‘यो गच्छति गम्यते वा स देवः’ जो सबमें व्याप्त और जानने के योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम देव है। जैसा कि अथर्ववेद १०/८/३२ में कहा गया है कि ‘देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति’ अर्थात् देव= परमेश्वर का काव्य देखो, न मरता है न जीर्ण होता है। इसी प्रकार श्वेताश्वतरोपनिषद् (६/११) में कहा गया है कि ‘एको देवः सर्वभूतेषुगूढ़ सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा’अर्थात् देव=परमात्मा (ईश्वर) एक है, सब पदार्र्थों में गुप्त रूप से विद्यमान् है, वह सर्वव्यापक और सब भूतों का अन्तरात्मा है।

अघ्न्याः आचार्य यास्क ने ‘अघ्न्या’ शब्द को निघण्टु २/११ में ‘गो’ नामों में पढ़ा है, इसलिये महर्षि ने इसका अर्थ ‘वर्धयितुमर्हा हन्तुमनर्हा गाव इन्द्रियाणि पृथिव्यादयः पशवश्च’अर्थात् बढ़ाने योग्य, अहिंसनीय गौ, इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि और जो पशु हैं।

पशून्ः महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ ब्राह्मण १/६/३/३६ में पशु का अर्थ ‘श्रीर्हि पशः’ कहकर, पशु का अर्थ ‘श्री’ कहा है। तथा शतपथ १/४/६/१७ के अनुसार पशु का अर्थ प्रजा किया है। इन अर्थों के परिप्रेक्ष्य में महर्षि ने ‘पशून्’ पद का अर्थ ‘गौ, घोड़े, हाथी आदि लक्ष्मी वा प्रजा की सदा रक्षा कीजिये, यह किया है।