Tag Archives: आश्रम

वानप्रस्थाश्रम प्रवेश – रामनाथ विद्यालंकार

vanprsthashram pravesh1वानप्रस्थाश्रम प्रवेश-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः कुत्सः । देवता अग्नि: । छन्दः भुरिक आर्षी पङ्किः ।

अयमिह प्रथमो धायि धातृभिर्होता यजिष्ठोऽअध्वरेष्वीड्यः। यमनवानो भृर्गवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विभ्वं विशेविशे।।

-यजु० ३३.६

( अयं) यह ( प्रथमः ) श्रेष्ठ, ( होता ) हवि को ग्रहण करनेवाला तथा सुगन्ध को देनेवाला, ( यजिष्ठः ) यज्ञ में साधकतम, ( अध्वरेषु ईड्यः ) यज्ञों में स्तवनीय आहवनीय अग्नि ( धातृभिः) अग्न्याधान करनेवालों के द्वारा (इह धायि ) यहाँ यज्ञवेदि में आधान किया गया है, ( यं चित्रं विभ्वं ) जिस चित्र विचित्र व्यापक अग्नि को (अप्नवान:३ भृगव:४) कमसेवी तपस्वी वानप्रस्थ जन (वनेषु ) वनों में ( विशेविशे) प्रत्येक प्रजा के हितार्थ ( विरुरुचुः५) विरोचित करते रहे हैं।

कोई व्रतसेवी जन गृहस्थ आश्रम को तिलाञ्जलि देकर वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि का आधान किया है। कैसा है वह यज्ञाग्नि? प्रथम अर्थात् श्रेष्ठ कोटि का है, घृत-भरे दीपक की लौ से चन्दन, पलाश आदि की समिधाओं में प्रदीप्त किया गया है और उसे प्रज्वलित रखने के लिए धीमे-धीमे पंखा झल कर उस पर गाय के घृत में डूबी आठ-आठ अङ्गल की तीन समिधाएँ मन्त्रोच्चारणपूर्वक अर्पित की गयी हैं। अग्निकुण्ड में प्रदीप्त, प्रबुद्ध और समिदाधान द्वारा जागृत किया गया यह अग्नि वानप्रस्थ की दीक्षा ग्रहण करनेवाले व्रतियों को भी अपने समान प्रज्वलित, प्रबुद्ध और जागरूक होने की शिक्षा दे रहा है। आगे जलप्रोक्षण, आघार आहुति, आज्याभागाहुति, व्याहृति आहुति देकर वानप्रस्थाश्रम का प्रधानहोम होता है, जिसमें स्थालीपाक की ४३ आज्याहुति  दी जाती हैं।

यह सब वानप्रस्थाश्रमप्रवेश की यज्ञप्रक्रिया प्राचीनकाल से वनों में कर्मसेवी, तपस्वी जन करते रहे हैं। जो अंग्नि चित्र-विचित्र रंगोंवाला है, कण-कण में व्यापक है, उसे उत्तरारणि और अधरारणि की रगड़ से, या दीपक की लौ से यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त करते रहे हैं, विरोचमान करते रहे हैं। किसलिए?‘विशेविशे’, प्रत्येक प्रजाजन के हित के लिए। जो भी यज्ञकुण्ड में अग्न्याधान को देखता है और घृताहुति तथा अन्य हव्यों की आहुति पाकर ऊँची-ऊँची ज्वालाओं से प्रखर होती हुई यज्ञाग्नि पर दृष्टिपात करता है, उसे ये अग्निज्वालाएँ ‘आओ, आओ’ कहती हुई अपने साथ उन्नति की दिशा में चलने का, ऊध्र्वारोहण करने का निमन्त्रण देती हैं। इस प्रकार जन-जन का हितसाधन करती हैं।

आओ, हम भी वानप्रस्थाश्रमप्रवेश की आयु होने पर वानप्रस्थ की अग्नि प्रज्वलित करें, उसमें अदिति, सरस्वती, पूषा, त्वष्टा, प्रजापति आदि के नाम से आहुति देते हुए इनसे शिक्षाएँ ग्रहण करें और आयु, प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, चक्षु, श्रोत्र, वाक्, मन, आत्मा आदि को यज्ञ द्वारा समर्थ बनायें । एक के लिए स्वाहा करें, दो के लिए स्वाहा करें, शत के लिए स्वाहा करें

“एकस्मै स्वाहा, द्वाभ्यां स्वाहा, शताय स्वाहा”

पाद-टिप्पणियाँ

१. धायि=अधायि । अडागमनषेध छान्दस।

२. विभ्वं=विभुम् । यणादेश छान्दस।

३. अप्नस्=कर्म, निघं० २.१, वनिप् प्रत्यय ।

४. भृगवः, भ्रस्ज पाके, ‘प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च’ उ० १.२८से कु=उ प्रत्यय तथा धातु के स् का लोप ।

५. विरुरुचुः =विरोचयामासुः, णिलोप ।

६. द्रष्टव्यः संस्कारविधि, वानप्रस्थसंस्कार।

वानप्रस्थाश्रम-प्रवेश-रामनाथ विद्यालंकार