पिण्डदान और अन्य के किये कर्म का फल अन्य को पहुँचता है वा नहीं इत्यादि विचार
इससे पूर्व जो श्राद्ध के विषय में कह चुके हैं, उससे यह सिद्ध हो गया कि मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त जीते हुए ज्ञानी पुरुषों का श्रद्धापूर्वक भोजनादि से सत्काररूप श्राद्ध करना है। और मरों के श्राद्ध की कल्पना करना धर्मशास्त्र के सिद्धान्त से विरुद्ध है, इसके प्रमाण भी पूर्व दिये हैं। इस विषय में कई लोग कहते हैं कि श्राद्धरूप मृतकों को पिण्डदान देने से ही दायभाग ठीक बनता है। क्योंकि धर्मशास्त्र के अनुसार जो जिस मृतक पितादि को पिण्ड देने का अधिकारी नियत किया गया हो वा जिसका दिया पिण्ड मृतक को पहुंच सकता है, वही उस मृतक के धनादि का भागी हो सकता है, इसका विवेचन आगे दायभाग के प्रकरण में किया जायेगा।
कई लोग इस श्राद्ध विषय में यह भी कहते हैं कि जगत् में अन्य के किये कर्म के फल को अन्य भोगता है, तो पुत्र के किये श्राद्ध का फल पिता को क्यों नहीं प्राप्त होता ? यदि कहो कि नहीं भोगता तो यह प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध है। जैसे पिता के उपार्जन किये धन से पुत्र सुख का अनुभव करता, पिता के बनाये घर में पुत्र रहता और पिता की लगायी वाटिका आदि से पुत्र सुख पाता है। तथा एक कमाता और अनेक पोषण योग्य स्त्री-पुत्रादि सुख भोगते हैं। इस प्रकार के सहस्रों उदाहरण मिलेंगे जिनमें अन्य के किये कर्म का अन्य फल भोगता है।
अब इस पूर्वोक्त विचार पर पौराणिक लोग कहते हैं कि- जैसा श्राद्ध और तर्पण तुमने पूर्व कहा, वैसा वेद और मनु आदि धर्मशास्त्रों के अनुकूल हो सकता है क्या ? मन्त्रभाग संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद्, गृह्यसूत्र, स्मृति, इतिहास- महाभारतादि और पुराण आदि श्रेष्ठ लोगों के माने हुए सम्पूर्ण पुस्तकों में मरे पितृ लोगों को श्रद्धा से पिण्डादि देना श्राद्ध है, ऐसा वर्णन किया गया है। और वैसे ही अनादिकाल की परम्परा से सब लोग श्राद्ध करते आते हैं। वेदों में भी पितरों के आह्वान और पिण्ड रखने का मन्त्र- "आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः।१ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः"२ है। इत्यादि मन्त्रों में श्राद्ध का वर्णन किया है। शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है कि- ‘नीवि को छोड़ छह बार नमस्कार करे।’३ और ‘कुशों पर पिण्ड धरके, हाथ झार दे वा धो डाले।’४ इत्यादि प्रकार मनुस्मृति में भी श्राद्ध का पूरा विधान दिखाया है। गयाश्राद्ध से पितृजनों की मुक्ति हो जाती है, इसको सब शास्त्रकार मानते हैं। और नैत्यिक वा गयाश्राद्धादि करके पितरों को तारने के लिये ही पुत्रों की आवश्यकता है, सो कहा भी है कि- ‘पुत्रहीन अर्थात् निर्वंशी की अच्छी गति नहीं होती।’५ इस प्रकार मरे हुए पितरों का श्राद्ध सर्वसम्मत है, तो जो कोई लोग उस पर विश्वास नहीं करते वे नास्तिक हैं। और अथर्ववेद में स्पष्ट ही मरे हुए पितरों का तर्पण लिखा है कि- ‘जो मरे, जीते, प्रकट हुए और यज्ञ सम्बन्धी पितर हैं, उन सबके लिये सहतयुक्त जल की धारा प्राप्त हो।’६ इत्यादि प्रकार मरे हुए पितरों का तर्पण-श्राद्ध वेदादि शास्त्रों में लिखे अनुसार सबको माननीय सिद्ध होता है।
श्राद्ध में पूज्य देव और पितर कौन हैं ? श्राद्ध नित्य कर्म है वा नैमित्तिक ?
अब पितर वा पितृ किसको कहते हैं ? इस बात का विचार किया जाता है। नीति में लिखा है कि- ‘उत्पादक, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता, अन्नदाता और भय से बचाने वाला, ये पांच पिता माने गये हैं।’१ इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है और अपने उत्पादक पिता में रूढ़ि भी है। लौकिक लोग पिता शब्द कहने से उत्पादक से भिन्न को नहीं जानते। अन्य लौकिक व्यवहार में पिता शब्द से प्रकरणानुसार जनक, यज्ञोपवीत कराने, अन्न देने वा भय से बचाने वाले का ग्रहण होता है। परन्तु श्राद्ध कर्म में विशेष कर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है, और अपने-अपने उत्पादक पिता की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिये। क्योंकि जो ऐसा नहीं करता, वह कृतघ्न अवश्य है। और ज्ञान वा विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना चाहिये, वही श्राद्ध है। अपने जनक और अन्य यज्ञोपवीत कराने वाले आदि की जो सेवा है, उसको सामान्य प्रकार से तर्पण कहते हैं। श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव। जो पुरुष वाणी के कर्म में प्रवीण हैं, पढ़ाने और उपदेश करने में सदा प्रवृत्त अर्थात् पढ़ाने और उपदेशादि वाणी के कर्म द्वारा विद्या का प्रचार करके जगत् का उपकार करने के लिये प्रतिक्षण प्रवृत्त हों, वे देवता कहाते हैं। इसी प्रसग् पर यह भी कहना अनुचित नहीं कि वाक्, वाणी, सरस्वती, विद्या ये शब्द एकार्थक हैं, तो प्रशस्त विद्यावान् लोगों को देव मानना ठीक सिद्धान्त है। और जो मानसकर्म ज्ञान में सदा रमण करते, अपने मन ही मन में शुद्ध आनन्द की लहरियों का अनुभव करते हैं। सदा अच्छे-बुरे का विवेक करते हैं। बहुत कम नियम से बोलते वा वाणी को वश में करके मौन रहते हैं। जिस-जिस विषय पर सम्यक् अनुभव कर लेते हैं कि जिसके प्रचार से जगत् का ठीक-ठीक उपकार हो सकता है। उसी विषय को पुस्तकादि द्वारा सरल कर प्रचलित करते हैं, वे पितर हैं ‘वेदविद्या का दान देने से आचार्य- गुरु को पिता कहते हैं। अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं।’२ इत्यादि मनु जी के प्रमाणों से पूर्व का कथन सिद्ध होता है।
महायज्ञ और श्राद्ध-तर्पण का विशेष विचार
अब पञ्च महायज्ञों में से तर्पण वा श्राद्ध पर विशेष विचार किया जाता है। “विशेष कर गृहस्थ पुरुष को पांच काम प्रतिदिन ऐसे करने पड़ते हैं कि जिनसे दोष लगते रहते हैं। जैसे एक प्रतिदिन चूल्हा जलने से ईंधन वा पृथिवी के अनेक जन्तु जलते, द्वितीय चक्की पीसने वा पिसवाने से अनेक जन्तु अन्न के साथ पिस जाते, तीसरे मार्जनी (झाडू) द्वारा अनेक कोमल छोटे जन्तु मरते, चौथे ऊखली-मूसल से कूटने द्वारा अनेक मरते और पांचवें जलपात्र- घड़े आदि जहां रखे रहते हैं, उनके नीचे शीतलप्रदेश चाहने वाले प्रायः जन्तु आ ठहरते और घड़ादि के ढुरने से मारे जाते हैं। ये कार्य प्रायः गृहस्थों को करने पड़ते हैं। इनके करने बिना नहीं बच सकते और जब करने पड़ते हैं, तो जीव-जन्तुओं के प्रत्येक पदार्थ में रहने से हानि वा हिंसा भी होती है। इसी कारण गृहस्थों को दोष भी अवश्य लगते हैं। इसलिये उस दोष के बदले गृहस्थों को कुछ पुण्य भी नियमपूर्वक अवश्य करने चाहियें, उसी पुण्यरूप कर्म को प्रायश्चित्त भी कह सकते हैं, क्योंकि ईश्वर की सृष्टि में कुछ किसी का अपकार हो जावे, तो उसको उसके बदले में प्रत्युपकार भी करना चाहिये। इस कारण ऋषि लोगों ने वेद का आशय लेकर पञ्च महायज्ञों की व्याख्या कर स्पष्ट किया है कि इनको इस कारण और इस-इस प्रकार सब गृहस्थ लोग प्रतिदिन किया करें।’१ इत्यादि प्रकार से तृतीयाध्यायादि में पञ्च महायज्ञों का प्रयोजन सहित व्याख्यान मनु जी ने स्वयमेव किया है।
यह दूसरी मिलावट है। ऊपर बताया जा चुका है कि
पितृयज्ञस्तु तर्पणम्
(मनु0 3।70)
पितृयज्ञ को तर्पण कहते है। साधारण हिन्दू समझता है कि तर्पण मरे पितरों को पानी देने का नाम है । मनु के इस श्लोक से तो मृत पितरो की गंध नही पाई जाती । इसी श्लोक का भाष्य करते हुए कुल्लूक भट्ट लिखते हैं:-
‘अन्नाद्येनोदकेन वा’ इति तपणं वक्ष्यति स पितृयज्ञः। अर्थात् तर्पण में अन्न पानी देने का विधान आगे कहेगे। यही पितृयज्ञ हैं। जिसके विषय में वक्ष्यति (आगे कहेंगे ) लिखा है। वह श्लोक यह है:-
कुर्यादहरहः श्राद्धमत्राद्येनोदकेन वा ।
पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्यः प्रीतिमावहन्।।
अर्थात पितरों को प्रीतिपूर्वक बुलाकर खना, पानी, दूध, मूल फल से प्रति दिन श्राद्ध करे इस श्लोक के होते हुए कौन कह सकता है कि यहाॅ मृत पितरो को रोज बुलाने का विधान है ? इन दोनो श्लोको और कुल्लूक की टिप्पणी को देखकर प्रतीत होता है कि जिसको तर्पण कहते है और दूसरे में श्राद्ध है । एक श्लोक में तर्पण शब्द आया है और दूसरे में श्राद्ध। बात एक ही है प्रबन्ध करना । “अन्नद्य” वैदिक ग्रन्थों का एक परिचित शब्द है जो इसी अर्थ में आता है। मरे हुए पितरों को प्रीतिपूर्वक बुलाने का कुछ भी अर्थ नहीं । वह आ ही कैसे सकते है ? वैदिक सिद्धान्तानुसार तो उनका दूसरा जन्म हो जाता है और जो पुनर्जन्म को नही मानते वह भी मृत आत्मा की कुछ न कुछ गति तो मानते ही है उनक ेमत में भी मृतकों का बुलाना असम्भव है। मृतको को खाना पानी पहुॅचाने की प्रथा कहाॅ से चली यह कहना कठिन है। साधारणतया तो यह प्रथा बहुत पुरानी मालूम होती है। दो सहस्त्र वर्ष से अवश्य पुरानी है, इसलिये समस्त तत्कालीन साहित्य में इतस्ततः इसके उदाहरण मिलते है। मर कर आत्मा की क्या गति होती है इसके विषय में प्राचीन मिश्र आदि देशो की जातियों में भिन्न मत थे। आत्मा के साथ प्रेम करते-करते हमको शरीर से भी प्रेम हो जाता है। यह शरीर का प्रेम ही है जिसके कारण लोगों ने मृतक की लाश का अपने प्रकार से आदर-सम्मान करके की प्रथा डाल ली। वैदिक सिद्धान्त तो यह था कि
भस्मान्त शरीरम्
(यजुर्वेद 40।15 )