अब मांसभक्षण के विषय में विधि वा निषेध का विचार किया जाता है- हिंसा को उत्पन्न करने वाला होने से सभी मांस अभक्ष्य है। हिंसा एक अधर्म है कि जिस हिंसारूप अधर्म और बड़े दुःखफल का वर्णन बहुत वेदादि शास्त्रों में प्रायः किया है। उसका इसमें संग्रह करना पिष्टपेषण के तुल्य जान पड़ता है। इस मनुस्मृति में भी मांस के निषेधरूप सिद्धान्त में हिंसारूप अधर्म को लेकर ही मांस का निषेध दिखाया है। और अहिंसा को परमधर्म मानना भी शास्त्रों में लिखा ही है। सो इसी धर्मशास्त्र में कहा है कि- ‘प्राणियों को मारे बिना कहीं कभी मांस उत्पन्न नहीं हो सकता। तथा प्राणियों का वध करना कल्याणकारी नहीं इससे मांसभक्षण छोड़ देना चाहिये। मांस की उत्पत्ति और प्राणियों के वध-बन्धन को विचारकर सब प्रकार के मांसभक्षण से रहित हो जाना चाहिये।’१ इस प्रकार मांस खाना बुरा काम होने से सब को त्याज्य है, यह सामान्य कर सिद्धान्तयुक्त विचार है कि मांसभक्षण अच्छा काम नहीं।
अब भक्ष्याभक्ष्य विषय में संक्षेप से विचार किया जाता है। जिस प्रकार के आहार से मनुष्य की स्वस्थदशा रक्षित रहती है। ‘मन, बुद्धि और शरीर के अवयवरूप रसादि धातुओं में किसी प्रकार की विषमता न रहना स्वस्थदशा कहाती है।’१ ऐसी स्वस्थदशा के विद्यमान रहने से ही मनुष्य सुखी होता है और सुख धर्म का फल है इस कारण धर्म करने की इच्छा रखने वाले पुरुष को अति उचित है कि पहले वैसे आहार का ही सेवन करे। ऐसे आहार को सामान्य कर भक्ष्य कहते हैं। और जिससे मन, बुद्धि तथा शरीरस्थ धातुओं की विषमता होती है, वह आहार अभक्ष्य वा त्याज्य माना जाता है। वैसे आहार का सेवन करने वाला मनुष्य रोगादि से ग्रस्त हो जाता है, और वह रोगादि सम्बन्धी दुःख अधर्म का फल है, इस कारण वैसा आहार धर्म चाहने वाले को भी त्याज्य है। ये दो प्रकार सर्वसम्मत निर्विवाद माननीय हैं। इस मन्तव्य में किसी को कुछ विवाद नहीं है। इसी अंश पर सुश्रुतकार ने सूत्रस्थान के हिताहितीय अध्याय में लिखा है कि- ‘जो वातप्रकृति वाले को हितकारी है वही वस्तु पित्तप्रकृति वाले को कुपथ्य वा अहित है। इस हेतु से कोई वस्तु किसी के लिये सर्वथा हित वा अहित नहीं है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, सो ठीक नहीं है। क्योंकि इस जगत् में अनेक वस्तु स्वभाव वा संयोग से सबके लिये हितकारी, अनेक सबके लिये अहितकारी तथा अनेक सामान्य कर हित-अहित दोनों करने वाले हैं। जैसे जन्म से ही अनुकूल होने से जल, घृत, दूध, भात आदि सर्वथा हितकारी हैं। अग्नि वा अत्युष्ण जलादि में जल जाना, गल जाना और विष खा लेना आदि सबके लिये सदा अहितकारी हैं। तथा हित-अहित मिश्रित वे ही हैं, जो वातप्रकृति के लिये पथ्य है, वह पित्त वाले के लिये कुपथ्य है।’२ इस प्रकार यहां तीन प्रकार कहे हैं। तथा भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में भी प्रकारान्तर से आहार के तीन प्रकार दिखाये गये हैं कि- ‘सरस चिकनायी सहित स्थिर और हृदय को प्रिय रुचिकर शुद्ध पवित्र दूध, घृत आदि आहार आयु, सत्त्वगुण, बल, नीरोगता सुख और प्रीति के बढ़ाने वाले होने से सत्त्वगुणी लोगों को प्रिय वा अनुकूल होते हैं। ऐसे आहार सर्वोत्तम वा सत्त्वगुणी माने जाते हैं।
1 ) मासं भक्षण सम्बधी- ऊपर बताया जा चुका है कि मनुस्मृति का मौलिक सिद्धान्त मासं भक्षण सम्बन्धी अहिसा है। वेद मे अहिसा पर विशेष बल क्षेपक दिया गया है। यजुर्वेद कहता है:-
मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
अर्थात प्रत्येक प्राणी को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिये। न केवल वैदिक किन्तु सभी धर्मो का आधार अहिंसा होनी चाहिये। यदि मनुष्य दूसरों को कष्ट पहुॅचान में संकोच न करे तो सदाचार के किसी भाव का पालन नहीं कर सकता । मनुस्मृति ने इस बात को बहुत स्पष्ट रीति से वर्णन किया है, इसलिये जहाॅ कहीं पशु-वध का विधान है वह सब मिलावट है । कुछ लोग समझते है कि यज्ञों में पशु-वध विहित है। परन्तु मनुस्मृति के मौलिक सिद्धान्त इस बात की पुष्टि नही करते। देखिये:-
पन्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषयुपस्करः। कएडनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्।। (3।68)