Manu Smriti
मनु स्मृति और प्रक्षेप
 
क्या मनुस्मृति में प्रक्षेप हैं?: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

मनुस्मृति में समय-समय पर कांट-छांट, परिवर्तन-परिवर्धन के प्रयास हुए हैं। फिर भी मनु की मूल भावना के द्योतक श्लोक यत्र-तत्र संदर्भों में मिल जाते हैं। उनसे उनकी मौलिकता का ज्ञान हो जाता है।

संक्षेप में, प्रस्तुत विषय के मौलिक और प्रक्षिप्त श्लोकों का निर्णय इस प्रकार है-

  1. मनु की व्यवस्था ‘वैदिक वर्णव्यवस्था’ है (डॉ. अबेडकर ने भी पूर्व उद्धृत उद्धरणों में इसे स्वीकार किया है), अतः गुण-कर्म-योग्यता के सिद्धान्त पर अधारित जो श्लोक हैं वे मौलिक हैं। उनके विरुद्ध जन्मना जातिविधायक और जन्म के आधार पर पक्षपात का विधान करने वाले श्लोक प्रक्षिप्त हैं क्योंकि वह सारा प्रसंग परवर्ती है।

मनु के समय जातियां नहीं बनी थीं। यही कारण है कि मनु ने वर्णों की उत्पत्ति के प्रसंग में जातियों की गणना नहीं की है। इस शैली और सिद्धान्त के आधार पर वर्णसंकरों से सबन्धित सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं और उनके आधार पर वर्णित जातियों का वर्णन भी प्रक्षिप्त है क्योंकि वह सारा प्रसंग परवर्ती है।

  1. इस पुस्तक में उद्धृत मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था, जो कि उनका ‘सामान्य कानून’ है, मौलिक है; उसके विरुद्ध पक्षपातपूर्णदण्डव्यवस्था-विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
  2. इस पुस्तक में उद्धृत शूद्र की परिभाषा, शूद्रों के प्रति सद्भाव, शूद्रों के धर्मपालन, वर्णपरिवर्तन आदि के विधायक श्लोक मौलिक हैं; उनके विपरीत जन्मना शूद्रनिर्धारक, स्पृश्यापृश्य, ऊंच-नीच, अधिकारों के शोषण आदि के विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
  3. इस लेख में उद्धृत नारियों के समान, स्वतंत्रता, समानता, शिक्षा के विधायक श्लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि मनु एवं मनुस्मृति को मौलिक रूप में पढ़ा और समझा जाये और प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर किये जाने विरोध का परित्याग किया जाये। आदिविधिदाता राजर्षि मनु एवं आदि संविधान ‘मनुस्मृति’ गर्व करने योग्य हैं, निन्दा करने योग्य नहीं। भ्रान्तिवश हमें अपनी अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण आदितम धरोहर को निहित स्वार्थमयी राजनीति में घसीटकर उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये।


नवम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब नववें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। पहले तेईस और चौबीस दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। बाईसवें श्लोक में सिद्धानुवाद की रीति से लिखा है कि पति के अच्छे-बुरे गुणों की अधिकता से उस पति के साथ विवाही गयी स्त्री में भी वैसे ही अच्छे बुरे-गुणों की अधिकता होनी सम्भव है अर्थात्    धर्मात्मा, सुपात्र, सुशील पुरुष के साथ विवाही गयी स्त्री भी पुरुष के तुल्य शुभ गुणों वाली हो जाती है और अधर्मी आदि दुष्ट गुण वाले के साथ विवाही स्त्री भी पापिनी हो जाती है। इस सिद्धानुवाद का प्रयोजन यह है कि धर्मात्मा, विद्वान् और सुशील पुरुष को कन्या देनी चाहिये। सो ‘उत्तम, मध्यम वा निकृष्ट गुण प्रायः सग्ति के अनुसार मनुष्य में आते हैं।’१ इसी सग्ति से होने वाले फल का व्याख्यानरूप यह कथन है [इसमें कोई शटा करे कि सग्ति दोनों की दोनों से होती है जैसे पुरुष के साथ स्त्री का सग् होता वैसे स्त्री के साथ पुरुष का भी सग् रहता है, जब स्त्री पुरुष के समान गुण वाली हो जाती है तो पुरुष स्त्री के तुल्य गुणों वाला क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर यह है कि मुख्य का वा स्वाधीन का गुण गौण वा पराधीन में लग जाता है और प्रायः पुरुष ही मुख्य रहता है। यदि कहीं स्त्री की स्वाधीनता और प्रधानता हो तो वहां स्त्री के गुण पुरुष में अवश्य जावेंगे] इसी सग्ति का फल दिखाने के लिये दो उदाहरण उक्त दोनों पद्यों में कहे हैं। सो वहां उदाहरण की अधिक अपेक्षा ही नहीं दीखती और किसी प्रकार कुछ अपेक्षा हो भी तो वैसी आधुनिक स्त्रियों का उससे बहुत प्राचीन मानव धर्मशास्त्र में वर्णन कैसे घटे अर्थात् किसी प्रकार नहीं, क्योंकि पिता के जन्म-समय में आगे होने वाले पुत्र के कर्मों का वर्णन कोई नहीं कर सकता। जब वसिष्ठ ने अक्षमालानामक मेहतरानी के साथ और मन्दपालनामक ऋषि ने शारग्ी नाम चिड़िया के साथ विवाह किया उससे पहले ही भृगु ने इस धर्मशास्त्र का निर्माण वा प्रचार किया था। क्योंकि अक्षमाला को कोई भाष्यकारों ने भंगिन कहा है


द्वितीय अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब द्वितीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा करते हैं। इस अध्याय पर व्यूलरसाहब ने कहा है कि “यद्यपि द्वितीयाध्याय से लेकर षष्ठाध्यायपर्यन्त सब कथन मनुस्मृति में धर्मसूत्रों के अनुकूल है, तो भी बीच-बीच में कहीं-कहीं पीछे से श्लोक मिलाये जान पड़ते हैं। जैसे- इस द्वितीयाध्याय में प्रारम्भ से ११ ग्यारह श्लोक पीछे किन्हीं ने मिलाये हैं। अर्थात् १-५ तक श्लोक किसी भी धर्मशास्त्र के आशय से नहीं पाये जाते। छठा श्लोक पुनरुक्त है, क्योंकि बारहवें में यही बात कही गयी है, जो छठे में है। सातवें पद्य में आत्मश्लाघा दोष है, अर्थात् अपने आप ही प्रशंसा की है। आठवें और नववें श्लोक में फल दिखाया गया है तथा दशवें, ग्यारहवें श्लोकों में तर्क का निषेधरूप दोष आता है, क्योंकि धर्म विषय की तर्क से अवश्य परीक्षा करनी चाहिये। इस प्रकार आदि के ११ श्लोक प्रक्षिप्त हैं” इत्यादि।

इसका उत्तर यह है कि- यह नियम नहीं कर सकते कि जो एक किसी     धर्मशास्त्र में हो और सबमें न हो वह प्रक्षिप्त माना जावे। क्योंकि सब लोग बराबर नहीं कह सकते, अर्थात् आप ही पहले कही बात का प्रत्यक्षर अनुवाद कोई नहीं कर सकता। इस समय भी पुस्तक बनाने वाले विद्वान् लोग एक ही विषय में अपने-अपने अनुभव को लेकर न्यूनाधिक लिखते वा कहते हैं, उनमें किसी का कथन प्रक्षिप्त वा प्रामादिक नहीं समझा जा सकता। किन्तु जो प्रकरण-विरुद्ध,    धर्म-विरुद्ध वा पक्षपात-युक्त हो वही प्रक्षिप्त है। किन्तु किसी अन्य की अपेक्षा से अधिक कथन प्रक्षिप्त नहीं है।

और जो छठे, बारहवें श्लोकों में पुनरुक्त दोष दिया, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि उन दोनों के अभिप्राय में भेद है। और


मनुस्मृति में क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

इस पाॅचवी बात के विषय में हम कुछ थोडा सा वर्णन करते हैं। मनुस्मृति का वर्तमान रूप कम मनुस्मृति में क्षेपक से कम दो सहस्त्र वर्ष पुराना है। इसमें क्षेपक बहुत हैं। परन्तु ये क्षेपक भी नये नही हैं। याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में इसी मनुस्मृति के उद्धरण मिलते है। मेघातिथि आदि ने जो भाष्य किये हैं वे सब के सब इसी मनुस्मृति के है। कुछ पाठ-भेद अवश्य है। श्लोकों में भेद भी है। बहुत से ऐसे श्लोक हैं जो मेघातिथि तथा कुल्लूक आदि के भाष्यों नहीं मिलते और पीछे के भाष्यों में इनका उल्लेख है। कुछ ऐसे भी श्लोक हैं जो पीछे से निकल गये हैं। इस प्रकार हस्ताक्षेप तो इधर भी रहा है, परन्तु अधिक नहीं। और न सिद्धान्तों में कुछ बहुत भारी उलट फेर ही है। परन्तु इससे यह नही समभना चाहिए कि इस प्राचीन मनुस्मृति मे कोई भारी हस्ताक्षेप नहीं हुआ। महात्मा बुद्ध से कुछ पहले जब शुद्ध वैदिक धर्म में विकराल विकृति उत्पन्न हो गई थी और महात्मा बुद्ध के कुछ पीछे जब अवैदिक बौद्ध धर्म और वैदिक पौराणिक धर्म घमासान युद्ध हुआ, भिन्न उद्देश्य रखने वाले साम्प्रदायिक विद्वान् मनमानी कतरनी चलाते रहे। जहाॅ जो चाहा मिला दिया और जहाॅ से जो चाहा निकाल दिया। इसने वैदिक सिद्धान्तों में बडी गडबड मचा दी।

क्या मनुस्मृति मे क्षेपक हैं ? हाॅ, अवश्य हैं। कोई निष्पक्ष विद्वान् इसको मानने में संकोच नहीं कर सकता। इसके प्रमाण पुष्कल हैं। सम्भव है कि इस विषय में मतभेद हो कि कितना क्षेपक है और कितना मौलिक। सब  से पहली बात तो यह है कि परस्पर विरोध बहुत है जिसको भाष्यकारों की प्रतिभासम्पन्न आलोचना भी दूर नही कर सकी। हम यहा कुछ का उल्लेख करते हैं।

(1) सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि।

कामतस्त प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशो वराः।।

शूदैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते।

ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः।।

यहाॅ ब्रहम्णा को शूद्र भार्या विवाहने का पूरा अधिकार है। परन्तु इससे अगले ही श्लोक में बल-पूर्वक इसका निषेध किया गया हैः-

न ब्राहम्ण क्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः।

कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भाय्र्योपदिश्यते।।

इसके आगे चार श्लोक हैं जिनमें  इसी बात पर बल दिया गया है कि कोई द्विज अपने से नीच वर्ण की स्त्री से विवाह न करे । यहाॅ तक कि आपत्काल में भी इसकी आज्ञा नहीं है। कुल्लूक लिखते हैं कि

”ब्राहम्णक्षत्रिययोर्गार्हस्थ्यमिच्छतोः सर्वथा सवर्णालाभे कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते इतिहासाख्यानेऽपि शूद्रा भाय्र्यां नाभिधीयते।”


मांस भक्षण और मनुस्मृति : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

1 ) मासं भक्षण सम्बधी- ऊपर बताया जा चुका है कि मनुस्मृति का मौलिक सिद्धान्त मासं भक्षण सम्बन्धी अहिसा है। वेद मे अहिसा पर विशेष बल क्षेपक दिया गया है। यजुर्वेद कहता है:-

मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।

अर्थात प्रत्येक प्राणी को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिये। न केवल वैदिक किन्तु सभी धर्मो का आधार अहिंसा होनी चाहिये। यदि मनुष्य दूसरों  को कष्ट पहुॅचान में संकोच न करे तो सदाचार के किसी भाव का पालन नहीं कर सकता । मनुस्मृति ने इस बात को बहुत स्पष्ट रीति से वर्णन किया है, इसलिये जहाॅ कहीं पशु-वध का विधान है वह सब मिलावट है । कुछ लोग समझते है कि यज्ञों में पशु-वध विहित है। परन्तु मनुस्मृति के मौलिक सिद्धान्त इस बात की पुष्टि नही करते। देखिये:-

पन्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषयुपस्करः।                                                                                   कएडनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्।।                                                                                                                                                                   (3।68)