Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो मनुष्य विधि परित्याग कर पिशाच की तरह मांस भक्षण नहीं करता है वह लोक में सर्व प्रिय होता है और विपत्ति के समय कष्ट नहीं पाता।
टिप्पणी :
वेदों में नीकृष्ट जीवों को मनुष्यों के रक्षार्थ वध करना तो लिखा है परन्तु यज्ञादि के निमित्त पशुवध व जीवहत्या करना बाद को सम्मिलित किया गया है। राजा का धर्म है कि दस्यु आदि मनुष्यों को तथा सिंहादि जीवों को मनुष्यों के रक्षार्थ मारें (आखेट करें)
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (५।५०) श्लोक निम्न लिखित कारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) यह श्लोक प्रसंग विरूद्ध है । ५।४९ में सब प्रकार के मांस खाने का निषेध किया है और ५।५१ में मांस की प्राप्ति से सम्बद्ध सभी व्यक्तियों को घातक माना है । फिर इनके मध्य में विधि और अविधि के आधार पर मांस - भक्षण की प्रशंसा अथवा निन्दा करना पूर्वापर प्रसंग के विरूद्ध है ।
(ख) यह श्लोक मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मनु ने मांस - भक्षण का सर्वथा निषेध किया है और मांस को राक्षसी भोजन बताया है । एतदर्थ ५।२६-४२ श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है ।
(ग) मनुस्मृति मनुप्रोक्त है । मनु जी के प्रवचन में अयुक्तियुक्त बातों का सर्वथा अभाव है । किन्तु इसमें अयुक्तियुक्त बात अर्थात् जो विधि रहित मांस खाता है, वह रोगों से पीड़ित होता है, विधि से खाने से नहीं । मांस यदि रोग - कारक हैं, तो विधि या अविधि को कारण मानना निरर्थक ही है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जो मनुष्य पिशाचों के विधान की परवाह न करके पिशाचवत् मांस-भक्षण नहीं करता, वह लोक में प्यारा बनता है, और रोगों से पीड़ित नहीं होता।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(पिशाचवत्) पिशाच अर्थात् दुष्ट पुरुषों के समान (विधि) भोजन तथा भक्ष्य-अभक्ष्य के नियम को (हत्वा) छोड़कर (यः मांसं न भक्षयति) जो मांस को नहीं खाता अर्थात् जो पुरुष भक्ष्य-अभक्ष्य सम्बन्धी नियम तोड़ने वाले पिशाचों का अनुकरण नहीं करता, (स) वह (लोके) जगत् में (प्रियतां याति) प्रियता को पाता है। (व्याधिभिः च न पीडयते) और न रोगों में ग्रसित होता है।