Manu Smriti
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या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे ।अहिंसां एव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ ।।5/44
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो हिंसा इस संसार में वेदाज्ञानुसार है उसको वैसा अर्थात् जीवहत्या न जानना चाहिये क्योंकि वेद ही से धर्म निकला है।
टिप्पणी :
यज्ञ में पशुवध वाममार्गियों ने सम्मिलित किया है अन्यथा वेदों में तो यज्ञ के अर्थ में अश्वर शब्द आता है जिसका अर्थ यह है कि जिसमें कहीं हिंसा न हो। उसका यही प्रमाण है कि विश्वामित्र ने हिंसा के भय से अपने यज्ञ में स्वयम् राक्षसों को नहीं मारा वरन् रक्षा के निमित्त रामचन्द्र को बुलाया।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अस्मिन् चराचरे) इस लोक में (या वेदविहिता हिंसा नियता) जो वेद विहित हिंसा नियत है, (अहिंसां एव तां विद्यात्) उसको अहिंसा ही समझना चाहिये। (वेदात् धर्मः हि निर्बभौ) वेद से ही धर्म निकला है।
टिप्पणी :
अर्थात् जिन स्थानों पर दण्ड का विधान है वहाँ हिंसा के डर से हट नहीं जाना चाहिये अन्यथा महती हानि होने की आशंका है। यदि बच्चे को दण्ड न दें तो वह बिगड़ जायँगे। यदि राजा हिंसा के भय से चोर को दण्ड न दें तो चोरी बढ़ जायेगी। इसलिये जिन स्थानों पर वेद ने प्राणियों के उपकारार्थ किसी को पीड़ा पहुँचाने का विधान किया है उसको हिंसा की कोटि में ही न रखना चाहिये। इसको अगले श्लोक में स्पष्ट किया है:-
 
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