Manu Smriti
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ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा ।यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ।।5/40
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अन्न, पशु, वृक्ष, पक्षी, कछुवा आदि यह सब यज्ञ निमित्त वध किये जाने से आगामी जन्म में उत्तम जाति को पाते हैं।
टिप्पणी :
यज्ञ में पशुवध वाममार्गियों ने सम्मिलित किया है अन्यथा वेदों में तो यज्ञ के अर्थ में अश्वर शब्द आता है जिसका अर्थ यह है कि जिसमें कहीं हिंसा न हो। उसका यही प्रमाण है कि विश्वामित्र ने हिंसा के भय से अपने यज्ञ में स्वयम् राक्षसों को नहीं मारा वरन् रक्षा के निमित्त रामचन्द्र को बुलाया।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (५।२६ - ४२) सतरह श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) जिस मांस के विषय में मनु ने बहुत ही स्पष्ट लिखा है - (१) यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम् ।। (११।९५) २. नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।। (५।४८) अर्थात् मांस राक्षसों का भोजन है । यह प्राणियों की हिंसा के बिना नहीं प्राप्त होता । और प्राणियों की हिंसा से सुख नहीं मिल सकता, इसलिये मांस - भक्षण कभी न करें । और ५।५१ में मांस खाने वाले को घातक - आठ पापियों में गिना है । क्या वही विद्वान् - मनु मांस भक्षण का विधान कर सकता है ? इसलिये ५।२६-३८ तक के मांस भक्षण के प्रतिपादक श्लोक मनु की मान्यता से सर्वथा विरूद्ध हैं । क्यों कि मनु ने अहिंसा को परम धर्म माना है, फिर वह हिंसा का विधान कैसे कर सकता है । (ख) और यज में पशुबलि का विधान ५।३९ - ४२ में मनु की मान्यता के विरूद्ध है । जिस यज्ञ का एक ‘अध्वर - हिंसारहित’ सार्थक नाम शास्त्रों में बताया है और जिसे ‘यज्ञों वै श्रेष्ठतम कर्म’ कहकर सबसे उत्तम कर्म माना है, क्या उसमें प्राणियों की बलि करना कदापि संगत हो सकता है ? और यज्ञ का उद्देश्य है - वायु, जलादि की शुद्धि करना । इसलिये उसमें रोग नाशक, कीटाणु- नाशक, पौष्टिक, सुगन्धित द्रव्यों की आहुति दी जाती है । यदि मांस की आहुति से यज्ञ के उद्देश्य, की पूर्ति होती हो तो मनुष्य को अन्त्येष्टि के समय सुगन्धित घृत, सामग्री चन्दनादि के प्रक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है । क्यों कि उनके मत से तो मांस से ही उद्देश्य पूर्ति हो जायेगी । किन्तु यह प्रत्यक्षविरूद्ध है । अग्नि में मांस डालने से दुर्गन्ध ही फैलती है, सुगन्ध नहीं । और जिस मनु ने गृहस्थी के लिये पंच्चमहायज्ञों का इसलिये विधान किया है कि (३।६८-६९) घर में चूल्हा, चक्की, बुहारी, ऊखल तथा जल - कलशादि के द्वारा अनजाने में भी जो हिंसा हो जाती है, उनके प्रायश्चित के लिये दैनिक महायज्ञों द्वारा परिहार हो । क्या वह मनु जान बूझकर यज्ञों में पशुओं के वध का विधान कर सकता है ? और उस पशु - वध का कोई प्रायश्चित भी नहीं लिखा । और मनु जी ने वेद को परम प्रमाण माना है । ‘धर्म जिज्ञासमाननां प्रमाणं परमं श्रुतिः’ यह मनु जी का निश्चित सिद्धान्त है । जब वेदों में पशुओं की हिंसा के निषेध का स्पष्ट विधान किया गया है, तो मनु वेद - विरूद्ध पशुवध को कैसे कह सकते हैं ? वास्तव में ऐसी मिथ्या मान्यतायें वाम मार्गी लोगों की हैं, जिन्होंने मनु स्मृति जैसी प्रामाणिक स्मृति में भी अपनी मान्यता की पुष्टि में प्रक्षेप किया है । क्यों कि उनकी मान्यता है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा तथा मैथुन ये पांच्चमकार मोक्ष देने वाले हैं । (ग) ५।४२ में ‘अब्रवीन्मनुः’ वाक्य से भी इन श्लोकों की प्रक्षिप्तता स्पष्ट हो रही है कि इन श्लोकों का रचयिता मनु से भिन्न ही है । क्यों कि मनु की यह शैली नहीं है कि वह अपना नाम लेकर स्वयं प्रवचन करें । (घ) ५।४२ में यज्ञ से भिन्न मधुपर्क तथा श्राद्ध में भी पशुओं की हिंसा लिखी है, यह भी मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मधुपर्क, जिसमें मधु - शहद, घृत अथवा दही का ही मिश्रण होता है, उसमें भी मांस की बात कहना मधुपर्क को ही नहीं समझना है । और जिस श्राद्ध के लिये (३।८२ में) मनु ने अन्न, दूध फल, मूल, जलादि से विधान किया है, क्या वह अपने वचन के ही विरूद्ध श्राद्ध में मांस का विधान कर सकते हैं ? यथार्थ में यह मृतकश्राद्ध की कल्पना करने वालों का अयुक्तियुक्त प्रक्षेप है । (ड) इन श्लोकों में अवान्तर विरोध भी कम नहीं है, जिससे स्पष्ट है कि इनके बनाने वाले भिन्न - भिन्न व्यक्ति थे । क्यों कि एक व्यक्ति के लेख में ऐसे सामान्य विरोध नहीं हो सकते । जैसे - १. ५।३१ श्लोक में यज्ञ के लिये मांस का खाना देवों की विधि बताई है और यज्ञ से अन्यत्र शरीर - पुष्टि के लिये मांस खाना राक्षसों का कार्य माना है । यदि मांस खाने में दोष है, तो चाहे यज्ञ के निमित्त से खाये अथवा अन्य निमित्त से, दोष कैसे हटाया जा सकता है ? और देवता व राक्षस का इससे क्या भेद हुआ ? मांस तो दोनों ही खा रहे हैं । २. और ५।१४-१५ में मछलियों के खाने का सर्वथा निषेध किया हे और ५।१६ में हव्य - कव्य में मछलियों के खाने का विधान किया है । ३. ५।२२ में कहा है कि सेवकों की आजीविका के लिये पशु - पक्षियों का वध करना चाहिये और ५।३८ में कहा है कि यज्ञ से अन्यत्र पशुओं का वध करने वाला जितने पशुओं को मारता है, उतने जन्मों तक वह बदले में मारा जाता है । ४. और ५।११-१९वें श्लाकों में कुछ पशुओं को भक्ष्य और कुछ को अभक्ष्य कहा है और ५।३० में कहा है कि ब्रह्मा ने सारे पशुओं व पक्षियों को खाने के लिये बनाया है । अतः इस प्रकार के परस्पर - विरोधी वचन किसी विद्वान् व्यक्ति के भी नहीं हो सकते, मनु के कहना तो अनर्गल प्रलाप ही है ।
 
USER COMMENTS
Comment By: bajrang singh
ye apki bat galat hai jis eshwar ne kisi ko jeevan diya hai to dusaro ko marne ka adhikar nahi hai marne ka
Comment By: ADMIN
नमस्ते bajrang singh जी इस श्लोक को टीकाकार ने प्रक्षिप्त बताया है अतः आपकी शंका का निवारण यही है की ईश्वर ने किसी भी निरपराधी या पशु पक्षी की हत्या की आज्ञा नही दी है
 
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