Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो वस्तु खाने योग्य नहीं है उसको अनभिज्ञता में खा जाने से जो दोष हैं उसके विनाशार्थ साल भर में एक कृच्छ व्रत को करें। यदि जान कर खाया हो तो उसके हेतु विशेष कर कृच्छ व्रत करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तेरह (५।११ - २३) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ५।११-२१ श्लोकों में जानकर अथवा अनजाने मांसभक्षण करने पर ‘सान्तपन’ आदि उपवासों का विधान किया है । जब मनु जी ने मांस भक्षण को राक्षसों का भोजन माना है और मांस - भक्षण का सर्वथा निषेध किया है फिर यह मांस भक्षण की व्यवस्था मनुसम्मत कैसे हो सकती है ?
(ख) और यज्ञ, जिसको वेदों में अध्वर - हिंसा से रहित माना है, क्या वेदों को परमप्रमाण मानने वाले मनु यज्ञों में हिंसा पूर्ण पशुओं के वध का आदेश दे सकते हैं ? यह तो बिल्कुल ही असम्भव है । इसलिये ये श्लोक वाम मार्गी लोगों ने बाद में मिलाये हैं । एतदर्थ ४।२६-२८ की समीक्षा भी द्रष्टव्य है ।
(ग) ये श्लोक पूर्वापर - प्रसंग को भंग करने के कारण भी प्रक्षिप्त हैं । ५।१० में कहा है - दही और दही से बने पदार्थ भक्ष्य हैं और ५।२४ में भी दही से बने घृत अथवा घृत मिश्रित पदार्थों के भक्षण का विधान किया है । इनके बीच में मांस भक्षणादि का वर्णन प्रसंग को भंग कर रहा है । कोई भी लेखक ऐसा नहीं कर सकता कि किसी विषय को प्रारम्भ करके बीच में उससे भिन्न विषय का वर्णन करने लगे और बाद में फिर पूर्ववर्णित विषय को कहे । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
(घ) और प्रक्षेपक ने अपनी बात की पुष्टि के लिए ५।२२ वें श्लोक में अगस्त्य मुनि का भी नाम लिया है, जो कि स्पष्ट रूप में इनको प्रक्षिप्त सिद्ध करता है । क्यों कि सृष्टि के प्रारम्भ में होने वाले मनु बाद में होने वाले ऋषियों के उदाहरण कैसे दे सकते हैं ?
(ड) और ५।२३ में ‘पुराणेषु’ कहकर तो प्रक्षेपक ने यह स्पष्ट ही कर दिया है कि ये श्लोक भागवतादि पुराणों की रचना के बाद में ही मिलाये गये हैं ।