Manu Smriti
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कलविङ्कं प्लवं हंसं चक्राह्वं ग्रामकुक्कुटम् ।सारसं रज्जुवालं च दात्यूहं शुकसारिके ।।5/12
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तेरह (५।११ - २३) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ५।११-२१ श्लोकों में जानकर अथवा अनजाने मांसभक्षण करने पर ‘सान्तपन’ आदि उपवासों का विधान किया है । जब मनु जी ने मांस भक्षण को राक्षसों का भोजन माना है और मांस - भक्षण का सर्वथा निषेध किया है फिर यह मांस भक्षण की व्यवस्था मनुसम्मत कैसे हो सकती है ? (ख) और यज्ञ, जिसको वेदों में अध्वर - हिंसा से रहित माना है, क्या वेदों को परमप्रमाण मानने वाले मनु यज्ञों में हिंसा पूर्ण पशुओं के वध का आदेश दे सकते हैं ? यह तो बिल्कुल ही असम्भव है । इसलिये ये श्लोक वाम मार्गी लोगों ने बाद में मिलाये हैं । एतदर्थ ४।२६-२८ की समीक्षा भी द्रष्टव्य है । (ग) ये श्लोक पूर्वापर - प्रसंग को भंग करने के कारण भी प्रक्षिप्त हैं । ५।१० में कहा है - दही और दही से बने पदार्थ भक्ष्य हैं और ५।२४ में भी दही से बने घृत अथवा घृत मिश्रित पदार्थों के भक्षण का विधान किया है । इनके बीच में मांस भक्षणादि का वर्णन प्रसंग को भंग कर रहा है । कोई भी लेखक ऐसा नहीं कर सकता कि किसी विषय को प्रारम्भ करके बीच में उससे भिन्न विषय का वर्णन करने लगे और बाद में फिर पूर्ववर्णित विषय को कहे । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं । (घ) और प्रक्षेपक ने अपनी बात की पुष्टि के लिए ५।२२ वें श्लोक में अगस्त्य मुनि का भी नाम लिया है, जो कि स्पष्ट रूप में इनको प्रक्षिप्त सिद्ध करता है । क्यों कि सृष्टि के प्रारम्भ में होने वाले मनु बाद में होने वाले ऋषियों के उदाहरण कैसे दे सकते हैं ? (ड) और ५।२३ में ‘पुराणेषु’ कहकर तो प्रक्षेपक ने यह स्पष्ट ही कर दिया है कि ये श्लोक भागवतादि पुराणों की रचना के बाद में ही मिलाये गये हैं ।
 
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