Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दो (५।६-७) श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ये दोनों श्लोक परस्पर - सम्बद्ध हैं क्यों कि दोनों ‘विवर्जयेत्’ क्रिया से जुड़े हुए हैं । ५।७ में देवों के उद्देश्य के बिना बनाये मांस भक्षण का निषेध किया है । इससे स्पष्ट है कि देवों के उद्देश्य से मांस - भक्षण किया जा सकता है । यह मान्यता मनु जी की नहीं है । क्यों कि उन्होंने मद्य व मांस को राक्षसों का भोजन माना है और ५।४८, ४९, ५१ श्लोकों में मांस - भक्षण का स्पष्ट रूप से निषेध किया है । अतः मांस भक्षण के श्लोक अन्तर्विरोध होने से मनु जी के नहीं हो सकते ।
(ख) और इन श्लोकों में बिना किसी कारण के ऐसे भक्ष्य पदार्थों का भी निषेध किया है, जो मानव के लिए आवश्यक हैं और मनु ने ५।१० में जिन्हें (दूध से बनने वाली दही, मक्खनादि और फूल, फलादि को) भक्ष्य कहा है । अतः ५।६ के वृक्षों के गोंद, वृक्षों के रस, गाय का खीस, और ५।७ में हलवा, खीर, मालपूआ, खिचड़ी आदि भक्ष्य पदार्थों को भी अभक्ष्य कहना निरर्थक ही है । यदि इनके खाने में कोई दोष होते, तो मनु जी अवश्य दिखाते । और देवों के उद्देश्य की बात भी ठीक नहीं, क्यों कि ये चीजें खाने के लिए भी बनाई जाती हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
द्विजको चाहिए कि वह लाल रंग की वृक्ष की गोंदें तथा वृक्ष के छेदने से उत्पन्न होने वाले सब प्रकार के गोंद, लेसूड़ा, और नवप्रसुत गाय की खीस सर्वथा छोड़दे।