Manu Smriti
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अनभ्यासेन वेदानां आचारस्य च वर्जनात् ।आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ् जिघांसति ।।5/4
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वेदाभ्यास न करने से, आलस्य करने से, आचार परित्याग से, भोजनदोष से ब्राह्मणों को मृत्यु मारती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (५।१-४)चार श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) मनुस्मृति महर्षि मनु - प्रोक्त है, और इसी नाम से प्रसिद्ध है किन्तु यहाँ ५।१ तथा ५।३ में स्पष्ट रूप से भृगु - प्रोक्त सिद्ध की गई है कि महर्षि लोग महात्मा भृगु जी के पास गये और उन्होंने वेद शास्त्र वेत्ताओं की मृत्यु के विषय में पूछा । किन्तु यह बात मनुस्मृति के १।१ श्लोक से विरूद्ध है । क्यों कि वहां कहा है कि महर्ष मनु के पास गये और उन्होंने वर्णाश्रमधर्म के विषय में जिज्ञासा की । और ५।१ श्लोक से यह भी स्पष्ट है कि ये श्लोक भृगु से भिन्न किसी व्यक्ति ने बनाये हैं । यह किसी ने मनु प्रोक्त शास्त्र को भृगुप्रोक्त सिद्ध करने का दुष्प्रयास - मात्र ही किया है । (ख) सम्पूर्ण - मनुस्मृति के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मनु जी की एक प्रवचन - शैली निश्चित है कि वे विषयों का निर्देश प्रारम्भ और समाप्ति पर अवश्य करते हैं । इस प्रकार बीच में प्रश्नोत्तर रूप से नहीं । अतः यह प्रश्नोत्तर की शैली मनु की नहीं है । (ग) इन चारों श्लोकों की संगति इस अध्याय के अग्रिम भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी श्लोकों से भी नहीं मिलती । मनु जी की शैली के अनुसार अग्रिम श्लोकों का विषय - निर्देशक श्लोक भी इस मनुस्मृति में नहीं है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रक्षेप करने वाले ने विषय निर्देशक श्लोक को हटाकर इन श्लोकों को मिलाया है । मनुस्मृति के १२वें अध्याय के प्रारम्भ में भी ऐसा ही किया गया है । परन्तु वहां का विषय - निर्देशक मूल श्लोक कुछ प्रतियों में उपलब्ध है । किन्तु ‘भक्ष्याभक्ष्य’ विषय का निर्देशक श्लोक किसी भी प्रति में नहीं मिलता । (घ) इस अध्याय के ‘अभक्ष्याणि द्विजातीनाम्०’ (५।५) ‘स्नेहाक्तं द्विजातिभिः’ (५।२५) इत्यादि श्लोकों से स्पष्ट है कि यहाँ वण्र्यविषय (भक्ष्याभक्ष्य) सभी द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) के लिये है । किन्तु यहां (५।२ में) केवल वेद शास्त्र वेत्ताओं की मृत्यु के विषय में ही पूछा गया है । अतः प्रक्षेपक को यह भी ध्यान नहीं रहा कि अगले श्लोकों से तो संगति मिलाने का प्रयत्न करता । इससे प्रक्षेपक की विवेकशून्यता ही प्रकट होती है । (ड) मनु जी के भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों के वर्णन से स्पष्ट है कि उन्होंने सतोगुण, रजोगुण, तथा तमोगुण के आधार पर ही भक्ष्याभक्ष्य का निर्धारण किया है, मृत्युकारक की दृष्टि से नहीं । अथवा अमेध्यप्रभवाणि च कहकर पवित्रता तथा अपवित्रता की ओर ध्यान दिलाया है । किन्तु किसके खाने से मृत्यु और किसके खाने से अमरता होती है, यह नहीं दिखाया । और भक्ष्याभक्ष्य से अमरता का कोई सम्बन्ध भी नहीं है । अतः ५।१-२ में किये प्रश्न के अनुरूप अग्रिम वर्णन भी न होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं । (च) इन श्लोकों में परस्पर अन्तर्विरोध भी है । ५।२ में प्रश्न किया गया है कि अपने धर्म में स्थित वेदशास्त्रवेत्ताओं की मृत्यु का कारण क्या है और ५।४ में कारण अर्थात् वेद का अभ्यास न करनादि बताये हैं । क्या वेदशास्त्रवेत्ता वेदों के पठन - पाठनादि के बिना ही अपने धर्म में स्थित कहे जा सकते हैं ? अथवा जो वेद शास्त्रों का अभ्यास अथवा पठन - पाठनादि ही नहीं करते क्या वे वेद शास्त्रवेत्ता कहलाने के अधिकारी हैं ? अतः यह परस्पर विरोधी कथन है । (छ) ५।३ में यह पूछा गया है कि किस दोष से वेद शास्त्र वेत्ताओं की मृत्यु होती है ? और ५।४ में उन दोषों का स्पष्टीकरण कर दिया गया, जिन में अन्नदोष से भिन्न भी दोष हैं । किन्तु यह अग्रिम श्लोकों से संगत नहीं है । क्यों कि आगे तो भक्ष्याभक्ष्य का वर्णन होने से अन्नदोष ही कहा गया है । यदि मनु को अन्नदोष से भिन्न भी दोष दिखाने होते तो अन्यत्र भी अवश्य कहते । और मृत्यु - (दुःख) के कारण क्या इनसे भिन्न नहीं हैं ? अतः इन श्लोकों की अगले श्लोकों से बिल्कुल भी संगति नहीं है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
वेदों का अभ्यास न करने से, सदाचार को छोड़ने से, आलस्य से, और दूषित अन्न के सेवन से मृत्यु अकाल ही में द्विजों को मारना पसन्द करती है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अनभ्यासेन वेदानां) वेदों का अभ्यास न करने से, (आचारस्य च वर्जनात्) सदाचार के छोड़ देने से, (आलस्यात्) आलस्य से, (अन्न दोषात् च) और अन्न के दोष से (मृत्यु) मौत (विप्रान) विद्वानों को (जिघांसति) खाना चाहती है।
 
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