Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
देव, ऋषि, पितर इन तीनों को ऋण से यथाविधि छूटकर, सब वस्तुएँ पुत्र को सौंप कर संसार त्यागी होकर सबको एक दृष्टि से एक समान देखें और गृह ही में रहें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. उक्त विधि के अनुसार व्यक्ति (ब्रह्मचर्य - पालन एवं अध्ययन - अध्यापन से) ऋषि - ऋण को, (माता - पिता आदि बुजुर्गों की सेवा एवं सन्तानोत्पत्ति से) पितृ - ऋण को (यज्ञों के अनुष्ठान से) देवऋण को चुकाकर घर की सारी जिम्मेदारी पुत्र को सौंपकर (तत्पश्चात् वान प्रस्थ लेने से पूर्व जब तक घर में रहे तब तक) उदासीन भाव के आश्रित होकर अर्थात् सांसारिक मोह माया के प्रति विरक्त भाव रखते हुए घर में निवास करे ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(महर्षि-पितृ देवानां अनृण्र्यं यथाविधि गत्वा) ऋषि-ऋण, पितृ-ऋण तथा देव-ऋण को यथाविधि चुकाकर (पुत्रे सर्वं समासज्य) पुत्र को सब कुछ सौंपकर (वसेत् माध्यस्थं आश्रितः) वाणप्रस्थ आश्रम को जावें।