Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
लकड़ी, जल, मूल, फल, अन्न, मधु अभय यह सब अयाचना (बेमाने) प्राप्त होवें तो इनको सबसे लेना चाहिये। परन्तु विषयों, पतित, नपुंसक तथा शत्रु में न लेवें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सात (४।२४७ - २५३) श्लोक निम्नलिखितकारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) इन श्लोकों में मनु की मान्यताओं से विरूद्ध बातें कहीं गई हैं । जैसे - मनु ने जीवित पितरों के दैनिक श्राद्ध को (३।८२में) माना है । किन्तु यहाँ ४।२४९ में मृत - पितरों के श्राद्ध का स्पष्ट वर्णन है । और मनु जी ने मांस - भक्षण को राक्षसों का भोजन माना है और ५।४८ तथा ५।५१ में मांस - भक्षण का निषेध किया है, किन्तु यहां (४।२५०में) मांस - भक्षण का उल्लेख किया गया है । और मनु जी ने मानव - समाज को चार वर्णों में कर्मानुसार विभक्त किया है, नापित, रजक आदि उपजातियों में नहीं । किन्तु यहाँ ४।२५३ में ‘नापित’ जाति का उल्लेख किया गया है । और मनु जी ने खेती करना तथा गो - पालन वैश्य के कर्म माने हैं, किन्तु यहां ४।२५३ में खेती करने वाले तथा गो - पालन करने वाले को शूद्रों में माना है । और मनु जी ने बुरे लोगों से (२।१८५ में) भिक्षा लेने का निषेध किया है, किन्तु यहां ४।२४८ में सबसे भिक्षा लेने का विधान किया है, चाहे वह अच्छा हो अथवा बुरा । मनु जी ने २।४८ - ४९ आदि श्लोकों में याचित को भिक्षा माना है, परन्तु यहां ४।२४८ में बिना मांगी हुई को (अयाचित को) भी भिक्षा कहा है । इस प्रकार इन श्लोकों में अन्तर्विरोध भरा पड़ा है ।
(ख) इन श्लोकों के प्रक्षेपक ने अपने श्लोकों को प्रामाणिक बनाने के लिये (४।२४८ में) प्रजापति - ब्रह्मा का नाम भी जोड़ा है, जिससे स्पष्ट है कि ये श्लोक परवत्र्ती किसी मनुष्य के बनाये हुए हैं ।
(ग) मनु जी ने सभी वर्णों के आपत्कालीन धर्मों का वर्णन दशमाध्याय में किया है । यहाँ धारणीय व्रतों का ही प्रकरण है । किन्तु यहां ४।२५२ में आपद्धर्म का वर्णन किया है, जो कि इस प्रकरण से विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है ।
(घ) और इस अध्याय में सतोगुणवर्धक व्रतों का प्रकरण चल रहा है । इनके बीच में इन श्लोकों में वर्णित बातों का व्रतों से कोई सम्बन्ध नहीं है । अतः ये श्लोक विषयविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।