Manu Smriti
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धर्मं शनैः संचिनुयाद्वल्मीकं इव पुत्तिकाः ।परलोकसहायार्थं सर्वभूतान्यपीडयन् ।।4/238

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ऐसी विधि से जिसमें किसी भूत (जीव प्राणी) को कष्ट न होने पावे परलोक के सहायतार्थ धीरे 2 संचय (इकट्ठा) करें जैसे बल्मीक (चींटी) अन्न संग्रह करती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. जैसे पुत्तिका अर्थात् दीमक वल्मीक अर्थात् बांबी को बनाती है वैसे सब भूतों को पीड़ा न देकर परलोक अर्थात् परजन्म के सुखार्थ धीरे - धीरे धर्म का संचय करे । (स० प्र० चतुर्थ समु०)
टिप्पणी :
‘‘जैसे दीमक धीरे - धीरे बड़े भारी घर को बना लेती हैं, वैसे मनुष्य परजन्म के सहाय के लिए सब प्राणियों को पीड़ा न देकर धर्म का संचय धीरे - धीरे किया करे ।’’ (सं० वि० गृहाश्रम प्र०) यहाँ ‘धीरे - धीरे’ से अभिप्राय सावधानी पूर्वक धर्म पालन करने से है । जैसे दीमक अपनी बांबी को बनाते हुए सावधानी बरतती है और उसे गिरने नहीं देती इसी प्रकार मनुष्य भी अपने को कभी धर्म से गिरने न दे । कहीं कोई अधर्म न हो जाये, इस बात की सावधानी रखें । (स०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
६६-गृहस्थ को चाहिए कि जैसे दीमक धीरे-धीरे बड़े भारी वामी-घर को बना लेती हैं, वैसे सब भूतों को किसी तरह का कष्ट न देता हुआ परजन्म में सहायता के लिए धीरे-धीरे धर्म का संचय करले।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(धर्मं शनैः संचिनुयात्) धर्म को शनैः शनैः उपार्जन करें। (वल्मीकं पुत्तिकाः इव) जैसे चींटियाँ चिटेह को। (परलोक सहाय अर्थ) परलोक की सहायता के लिये। (सर्व भूतानि अपीडयन्) किसी प्राणी को कष्ट न देते हुये।
 
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