Manu Smriti
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यत्किं चिदपि दातव्यं याचितेनानसूयया ।उत्पत्स्यते हि तत्पात्रं यत्तारयति सर्वतः ।।4/228
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अन्दिक भिक्षुकों को निजबलानुसार दान दिया करें, क्योंकि सदैव के देने में किसी न किसी दिवस कोई पात्र (योग्य) धर्मात्मा आ जावेगा और ज्ञानोपदेश से तार देगा।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।२२८ - २३२ तक) पाँच श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) इन श्लोकों में मनु की मान्यताओं से विरूद्ध कल्पनायें की गई हैं जैसे मनु की मान्यता है कि (४।२४० के अनुसार) कत्र्ता जीवात्मा पुण्यापुण्यकर्मो का शुभाशुभ फल स्वयं भोगता है । दूसरे के कर्मों का फल दूसरे को नहीं मिलता । परन्तु यहाँ ४।२२८ में कहा है कि दान लेने वाला दान दाता के कुल में उत्पन्न सुपात्र व्यक्ति को दुःखों से पार कोई दूसरा ही हो रहा है । इसी प्रकार ४।२२९ तथा ४।२३२ में कहा है कि अन्न देने वाला अक्षयसुख - मोक्ष को प्राप्त करता है । यदि केवल धान्य - दान से ही मोक्ष - प्राप्ति हो सकती है, तो मनु प्रोक्त सब मानव धर्म और नैश्श्रेयसकर कर्मों का मोक्ष के लिये विधान निरर्थक ही है । फिर तो पापी से पापी व्यक्ति भी अधर्म से अर्जित धन से धान्य - दान करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है । इतने सरल एवं सुगम मार्ग को छोड़कर यम - नियमों वाले तपस्या के मार्ग को कौन अपनायेगा ? इसी प्रकार ४।२३१ में विभिन्न दानों से चन्द्र, सूर्य आदि लोकों की प्राप्ति कहना भी निरर्थक ही है । क्यों कि मनु ने मृत्यु के बाद जीव की दो ही गतियाँ बताई हैं - संसार में पुनर्जन्म, अथवा मोक्षप्राप्ति । मनु के अनुसार यह एक मिथ्या मान्यता है कि वस्त्रदान करने से चन्द्रलोक और गोदान करने से सूर्यलोक की प्राप्ति होती है । यद्यपि चन्द्रादि लोक भी वसु हैं जिनमें जीव जन्म लेते हैं, किन्तु सर्वत्र परमेश्वर की व्यवस्था से जीव कर्मानुसार जाता आता है, उसमें वस्त्रदान तथा धान्यदान ही कोई विशेष कारण नहीं है । (ख) और इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त, असंगत तथा अतिशयोक्तिपूर्ण बातें हैं , जो मनु जैसे आप्त पुरूष की शैली से विरूद्ध हैं । जैसे - ४।२२९ - २३२ तक श्लोकों में परिगणित पदार्थों के दान से जो उनका फल दिखाया गया है, उनमें कोई संगति नहीं हैं । अन्नदान से मोक्ष का मिलना, तिलदान में संतान - प्राप्ति, दीपदान से चक्षु की प्राप्ति, स्वर्ण -दान से दीघ्र जीवन का मिलना, चांदी के दान से सुन्दर रूप का मिलना, बैल के दान से लक्ष्मी का मिलना, वस्त्रदान से चन्द्र तथा गोदान से सूर्यलोक की प्राप्ति का मानना, इत्यादि बातें केवल काल्पनिक ही हैं । क्यों कि मनु ने तो किसी एक कर्म का ऐसा फल नहीं माना । उनके अनुसार तो मानव को सात्त्विक, राजसि तथा तामसिक प्रवृत्तियों के कारण विभिन्न उत्तम, मध्यम व अधम योनियों में जाना पड़ता है । अतः ये श्लोक मनु - प्रोक्त नहीं हो सकते ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जब कोई पात्र दान की याचना करे तो गृहस्थ को चाहिए कि निन्दादि दोषों से रहित होकर उसे कुछ न कुछ अवश्य देवे, क्योंकि किसी समय ऐसा पात्र भी मिल जावेगा जोकि उसे सब प्रकार से तार दे।१
टिप्पणी :
१. पात्र वह है जो धन को न बुरे कार्मों में खर्च करता है, न संचय करता है, और न बढ़ी हुई आवश्यकतायों वाला है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अनसूयया याचितेन यत् किंचित् अपि दातव्यं) बिना बुरी वासना के यदि कोई कुछ माँगे तो अवश्य ही कुछ न कुछ दे दें। (तत् पात्रं हि उत्पत्स्यते) ऐसा पात्र भी मिल ही जायेगा (यत् तारयति सर्वतः) जो सब ओर से तार देगा।
 
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