Manu Smriti
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दानधर्मं निषेवेत नित्यं ऐष्टिकपौर्तिकम् ।परितुष्टेन भावेन पात्रं आसाद्य शक्तितः ।।4/227

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
उत्तम ब्राह्मण को पाकर शक्त्यानुसार परितुष्ट करने के भाव से सदैव यज्ञ तथा कुँवा आदि का दान करें, अर्थात् उत्तम ब्राह्मणों को अपनी शक्ति के अनुसार सन्तुष्ट करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
द्विज सुपात्र को देखकर प्रसन्न मन से शक्ति के अनुसार सदैव यज्ञों के आयोजन सम्बन्धी और उपकारार्थ कूआ, तालाब आदि निर्माणसम्बन्धी दानधर्म का पान करे अर्थात् दान दिया करे ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
६४-गृहस्थ को चाहिए कि वह सुपात्र को पाकर प्रसन्न मन से यथाशक्ति नित्य ऐष्टिक और पौर्तिक दानधर्म का पालन किया करे।१
टिप्पणी :
१. इष्टि आदि यज्ञों को करके जो ऋत्विजों को दान दिया जाता है वह ऐष्टिक, और तालाब-कूंआ, धर्मशाला, बाग-बगीचा, शिक्षामन्दिर, अनाथालय आदि बनवाना पूर्त-सम्बन्धी दान कहलाता है, क्योंकि इन से अनेकों की रक्षा व पालना होती है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
ऐष्टिक पौर्तिकम् दानधर्मं नित्यम् निषेवेत) यज्ञ और कुएँ आदि निर्माण सम्बन्धी दान-धर्म को नित्य करें। (परितुष्टेन भावेन) श्रद्धापूर्वक (पात्रं आसाद्य) सुपात्र को प्राप्त होकर (शक्तितः) शक्ति के अनुसार। अर्थात् जब कोई सुपात्र मिले तो यथाशक्ति यज्ञ आदि धर्म का पालन करें।
टिप्पणी :
पात्रभूताहि यो विप्रः प्रतिगृह्म प्रतिग्रहम् । असत्सु विनियुंजोत तस्मै देयं न किंचन ।। 147।। (यः विप्रः) जो ब्राह्मण (पात्र भूतः हि) सुपात्र बनकर (¬प्रतिग्रहं) दान को (प्रतिगृह्म) लेकर (असत्सु) बुरे काम में (नियुंजीत) लगावे (तस्मै देयं न किंचन) उसका कुछ दान भी न देना चाहिये।
 
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