Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
परन्तु ब्रह्मा जी देवताओं की सम्मति से सहमत नहीं हैं वरन् वह ब्याज द्वारा आजीविका वाले दानी के अन्न को श्रद्धा व सहृदय होने के कारण उत्तम और कृपण के अन्न को विष के समान निकृष्ट बतलाते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
४।२०५ - २२६ तक के श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) इन सभी श्लोकों के आधार - भूत (४।२०५-२०६) दो श्लोक हैं । और इनमें ऐसी बातों के कथन हैं कि जो मनु की मौलिक बातों का विरोध करती हैं । मनु के अनुसार यज्ञकर्म, देवकर्म है और यह द्विज - मात्र का कर्म माना है । इसमें वेद - मन्त्रों का पाठ होता है, अतः जो वेद - पढ़ना नहीं जानता, न तो वह ब्राह्मण ही है और न वह यज्ञ कर सकता है । और मनु के धर्म - शास्त्र में यज्ञ कर्म में भोजन - खाने की बात कहीं नहीं कही है, फिर यज्ञ में भोजन खाने या न खाने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । हाँ! मृतक - श्राद्ध में भोजन करने की चर्चा अवश्य मिलती है, किन्तु वह मनु की जीवित श्राद्ध की मान्यता से विरूद्ध होने से माननीय नहीं हो सकती । और यज्ञ कराना तो ब्राह्मण के गुण - कर्म स्वभावानुसार ही मनु ने माना है, जन्मना नहीं । अतः ब्राह्मण और अवेदपाठी ये दोनों शब्द परस्पर विरोधी हैं । अतः किसी जन्म मूलक वर्णव्यवस्था के मानने वाले ने इन श्लोकों का प्रक्षेप किया है ।
(ख) स्त्री और नपुंसक के द्वारा आहुति जिस यज्ञ में दी जाये, उसमें भी भोजन का निषेध (४।२०५ में) किया है । इसमें भी पौराणिक युग की यही भावना कार्य कर रही है कि स्त्रियों को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म करने का अधिकार नहीं है । जब कि विवाहादि संस्कार यज्ञ के सामने ही होते हैं और मनु ने धर्म - कार्यों में स्त्री को मुख्य माना है । फिर स्त्री आहुति न करे, यह कैसे सम्भव है ?
(ग) और ४।२०५ में जो ऋत्विक् बहुतों को यज्ञ कराता है, उसके यज्ञ में खाने का भी निषेध किया है । बहुतों को अथवा सामूहिक यज्ञ कराना कोई दुष्कर्म नहीं है, फिर उसकी निन्दा करना निरर्थक ही है ।
(घ) और उसी प्रकार ब्याज लेने वाले का अन्न अभक्ष्य बताना, जब कि ब्याज लेना वैश्यों का कर्म मनु ने माना है, और ४।२१३ में मांस - भक्षण को उचित मानना, जब कि मनु ने मांस - भक्षण को राक्षसों का भोजन माना है, और लुहार, सुनार, चमार आदि उपजातियों का (४।२१४-२१८में) मानना मनु - सम्मत नहीं है, क्यों कि मनु ने चार ही वर्ण माने हैं और इन शिल्प - कर्मों को वैश्यकर्मों के अन्तर्गत माना है, और इन शिल्प - कर्म करने वालों के अन्न को अभक्ष्य बताना मनुसम्मत नहीं हो सकता, क्यों कि ये शिल्प - कर्म तो वैश्य के हैं और वैश्य का कर्म है कि समाज के अभाव को दूर करना । फिर इन शिल्प - कर्म करने वालों के अन्न को मनु अभक्ष्य कैसे कह सकते हैं ? अतः इस प्रकार के उपजातिबोधक तथा पौराणिकभावों के बोधक श्लोक बहुत ही अर्वाचीन हैं, इनका मनु की मान्यताओं से स्पष्ट विरोध है, इसलिये ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं । इनकी शैली अयुक्तियुक्त तथा अतिशयोक्तिपूर्ण है । इन श्लोकों के प्रक्षेपक ने इन श्लोकों को प्रामाणिक बनाने के लिये (४।२२५ में) प्रजापति - ब्रह्मा का भी नाम लिया है । इस मनुप्रोक्त शास्त्र का ब्रह्मा से सम्बन्ध बताना स्वतः ही अमौलिकता को सिद्ध करता है ।