Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सवारी, शय्या (चारपाई), कुवाँ, उद्यान (बाग), गृह (घर) यह सब जिसके हों उस स्वामी की आज्ञा बिना जो निजकार्य में लाता है वह पुरुष उसके स्वामी के पाप के चतुर्थांश को प्राप्त होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह ४।२०२वां श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) यह श्लोक पूर्व प्रसंग से विरूद्ध है । ४।२०१ में कहा है कि कहां स्नान करना चाहिये ? और ४।२०३ में भी स्नान करने के स्थानों का परिगणन किया गया है । किन्तु २०२ वां श्लोक बीच में प्रसंग को भंग कर रहा है ।
(ख) इस श्लोक का विषय भी ‘सतोगुणवर्धनव्रत’ विषय के अन्तर्गत नहीं आता । अतः यह विषयबाह्य होने से प्रक्षिप्त है ।
(ग) और इसका वण्र्यविषय भी अयुक्तियुक्त है । क्यों कि जिसने दूसरे की वस्तु का बिना स्वामी की आज्ञा से उपयोगी किया है, उसने चोरी की है । अतः चोरीरूप पाप कर्म के कत्र्ता को पूर्ण - फल मिलेगा । उसको केवल चतुर्थ - भाग का भागीदार कहना मनु की मान्यता से विरूद्ध है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यान) सवारी, (शय्या) बिस्तर, आसन, कुँआ, बारा, घर, इनको बिना स्वामी की आज्ञा के भोगने वाला उसके पाप के चौथाई भाग का भागी होता है।