Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो ब्रह्मचारी व सन्यासी नहीं हैं किंतु उनका वेष बनाये रहते हैं वह ब्रह्मचारी तथा सन्यासी से पाप को प्राप्त होते हैं और कीट कृमि की योनि में जन्म पाते हैं इसी प्रकार सब आश्रम वालों को जानना।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
४।१९७ - २०० तक चार श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ४।१९७ में पाप कर्म से ‘अन्धतामिस्त्र’ नामक नरक में गिरने की बात मनुसम्मत नहीं है । मनु के अनुसार नरक कोई स्थानविशेष नहीं है । इस विषय में ४।८०-९१ श्लोकों पर विशेष टिप्पणी द्रष्टव्य है ।
(ख) ४।१९८वाँ श्लोक में ‘स्त्री - शूद्रदम्भनम्’ कहकर यह भाव प्रकट किया कि स्त्रियों व शूद्रों को व्रताचरण का अधिकार नहीं है, अथवा वे व्रतों से अनभिज्ञ होने चाहियें । क्यों कि उनके सामने व्रतों के बहाने पाप कर्म को छिपाया जा सकता है । यह भावना पौराणिकयुग की देन है । शुभकर्मों के संकल्प को व्रत, कहते हैं और उसका अधिकार वेद पठन की भांति मानव मात्र को है ।
(ग) जो व्रत छल कपट से किया जाता है, वह राक्षसों को पहुंचता है, यह बात भी अयुक्तियुक्त होने से मनुसम्मत नहीं है । जैसे कोई किसी को अनजाने मार देता है, अथवा भूलकर मद्य पी लेता है, उसको उस दुष्कर्म का फल भी अवश्य मिलता है । वैसे ही जो अच्छा व्रत किया है, चाहे वह छल से किया है, उसका बुरा फल कैसे होगा ? और कर्म किसी दूसरे ने किया, और उसका फल राक्षसों को प्राप्त होना बिल्कुल ही असंगत तथा मनु की मान्यता से विरूद्ध है । मनु ने तो कत्र्ता को ही शुभाशुभ कर्म फल का (४।२४० में) भोक्ता माना है ।
(घ) इसी प्रकार ४।२०० वें श्लोक में भी दिखाया करने वाला लिंगी पुरूषों के पाप का भागीदार होता है, यह बात भी मनु की मान्यता से विरूद्ध है । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अलिंगी) जो ब्रह्मचारी नहीं है और (लिंगिवेषेण) ब्रह्मचारी का रूप रखकर (य वृत्तिं उपजीवति) जीविका कमाता है, (स लिंगिनां हरति एनः) वह ब्रह्मचारियों के पाप को हर लेता है। (तियक् योनौ च जायते) और नीच योनि को पाता है।