Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दो (४।१८८ - १८९) श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं -
इन श्लोकों में अयुक्तियुक्त तथा अतिशयोक्ति पूर्ण कथन करने से ये श्लोक मनुप्रोक्त नहीं हैं । जो विद्याव्यसनी नहीं है, पठन - पाठनादि कार्य भी नहीं करता, उसे दान नहीं लेना चाहिये । क्यों कि प्रत्युपकार न करने से दान का धन अनिष्ट ही करता है इसका ४।१८६ में कथन कर ही दिया, फिर ४।१८९ में किस दान से क्या अनर्थ होता है, यह कथन निरर्थक ही है क्यों कि इन बातों में कोई कारण - कार्य भाव सम्बन्ध नहीं है । और प्रति ग्रहरूचि वाले ब्राह्मण का ब्राह्मतेज नष्ट हो जाता है, इसी बात की ४।१८८ में पुनरूक्ति होने से यह श्लोक भी मौलिक नहीं है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अविद्वान्) जिस पुरुष को दान की वस्तु के प्रयोग का ठीक ठीक ज्ञान नहीं है वह पुरुष (हिरण्यं) सोना, (भूमिं) जमीन, (अश्वं) घोड़ा, (गां) गाय, (अन्नं) अन्न, (वासः) वस्त्र, (तिल) तिल, (घृतं) घी (प्रतिगृह्वन्) का दान लेकर (भस्मी भवति दारुवत्) लकड़ी के समान जल जाता है अर्थात् नष्ट हो जाता है।