Manu Smriti
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न द्रव्याणां अविज्ञाय विधिं धर्म्यं प्रतिग्रहे ।प्राज्ञः प्रतिग्रहं कुर्यादवसीदन्नपि क्षुधा ।।4/187

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सोना, भूमि, अश्व, गऊ, अन्न, वस्त्र, तिल, घी इनमें से किसी एक वस्तु के लेने से मूर्ख ब्राह्मण लकड़ी की नाईं जलकर भस्म हो जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
बुद्धिमान् ब्राह्मण को चाहिए कि द्रव्यों के दान लेने में धर्म की विधि को बिना जाने भूख से पीड़ित होता हुआ भी दान ग्रहण न करे ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(प्रतिग्रहे) दान लेने में (द्रव्याणं धर्मं विधिं अविज्ञाय) द्रव्यों की धर्मयुक्त विधि को न जानकर (प्राज्ञः) बुद्धिमान् (क्षुधा) भूख से (अवसीदन् अपि) पीड़ित होकर भी (न प्रतिग्रहं कुर्यात्) दान न लें। तात्पर्य यह है कि दान में जो द्रव्य लिया जाता है उसका ठीक ठीक धर्मयुक्त प्रयोग करना कठिन है। दान में लिये हुये धन और अपने कमाये धन में भेद है। अपने कमाये धन के दुरुपयोग से जो पाप होता है उसकी अपेक्षा दान में पाये हुये धन के दुरुपयोग से कहीं अधिक पाप होता है। इसलिये बुद्धिमान् को चाहिये कि भूख से पीड़ित होने पर भी दान न लें।
 
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