Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
४।१८१ - १८५ तक पांच्च श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ४।१८१ श्लोक में कहा है कि माता, पिता, आचार्य मामादि से विवाद न करने वाला व्यक्ति सब पापों से छूट जाता है । यह पाप - मुक्ति की भावना अवैदिक होने से मनु - सम्मत कदापि नहीं है । क्यों कि जिस जीव ने जैसा कर्म किया है, वह उसका शुभाशुभ फल अवश्य प्राप्त करता है, उससे छुटकारा कभी नहीं हो सकता । इस विषय में मनु ने (४।२४० में) स्पष्ट कहा है - ‘एकोऽनुभुड्क्ते सुकृतमेकमेव च दुष्कृतम् ।’ और ‘न त्वेव............अधर्मः कत्र्तुर्भवति निष्फलः’(४।१७३) किया हुआ अधर्म कभी निष्फल नहीं होता माना है, अतः पाप कर्मों से मुक्ति की बात ही मनुविरूद्ध है । और कुछ व्यक्ति विशेषों से विरूद्ध न करने मात्र से पापों से यदि मुक्ति सम्भव है, तो मनु - प्रोक्त सारा ही धर्म - विधान निरर्थक हो जायेगा ।
(ख) और यदि मनु ने पापों से मुक्ति नहीं मानी, तो (११।२१०-२३२ में) प्रायश्चितों का विधान किसलिये किया है ? इसका उत्तर मनु के विधान को पढ़ने से स्पष्ट मिल जाता है कि कृत - कर्मों का तो शुभाशुभ फल अवश्य ही मिलेगा, परन्तु पाप कर्म करने से जो मन में वासनायें अथवा संस्कार बन जाते हैं, उनकी शुद्धि प्रायश्चित्त से होती है, जिससे जीव भविष्य में दुष्कर्म करने से बच जाता है ।
(ग) और ४।१८२-१८४ श्लोकों में ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक देवलोकादि की कल्पना भी भ्रान्तिमूलक है । क्यों कि ये कोई लोक विशेष नहीं है । जब आचार्य, अतिथि, ऋत्विक् आदि इसी लोक में हैं, और इनका हमारे से सम्बन्ध है, तो ये अन्य किस लोक के स्वामी हो सकते हैं । और मनु ने मरने के बाद जीव की दो गतियां ही मानी हैं । एक कर्मानुसार जन्म - जन्मान्तरों में जाना, दूसरी ब्रह्मप्राप्ति अथवा मोक्ष । अतः इनसे भिन्न लोकों की कल्पना निरर्थक है, अथवा आलंकारिक वर्णनों को न समझना मात्र ही है ।
(घ) और मान्य व्यक्तियों से निरर्थक विवाद तो नहीं करना चाहिए, किन्तु ज्ञानवर्धन के लिए प्रश्नोत्तर रूप संवाद करना अथवा उनकी बातों को केवल अन्धभक्त होकर ही मान लेना तो अच्छी बात है अथवा उन्नति का कारण है । और अपने से छोटे नौकरों अथवा बीमार व्यक्तियों को हित - दृष्टि से समझाना कोई बुरी बात नहीं है । अतः ‘एतैः अधिक्षिप्तः’ (४।१८५) इनसे तिरस्कृत होकर भी सहता रहे, यह मान्यता मनुसम्मत कदापि नहीं हो सकती । क्यों कि मनु ने तो ‘यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मो वेद नेतरः’ कहकर तर्क अथवा बुद्धिपूर्वक बातों ही को मानने का आदेश दिया है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
एतैः विवादान् संत्यज्य) इन लोगों से झगड़े का त्याग कर (सर्वपापैः प्रमुच्यते) अन्य सब झगड़ों से छूट जाता है। (एभिः जितैः च जयति सर्वान् लोकान् इमान् गृही) इन लोगों को अपने अनुकूल कर लेने से गृहस्थ इन सब लोकों को जीत लेता है।