Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अधर्म से उपार्जित जो अर्थ काम है उसका परित्याग धर्म है परन्तु जो लोक रीति के विरुद्ध है तथा भविष्य सुखदाई नहीं है उसका भी त्याग करना उचित है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. यदि बहुत - सा धन, राज्य और अपनी कामना अधर्म से सिद्ध होती हो तो भी अधर्म सर्वथा छोड़ देवें और वेदविरूद्ध धर्माभास जिसके करने से उत्तरकाल में दुःख और संसार की उन्नति का नाश हो वैसा नाममात्र धर्म और कर्म कभी न किया करें ।
(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)
टिप्पणी :
‘‘जो धर्म से वर्जित धनादिपदार्थ और काम हों उनको सर्वथा शीघ्र छोड़ देवे और जो धर्माभास अर्थात् उत्तरकाल में दुःखदायक कर्म हैं और जो लोगों को निन्दित कर्म में प्रवृत्त करने वाले कर्म हैं उनसे भी दूर रहें ।’’
(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
एवं, जो धर्म से वर्जित धनादि पदार्थ और कामनायें हों, उन्हें सर्वथा शीघ्र छोड़ दे। और, उस धर्माभास को भी छोड़ दे जो उत्तरकाल में दुःखदायी हो, और अन्य लोगों को निन्दित कर्म में प्रवृत करने वाला या संसार की उन्नति का विनाशक हो।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(परित्यजेत् अर्थ कामौ) ऐसे अर्थ और काम को छोड़ दें (यौ स्यातां धर्मवर्जितौ) जो धर्म के विरुद्ध हों। (धर्मं च अपि असुखोदर्कं) ऐसे धर्म को भी न करें जिससे अन्त में दुःख हो (लोकविक्रुष्टं एव) या जिससे संसार को क्लेश हो।