Manu Smriti
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अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः ।कृते त्रेतादिषु ह्येषां आयुर्ह्रसति पादशः । ।1/83
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सतयुग में कोई बीमार न होता था और जो इच्छा करते थे, वही पूर्ण हो जाती थी। चार सौ वर्ष की आयु होती थी। त्रेता आदि तीनों युगों में मनुष्य की आयु एक एक चरण घट गई अर्थात् त्रेता में 300 वर्ष द्वापर में 200 वर्ष, कलियुग में 100 वर्ष।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।८१-८६ तक छः श्लोक निम्न - कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १।८० श्लोक की १।८७वें श्लोक से सृष्टि -रचना तथा उसकी रक्षा से सम्बन्ध होने से पूर्णतः संगति है । इनके मध्य में युगानुरूप धर्मादि का हृास और युगानुरूप फल - कथन की संगति प्रकरणविरूद्ध तथा मनु की मान्यता से विरूद्ध है । १।८१-८६ तक श्लोकों में जगत् का वर्णन न होने से १।८७ में ‘सर्वस्यास्य गुप्त्यर्थम्’ शब्दों की क्या संगति हो सती है ? क्यों कि इन पदों से समस्त - जगत् का ग्रहण किया है । अतः जगदुत्पत्ति के श्लोकों से ही संगति हो सकती है, युगानुरूप धर्मादि के हृास से नहीं । और इस अध्याय का विषय वर्णन करते हुए (१।१४४) श्लोक में सर्ग - रचना तथा धर्म बताया है, पुनः युगानुरूप फलकथन की इस विषय से क्या संगति ? और यह युगानुसार फलकथन मनु की मौलिक - मान्यता से भी विरूद्ध है । मनुस्मृति धर्मशास्त्र है, अतः मनु का समस्त आधार धर्म - अधर्मानुसार (शुभ - अशुभकर्मानुसार) ही है । इस धर्मानुसार फलकथन की संगति युगानुरूप फलकथन से कदापि नहीं हो सकती । यदि युगानुरूप ही फल प्राप्त होवे तो मनुस्मृति का समस्त प्रयोजन ही धराशायी हो जाता है । और यह शास्त्र सब युगों के लिये निरर्थक हो जाता है और इन श्लोकों में चारों युगों में क्रमशः तप, ज्ञान, यज्ञ और दान को धर्म माना है । परन्तु मनु ने इन्हें सार्वभौम सार्वकालिक मानव - मात्र का धर्म माना है । और ‘‘राजा हि युगमुच्यते’’ (९।३०१) में राजा को ही युगा का कारण मनु ने क्यों कहा ? इससे स्पष्ट है कि ये सब श्लोक पौराणिक - युग की देन होने से प्रक्षिप्त हैं ।
 
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