Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
भद्र पुरुषों का आचार सद्धर्म, व पवित्रता है इसमें सदैव दत्तचित्त रहे, स्त्री, पुत्र, दास, शिष्य इन सबको सन्मार्ग दर्शावें और वाणी, बाहु, तथा उदर का संयम करें।
टिप्पणी :
वाणी का संयम सत्य बोलना, बाहु (हाथ) का संयम किसी जीव को क्लेश न पहुँचाना, उदर का संयम यह है कि यूनाधिक जो कुछ प्राप्त हो उसी को भोजन करके रहें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
इसलिए मनुष्यों को योग्य है कि सत्यधर्म और आर्य अर्थात् उत्तम पुरूषों के आचरणों और भीतर - बाहर की पवित्रता में सदा रमण करें अपनी वाणी, बाहू, उदर को नियम और सत्यधर्म के साथ वर्तमान रखके शिष्यों को सदा शिक्षा किया करें ।
(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)
टिप्पणी :
‘‘जो वेदोक्त सत्यधर्म अर्थात् पक्षपातरहित होकर सत्य के ग्रहण और असत्य के परित्याग, न्यायरूप, वेदोक्त धर्मादि आर्य अर्थात् धर्म में चलते हुए के समान धर्म से शिष्यों को शिक्षा किया करें ।’’
(स० प्र० चतुर्थ समु०)
‘‘सत्य, धर्म, आर्य अर्थात् आप्त पुरूषों के व्यवहार और शौच - पवित्रता ही में सदा गृहस्थ लोग प्रवृत्त रहें और सत्यवाणी भोजनादि के लोभ रहित हस्तपादादि की कुचेष्टा छोड़कर धर्म से शिष्यों और सन्तानों को उत्तम शिक्षा सदा किया करें ।’’
(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
इसलिए गृहस्थ को चाहिए कि वह सत्य-धर्म और उत्तम पुरुषों के आचरणों तथा भीतर-बाहर की पवित्रता में सदा तत्पर रहे। और, अपनी वाणी, बाहुअ तथा उदर को संयम में रखकर धर्मपूर्वक पुत्रादि शिष्यों को शिक्षा दिया करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(सत्य-धर्म-आर्यवृत्तेषु शौचे च एव आरमेत् सदा) सदा सत्य, धर्म, आर्यों के से आचरण तथा शुद्धि का पालन करें। (शिष्यान् च शिष्यात् धर्मेण) शिष्यों को धर्म की ही शिक्षा दें। (वाक्-बाहु-उदर संयतः) वाणी, भुजा और पेट को वश में रख के। तात्पर्य यह है कि लोग वाणी से झूठ बोलते, गाली देते, भुजाओं से चोरी करते या मारते, पेट के लिये अधर्म करते हैं। यदि यह तीनों वश में रहें तो अधर्म से बच सकते हैं।