Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अधम्र्मी प्रथम तो अधम्र्म के कारण उन्नत होता है, तत्पश्चात् कल्याण पाता है, तदनन्तर शत्रु विजयी होता है। अन्त को समूल नष्ट हो जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसा तालाब के बंध को तोड़ जल चारों ओर फैला जाता है वैसे) मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खण्डन और विश्वासघात आदि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर, प्रथम बढ़ता है पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान, पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है, जैसे जड़ काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट हो जाता है ।
(स० प्र० चतुर्थ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड और विश्वासघातादि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढ़ता है। तत्पश्चात्, धनादि ऐश्वर्य से खान, पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान और प्रतिष्ठा को पाता है। फिर, अन्याय से शत्रुओं को भी जीत लेता है। परन्तु, फिर अन्त में जड़् से कटे हुए वृक्ष की तरह समूल नष्ट हो जाता है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अधर्मेण एधते तावत्) उस समय तो अधर्म के द्वारा बढ़ जाता है। (ततः भद्राणि पश्यति) फिर समझता है कि अधर्म सुख का मूल है। (ततः सपत्नान् जयति) उससे शत्रुओं को भी जीत लेता है। (समूलः तु विनश्यति) फिर अन्त में जड़ सहित नाश हो जाता है।