Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अतएव बुद्धिमान् पुरुष ब्राह्मण के ताड़नार्थ कभी भी शस्त्र न उठावें। वरन् तृणमात्र से भी न मारें और न शरीर से रुधिर बहावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।१६५-१६९) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ये पाच्चों श्लोक पूर्वापर प्रसंग से विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ४।१६४ वें श्लोक में हिंसा करने का निषेध किया है और ४।१७० में हिंसा करने का फल बताया है कि हिंसा करने वाला कभी सुख नहीं प्राप्त नहीं करता । इस प्रकार १६४ वें श्लोक की १७०वें श्लोक के साथ पूर्णतः संगति है । इस संगति को ये बीच के श्लोक भंग कर रहे हैं ।
(ख) ४।१६५ में ‘तामिस्त्र’ नामक नरक का कथन श्री मनु की मान्यता के विरूद्ध है । ‘नरक’ शब्द का प्रयोग मनु के अनुसार ‘स्वर्ग - सुखविशेष’ के विलोम अर्थ में है । इस विषय में विशेष टिप्पणी ४।८८ - ९० श्लोकों पर भी द्रष्टव्य है ।
(ग) और ४।१६६ में ब्राह्मण को जानबूझकर तिनके से मारकर २१ जन्मों तक पापयोनियों में जन्म लेता है, यह कथन भी मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मनु ने एक कर्म के आधर पर विभिन्नयोनियों में जाना कहीं नहीं माना है । मनु के अनुसार कर्मों के कारण सात्त्विकादि वृत्तियाँ बनती हैं और उन वृत्तियों के अनुसार विभिन्न योनियाँ प्राप्त होती हैं । और तिनके से मारना तथा २१ जन्मों तक पाप योनियों में जाना, यह कर्म फल - व्यवस्था भी अन्याययुक्त होने से मनु - सम्मत नहीं है । क्यों कि मनु ने कर्म - फल - निर्णय में ऐसा निर्धारण कहीं नहीं किया कि कितनी योनियों तक दण्ड मिलता है ।
(घ) और इन श्लोकों में पक्षपात पूर्ण वर्णन होने से ये मनु के श्लोक नहीं हो सकते । मनु ने सब वर्णों के लिये समान आचार - संहिता बनाई है । चाहे वह किसी वर्ण का क्यों न हो, यदि वह किसी मनुष्य को ही नहीं, किसी प्राण धारी को भी निरर्थक सताता है, तो वह हिंसा करने से सुख प्राप्त नहीं कर सकता । किन्तु यहाँ केवल ब्राह्मण को ताड़ना करने का फल दिखाया है, अन्य वर्णो का नहीं, अतः यह पक्षपातपूर्ण वर्णन होने से मान्य नहीं हो सकता । और जितने कण रूधिर से भीगें, उतने वर्षों तक हिंसक जीवों द्वारा खाने की बात भी अतिशयोक्तिपूर्ण ही है । क्यों कि मरने के बाद अन्त्येष्टि - संस्कार होता है, तो कुत्ते कैसे खायेंगे ? यदि हिंसक जीवों को भी मुर्दे को दिया जाता है, तो वे क्या अनेक वर्ष खाने में लगायेंगे ? अतः इस प्रकार का वर्णन प्रमत्त प्रलाप मात्र ही है । मनु ने ऐसी कर्म - फल व्यवस्था कहीं भी स्वीकार नहीं की है । और किस कर्म का कितना फल मिलेगा, यह ईश्वरीय व्यवस्था है, उसकी जीव पूर्णतः जान भी कैसे सकता है ?