Manu Smriti
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आचार्यं च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम् ।न हिंस्याद्ब्राह्मणान्गाश्च सर्वांश्चैव तपस्विनः ।।4/162

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
आचार्य, वेदज्ञानदाता, पिता, माता, गुरु, ब्राह्मण, गऊ, तपस्वी इनमें से किसी को न मारें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. वेद को पढ़ाने वाला, वेद का प्रवचन करने वाला, पिता, माता, गुरू, ब्राह्मण, गाय और सभी तपस्वी इनको प्रताड़ित न करे अर्थात् इनके प्रतिकूल आचरण न करे ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
५४-आचार्य, उपदेशक, पिता, माता, गुरु, ब्राह्मण, गाय और तपस्वी, इन्हें कभी दुःख न दे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
कोई काम ऐसा न करें जिनसे इन लोगों के मन को पीड़ा पहुँचेः-आचार्य, प्रवक्ता अर्थात् वेद की व्याख्या करने वाला, पिता, माता, गुरु, विद्वान ब्राह्मण, गौ, और सब तपस्वी। यहाँ ’हिंस्यात्‘ का अर्थ ’हन्यात्‘ नहीं है। साधारण अप्रसन्न करने का अर्थ है। इन दो श्लोकों में बताया गया है कि जिस काम से अन्तरात्मा को परितोष हो और इन इन को अप्रसन्नता न हो वह धर्म है।
 
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