Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
मनुष्य जो पराधीन कर्म हो उस - उस को प्रयत्न से सदा छोड़े और जो - जो स्वाधीन कर्म हो उस - उस का सेवन प्रयत्न से किया करे ।
(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)
टिप्पणी :
‘‘जो - जो पराधीन कर्म हो उस - उस का प्रयत्न से त्याग और जो - जो स्वाधीन कर्म हो उस - उस का प्रयत्न के साथ सेवन करे ।’’
(स० प्र० चतुर्थ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
५३-मनुष्य को चाहिए कि जो जो पराधीन कर्म हो, उस उस को प्रयत्न से सेवन किया करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जो जो काम पराये वश में हैं उनको छोड़ें। जो जो अपने आधीन हैं उनको नित्य करें। (इससे दासता नहीं आती। स्वतंत्रता रहती है)।