Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सतयुग में धर्म चारों चरण से स्थित था। इस युग के मनुष्य सत्य बोला करते थे और कोई अधर्म का काय्र्य नहीं करते थे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।८१-८६ तक छः श्लोक निम्न - कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १।८० श्लोक की १।८७वें श्लोक से सृष्टि -रचना तथा उसकी रक्षा से सम्बन्ध होने से पूर्णतः संगति है । इनके मध्य में युगानुरूप धर्मादि का हृास और युगानुरूप फल - कथन की संगति प्रकरणविरूद्ध तथा मनु की मान्यता से विरूद्ध है । १।८१-८६ तक श्लोकों में जगत् का वर्णन न होने से १।८७ में ‘सर्वस्यास्य गुप्त्यर्थम्’ शब्दों की क्या संगति हो सती है ? क्यों कि इन पदों से समस्त - जगत् का ग्रहण किया है । अतः जगदुत्पत्ति के श्लोकों से ही संगति हो सकती है, युगानुरूप धर्मादि के हृास से नहीं । और इस अध्याय का विषय वर्णन करते हुए (१।१४४) श्लोक में सर्ग - रचना तथा धर्म बताया है, पुनः युगानुरूप फलकथन की इस विषय से क्या संगति ? और यह युगानुसार फलकथन मनु की मौलिक - मान्यता से भी विरूद्ध है । मनुस्मृति धर्मशास्त्र है, अतः मनु का समस्त आधार धर्म - अधर्मानुसार (शुभ - अशुभकर्मानुसार) ही है । इस धर्मानुसार फलकथन की संगति युगानुरूप फलकथन से कदापि नहीं हो सकती । यदि युगानुरूप ही फल प्राप्त होवे तो मनुस्मृति का समस्त प्रयोजन ही धराशायी हो जाता है । और यह शास्त्र सब युगों के लिये निरर्थक हो जाता है और इन श्लोकों में चारों युगों में क्रमशः तप, ज्ञान, यज्ञ और दान को धर्म माना है । परन्तु मनु ने इन्हें सार्वभौम सार्वकालिक मानव - मात्र का धर्म माना है । और ‘‘राजा हि युगमुच्यते’’ (९।३०१) में राजा को ही युगा का कारण मनु ने क्यों कहा ? इससे स्पष्ट है कि ये सब श्लोक पौराणिक - युग की देन होने से प्रक्षिप्त हैं ।