Manu Smriti
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मन्वन्तराण्यसंख्यानि सर्गः संहार एव च ।क्रीडन्निवैतत्कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः । ।1/80

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
परमात्मा सृष्टि की उत्पत्ति, नाश और मन्वन्तर आदि असंख्य बार अपनी स्वाभाविक शक्ति से रचते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(परमेष्ठी) वह सबसे महान! परमात्मा (असंख्यानि मन्वन्तराणि) असंख्य ‘मन्वन्तरों’ को (सर्गः) सृष्टि - उत्पत्ति (च और संहारः) एव प्रलय को (क्रीडन् इव) खेलता हुआ - सा (पुनः पुनः) बार - बार (कुरूते) करता रहता है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
मन्वन्तर असंख्य हैं और सृष्टि व प्रलय भी अनन्त हैं। सर्वाधिष्ठाता परमात्मा इस सृष्टि-प्रलय-कार्य को खेल की तरह सहजतया बारबार करता रहता है।
 
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