सोऽभिध्याय शरीरात्स्वात्सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ।अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यं अवासृजत् । ।1/8 यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
और जब उनके मन में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि अपने शरीर से एक प्रकार की सृष्टि पैदा करनी चाहिए तो उन्होंने सबसे प्रथम पानी अर्थात् रज को उत्पन्न किया। फिर उस पानी में बीज डाला।