स्पृष्ट्वैतानशुचिर्नित्यं अद्भिः प्राणानुपस्पृशेत् ।गात्राणि चैव सर्वाणि नाभिं पाणितलेन तु ।।4/143 यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिनको छूना वर्जित है यदि उनको स्पर्श करें तो हाथ में जल लेकर उस जल से प्राण (नाक), कर्णादि इन्द्रियों व सर्वशरीर को स्पर्श करें तथा नाभि का पाणि (हथेली) से छुयें।