Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
न स्पृशेत्पाणिनोच्छिष्टो विप्रो गोब्राह्मणानलाण् ।न चापि पश्येदशुचिः सुस्थो ज्योतिर्गणान्दिवा ।।4/142
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जूठे मुख ब्राह्मणों अपने हाथों से ब्राह्मण, गऊ, अग्नि को स्पर्श न करें तथा अपवित्र व अस्वस्व हो, तो वह ब्राह्मण चन्द्र, सूर्य व नक्षत्रों को देखे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।१४२-१४४) श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं - ये प्रस्तुत सतोगुण वर्धन व्रत विषय से सम्बद्ध न होने से असंगत हैं । और इनमें अयुक्तियुक्त तथा अव्यावहारिक बातें होने से ये श्लोक मौलिक नहीं कहे जा सकते । जैसे - ४।१४२ में स्वस्थ मनुष्य द्युलोक में ग्रह - तारों को न देखे, ४।१४३ में गो, ब्राह्मणादि को छूकर इन्द्रियों को छूये, ४।१४४ में स्वस्थ मनुष्य अपनी इन्द्रियों को भी न छुये । इस प्रकार की बात निरर्थक, एवं निराधार ही है । यदि गो, ब्राह्मण, अग्नि पवित्र हैं, तो इनको छूकर इन्द्रियस्पर्श करने का क्या कारण है । और स्वस्थ मनुष्य अपनी इन्द्रियों को बिना छुये कैसे कार्य कर सकता है ? अतः इन श्लोकों की शैली मनुसम्मत न होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS