Manu Smriti
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हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान्विद्याहीनान्वयोऽधिकान् ।रूपद्रविणहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत् ।।4/141
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अंगहीन, अतिरिक्त (अधिक) अंग वाला मूर्ख, कुरुप, नीच जाति, अल्प द्रव्य वाला इनको कूट भाषण न करें अर्थात् काने को काना न कहें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. कम अंगों वालों या अपंगों पर अधिक अंगों वाले मूर्ख आयु में बड़े और रूप और धन से रहित और निम्न वंश वाले, इन पर कभी आक्षेप (व्यंग या मजाक) न करें ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
हीनाङ्गों, अधिकाङ्गों, विद्याहीनों, वृद्धों, कुरूपों, दरिद्रों तथा जाति से हीनजनों को उन बातों के लिए ताना न दे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(न आक्षिपेत्) इन लोगों पर कभी आक्षेप न करें अर्थात् इनकी हँसी न उड़ावें और न इनकी निन्दा करें:- (1) हीनांग-जिनके शरीर का कोई अंग कम हो। (2) अतिरिक्तांग-जिनका कोई अंग अधिक हो जैसे छठी उँगली। (3) विद्याहीन-मूर्ख (4) वयोधिकान्-बहुत बूढ़े (5) रूप द्रव्य विहीनान्-कुरूप और धनहीन (6) जातिहीन अर्थात् जाति से निकाले हुए।
 
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