Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अतिः प्रातः अति संध्या, अति दोपहर (मध्यदिन) के समय अज्ञानपुरुष और शूद्र के साथ एकाकी कहीं न जायें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (४।१४०) श्लोक निम्न कारण से प्रक्षिप्त हैं -
यह श्लोक सतोगुण वर्धन व्रत से समबद्ध न होने से असंगत हैं । और जिस शूद्र को मनु ने द्विजों की सेवा का कार्य सौंपा है, उसके साथ कार्य वश जाना भी पड़ जाये, तो क्या दोष या पाप हो सकता है ? यह अर्वाचीन पक्षपात पूर्ण वर्णन ही है । और बहुत सबेरे, बहुत शाम को, दोपहर के समय, तथा अकेले जाने का निषेध करना भी अव्यावहारिक विभाग है । मनुष्य के कार्य प्रातः, सांय तथा दोपहर भी हो सकते हैं और आजकल जब कि मनुष्य रात्रि में भी शान्त नहीं है, उसको यह उपदेश कैसे ग्राह्य हो सकते हैं ? अतः इस प्रकार की अयुक्तियुक्त बातें मनु की कदापि नहीं हो सकतीं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(न आतिकल्यम्) न बहुत तड़के अँधेरे में, (न अति सायम्) न शाम को अँधेरे में, (न अति मध्यंदिने स्थिते) न ठीक दुपहरी में, (न अज्ञातेन समम्) न बे जाने हुए पुरुष के साथ (गच्छेत्) चले। (न एकः) न अकेला। (न वृषलैः सह) न दोगले के साथ। अविवाहित या अनुचित उत्पन्न हुई सन्तान को ’वृषल‘ कहते हैं। ऐसे लोगों से धोखे की संभावना रहती है क्योंकि अपने माता पिता के विचारों के संस्कार उनमें विद्यमान रहते हैं।