Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दो (४।१३५,१-३६) श्लोक निम्न आधार पर प्रक्षिप्त हैं -
‘सतोगुणवर्धन व्रत’ विषय से सम्बद्ध न होने से ये श्लोक प्रकरण - विरूद्ध हैं । इन श्लोकों में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा सर्प के अपमान न करने का विधान तथा अपमानित द्वारा भस्म करने की बात पक्षपात पूर्ण ही है । यद्यपि ब्राह्मण तथा क्षत्रिय समाज की विशिष्ट शक्तियाँ होती हैं, उनके निरादर करने से समाज की अवनति ही होगी । किन्तु श्लोक में प्रक्षेपक की भावना जन्म मूलक भावों को द्योतित कर रही है । जो कि कर्म मूलक मनु की वर्ण व्यवस्था से सर्वथा विरूद्ध है । जिस ब्राह्मण के लिये २।१६२ में मनु ने अपमान को अमृत के तुल्य बताया है, क्या वही मनु भस्म करने का भय दिखा सकते हैं ? और काल की रस्सी सर्प का अपमान न करने की बात तो सर्वथा ही एक पौराणिक मान्यता है । सर्पादि मानव मात्र के शत्रु हैं, उनको देखकर भी यदि इनको नष्ट न किया जाये, तो मानव की सुरक्षा कैसे सम्भव होगी ? जो मनु आततायी गुरू अथवा ब्राह्मण को भी बिना विचारे (८।३५०) मारने का आदेश दे रहे हैं, क्यों कि उससे समाज दूषित होता है, क्या वे मानव के प्राणान्तक सापों को मारने का निषेध कर सकते हैं ? अतः इस प्रकार के श्लोक मनुप्रोक्त नहीं हो सकते ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यह तीनों अपमान करने पर मनुष्य को भस्म कर देते हैं। इसलिये बुद्धिमान को चाहिये कि इनका अपमानित न करें।