Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
बारह सहस्र वर्ष का देवताओं का एक युग होता है। और उसका एकहत्तर गुणा एक मन्वन्तर होता है। यह बारह सहस्र देवताओं के वर्ष हैं, न कि मनुष्यों के।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. (प्राक्) पहले श्लोकों में (१।७१) (यत्) जो (द्वादशसाहस्त्रम्) बारह हजार दिव्य वर्षों का (दैविकं युगम् उदितम्) एक ‘देवयुग’ कहा है( तत् एक - सप्ततिगुणम्) उससे इकहत्तर गुना समय अर्थात् १२००० × ७१ - ८, ५२, ००० दिव्यवर्षों का अथवा ८,५२,००० दिव्यवर्ष × ३६० = ३०,६७,२०,००० मानुषवर्षों का (इह मन्वन्तरं उच्यते) यहां एक ‘मन्वन्तर’ का कालपरिमाण माना गया है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जो पहले १२००० वर्ष का दैविक युग बतलाया गया है, उसका ७१ गुणा इस मन्वन्तर-काल-गणना में एक मन्वन्तर कहलाता है।१
टिप्पणी :
. पहले चतुर्येगी-प्रमाण के समय दर्शाया जा चुका है कि सत्युग की गणना में ८५०० दैववर्षों का सन्ध्याकाल होता है। उसी तरह इस मन्वन्तर-गणना में भी प्रत्येक मन्वन्तर के पीछे ८५०० दैववर्षों का सन्ध्याकाल होता है तथा आदिम मन्वन्तर स्वायम्भुव के प्रारम्भ में ८५०० दैववर्षों का प्रारम्भिक सन्ध्या काल और अधिक होता है। सब मन्वन्तर १४ हैं। अतः स्वायम्भुव का आदिम सन्ध्याकाल मिला कर कुल १५ सन्ध्याकाल ८५०० वर्षों के प्रत्येक हुए। अब पाठक निम्न रीति से स्पष्टतया युग व मन्वन्तर, इन दोनों प्रकार की गणनायों से दैववर्षों में सृष्टिकाल समझ सकेगे-
१२०००×१०००=१२०००००० युग-गणना से
१२०००×७१×१४+(८५००×१५)=१२०००००० मन्वन्तर गणना से।
सृष्टि, प्रलय और वेदोत्पत्ति के काल को मनुष्य सुगमतया गिन सकें, इसलिए ब्रह्मादिन और ब्राह्मरात्रि की संज्ञायें बांधी गयी हैं। (ऋ० भू० वेदोत्पत्ति)