Manu Smriti
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उद्वर्तनं अपस्नानं विण्मूत्रे रक्तं एव च ।श्लेश्मनिष्ठ्यूतवान्तानि नाधितिष्ठेत्तु कामतः ।।4/132
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (४।१२९ - १३२) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - ये चारों श्लोक विषय - विरूद्ध होने से असंगत हैं । इनका इस अध्याय के सतोगुणवर्धन व्रत विषय से कोई सम्बन्ध नहीं है । और ४।१३१ में मृतकश्राद्ध में खाने तथा मांस भक्षण की बात मनु की मान्यता से विरूद्ध है । और ४।१३० में देव, गुरू, स्नातक, आचार्य तथा यज्ञ में दीक्षित पुरूष की छाया का न लांघना भी अयुक्तियुक्त है । छाया के लांघने अथवा न लांघने से क्या पाप - पुण्य सम्भव है ? ४।१३१ में सन्ध्याकाल में चैराहों पर जाने का निषेध भी निरर्थक ही है । क्यों कि इसमें भी कोई - पाप - पुण्य की बात नहीं है । इस प्रकार के निरर्थक तथा मनु की मान्यताओं से विरूद्ध होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
४२-जानबूझ कर उबटन के मैल, स्नान-जल, मल, मूत्र, रुधिर, नासिका-मल, थूक और वमन पर पांव न रखना चाहिये। वैरिणं नोपसेवेत सहायं चैव वैरिणः। अधार्मिकं तस्करं च परस्यैव च योषितम्॥ ६८॥ ४३-वैरी, वैरी के सहायक, अधर्मी, चोर और परपत्नी से मेल न रखे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(उद्वर्तनम्) उबटन का मैल, (अपस्नानम्) स्नान के उपरान्त बहता हुआ मैला पानी (विट् मूत्रे) मल और मूत्र (रक्तम् एव च) और खून (श्लेष्म निष्ठयू त वान्तानि) कफ, थूक और वमन या, कै की हुई वस्तु। (न अधितिष्ठेत् तु कामतः) इन पर जान बूझकर खड़ा न हो। (रोग लगने का भय है)।
 
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